धारावाहिक पौराणिक उपन्यास
- रामबाबू नीरव
ऋषि कन्या वेदवती - 2
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आश्रम के प्रांगण में वेदवती के माता-पिता की क्षत-विक्षत लाशें पड़ी थी. युवा ऋषिगण दाह-संस्कार की तैयारी में लगे थे. वेदवती तो एकदम से पाषाणी बन चुकी थी. उसकी सहेलियां काफी प्रयास के बाद उसे इस बात का एहसास दिलाने में कामयाब हो पाई कि उसकी दुनिया उजड़ चुकी है, उसके माता-पिता का संहार हो चुका है. उसकी चेतना लौटी और वह अपने माता-पिता के मृत शरीर पर पछाड़ खाकर गिर पड़ी.
ब्रह्मर्षि कुशध्वज और उनकी पत्नी मालावती की इस नृशंस हत्या से वह पूरी उपत्यका शोक में डूब चुकी थी. चूंकि वेदवती अपने माता-पिता की एकलौती संतान थी इसलिए उनके दाह-संस्कार से लेकर अंतिम क्रिया तक के सारे विधि-विधान उसे ही पूरे करने थे. जब सारे कर्म समाप्त हो गये. तब वह एक निस्तब्ध रात्रि में शुभ्र वस्त्र धारण कर तपस्विनी के वेश में अपनी कुटिया से बाहर निकली और नितांत अकेली ही उत्तर दिशा की ओर बढ़ती चली गयी. कई दिवस और रात्रि तक चलते रहने केे पश्चात वह गंधमादन पर्वत* पर अवस्थित एक रमणीय स्थल पर पहुंची. तरह तरह के पुष्पों के साथ साथ अनेक तरह के फलों के पेड़ उस स्थल के सौंदर्य में श्रीवृद्धि कर रहे थे. पेड़ों पर चतर रहे सुगंधित पुष्प लताएं मन को मोह रही थी. पास में ही पहाड़ी से निर्झर की तरह झर रहे जलप्रपात वेदवती की दृष्टि पड़ी. उस जल प्रपात के अद्भुत प्राकृतिक दृश्य को देखकर वह मंत्रमुग्ध हो गयी. ऐसा लग रहा था जैसे उस पहाड़ी पर प्रकृति ने श्वेत वितान तान दिया हो. पहाड़ी के नीचे गिरने पर पानी की बूंदें ऐसी लग रही थी, जैसे आकाश से मोतियों की बरसात हो रही हो. नीचे आकर वह जल प्रपात स्वच्छ और निर्मल झील में परिवर्तित हो चुका था. उस झील का सौंदर्य भी अनुपम था. वेदवती कुछ क्षण तक रुक कर उस प्राकृतिक छटा का अवलोकन करती रही. फिर हवा के तीव्र झोंका के साथ एक सुमधुर स्वर लहरी उसके कानों में पड़ी -
"ओम् नमः शिवाय!
ओम् नमः शिवाय!!" भगवान शिव की यह स्तुति बार बार वेदवती के कानों में गूंजने लगी. वह अचंभित सी उस दिशा की ओर पलट गयी, जिधर से यह आवाज आ रही थी. फिर वह तेजी से पहाड़ी पर चढ़ने लगी. वहां पहुंचने पर उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा. एक टीले पर उसकी ही तरह श्वेत परिधान धारण किये पुष्प अलंकरणों से सजी हुई एक अद्भुत सुन्दरी वनदेवी तपस्यारत थी. उनके गोरे-गोरे मुखड़े एक अप्रतिम तेज दमक रहा था. उस तपस्विनी के माथे के पीछे इंद्रधनुषी आभा मंडल चक्कर लगा रहा था. वह वनदेवी आयु में वेदवती से बड़ी लग रही थीं. वेदवती ने उनके समक्ष आकर साष्टांग प्रणाम निवेदित किया. तपस्या में निमग्न तपस्विनी की छठी इंद्री जाग्रत हो गई. और उन्हें आभास हुआ कि कोई युवती उन्हें सादर नमन निवेदित कर रही है. तपस्विनी की आंखें खुल गयी. अपने समक्ष अपनी ही तरह की एक तपस्विनी को देखकर वे आश्चर्यचकित रह गयी. कुछ पल वेदवती को अपलक निहारते रहने के पश्चात् उस अलौकिक देवी ने पूछा -
"तुम कौन हो और इस पर्वत पर क्या कर रही हो?"
"मेरा नाम वेदवती है आदरणीया." अपने दोनों हाथ जोड़े हुई वेदवती विनम्र स्वर में बोली -"मैं ब्रह्मर्षि कुशध्वज जी तथा साध्वी मालावती की पुत्री हूं. मेरी सुन्दरता मेरे लिए अभिशाप बन गयी है और दुष्ट राजा शंभू ने मुझे प्राप्त करने के लिए मेरे माता-पिता की नृशंसता पूर्वक हत्या कर दी है." इतना कहते कहते वेदवती अपने माता-पिता को स्मरण करके रोने लगी.
"चुप हो जाओ ऋषि पुत्री वेदवती!" तपस्विनी उसे सांत्वना देती हुई बोली -"निश्चित रूप से तुम्हारे साथ भारी अन्याय हुआ है. परंतु तुम अपने आश्रम का परित्याग कर इस निर्जन पहाड़ी पर क्यों आ गयी.?"
"देवी, मैं बाल्यावस्था से ही भगवान विष्णु की आराधिका रही हूं और अब मैं उन्हें पति रूप में प्राप्त करना चाहती हूं."
"क्या कहा, भगवान विष्णु को पति रूप में प्राप्त करना चाहती हो.?" तपस्विनी चौंक पड़ी.
"हां आदरणीया, परंतु आप इस तरह से चौंकी क्यों?" वेदवती किंचित सशंकित भाव से तपस्विनी की ओर देखती हुई पूछ बैठी. -"क्या भगवान विष्णु को पति रूप में प्राप्त करने की इच्छा अपने मन में रखना पाप है?"
"नहीं बिल्कुल नहीं." तपस्विनी मुस्कुराती हुई बोली -"परंतु तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि तुम्हारे आराध्य भगवान विष्णु जी अपनी भार्या देवी लक्ष्मी जी के साथ क्षीर सागर में शेषनाग की शैय्या पर सोए हुए आनंद में मग्न हैं. "
"तो क्या हुआ." वेदवती लापरवाही से बोली -"मैं उनकी आराधिका हूं. मुझे भी उन्हें पति रूप में प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार है. परंतु देवी आप यहां तपस्या क्यों कर रही हैं.?" वेदवती ने चकित भाव से पूछा.
"बस समझ लो मेरी और तुम्हारी कामना एक ही है." तपस्विनी रहस्यमय ढ़ंग से मुस्कुराने लगी. उनकी बात सुनकर वेदवती चौंक पड़ी और उसके मुंह से विस्मयकारी स्वर निकल पड़ा -
"क्या मतलब?"
"तुम घबराओ मत." तपस्विनी उसे आश्वस्त करती हुई बोली -"मैं तुम्हारे आराध्य को पाने के लिए नहीं, बल्कि अपने आराध्य को पाने के लिए तपस्या कर रही हूं."
"आपके आराध्य कौन है देवी?" वेदवती ने उत्सुकता पूर्वक तपस्विनी की ओर देखते हुए पूछा.
"मेरे आराध्य हैं त्रिलोकी नाथ स्वयंभू शिवशंकर, जो सम्पूर्ण विश्व की चेतना हैं और मैं उनकी अर्द्धांगिनी बनकर समस्त संसार की उर्जा बनना चाहती हूं."
"परंतु भगवान शिव शंकर तो कैलाश पर्वत पर अपनी प्राणप्रिया देवी सती के साथ.....?"
"रुको वेदवती." तपस्विनी बीच में ही उसे रोकती हुई बोल पड़ी -"क्या तुम्हें देवी सती की कथा ज्ञात नहीं है?"
"नहीं तो.....!" वेदवती उत्सुक भाव से तपस्विनी की ओर देखने लगी.
"पूर्वजन्म में मैं ही देवों के देव महादेव की अर्द्धांगिनी देवी सती थी."
"क्या....!" वेदवती इस सत्य को जान कर उछल पड़ी.
"तुम्हें इस सत्य को जान कर आश्चर्य हो रहा है न.?"
"हां......!" वेदवती सचमुच आश्चर्यचकित थी.
"तो सुनो मैं अपने पूर्वजन्म की त्रासदीपूर्ण कथा सुनाती हूं."
"जी, सुनाईए." वेदवती उसी टीले पर बैठ गयी, जिस पर तपस्विनी बैठी थीं और एकाग्र भाव से उनकी कथा सुनने लगी.
"पूर्वजन्म में मेरे पिता दक्ष प्रजापति थे, जो ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों में से एक थे. जब मैं विवाह योग्य हुई, तब अपने मन में भगवान भोले शंकर से ही विवाह करने का संकल्प ले ली. परंतु मेरे पिताजी इस विवाह के पक्ष में नहीं थे. उन्हें मेरे आराध्य शिव-शंभु का रहन-सहन और उनकी विचित्र वेशभूषा रत्ती भर भी पसंद न थी. इसलिए वे उन्हें अपना दामाद किसी भी परिस्थिति में बनाने को तैयार न थे. एकबार देवताओं के किसी समारोह में मेरे पिता दक्ष प्रजापति के आगमन पर उनके सम्मान में सारे देवगण उठकर खड़े हो गये, परंतु मेरे आराध्य भगवान शिव शंकर नहीं उठे. उन्होंने इसे अपना घोर अपमान समझा कुपित होकर वे उनसे और भी कुढ़ने लगे और उन्हें अपना चिर शत्रु मान बैठे.
कुछ दिनों पश्चात अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध भगवान भोलेनाथ को अपने पति के रूप में प्राप्त करने हेतु मैं घोर तपस्या करने लगी. मेरी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव शंकर मेरे समक्ष प्रकट हुए और उन्होंने गंधर्व रीति से मुझसे विवाह कर लिया. परंतु मेरे पिताजी इतने अभिमानी थे कि उन्होंने इस विवाह को स्वीकार नहीं किया. अपने पिता के इस व्यवहार से मेरा हृदय आहत हो गया. इतना ही नहीं मेरे पिता दक्ष प्रजापति ने अपने अहंकार में चूर होकर मेरे पति शिव-शंभु से प्रतिशोध लेने की नीयत से एक विशाल "दक्ष महायज्ञ" का आयोजन करवाया. उन्होंने अपने यज्ञ में सभी देवताओं ऋषियों तथा अन्य गणमान्य राजाओं को आमंत्रित किया परंतु जानबूझ कर भगवान शिवशंकर और मुझे आमंत्रित नहीं किया. जब मुझे उस यज्ञ के बारे में जानकारी मिली तब मेरे मन में यह भाव आया कि एक पुत्री होने के नाते इस यज्ञ में मुझे जाना चाहिए. मैंने अपने पति भगवान भोलेनाथ से वहां जाने की अनुमति मांगी. इस पर मेरे पतिदेव ने शांत भाव से कहा -"बिना आमंत्रण के किसी के भी मांगलिक कार्यों में नहीं जाना चाहिए प्रिय, चाहे वह अनुष्ठान पिता ने ही क्यों न करवाया हो और फिर तुम तो जानती हो कि यह अनुष्ठान तुम्हारे पिता ने मुझे अपमानित करने के लिए ही किया है."
"देव, अपने जन्मदाता के घर जाने में मान क्या और अपमान क्या. मैं उनकी पुत्री हूं, सारा अपमान सहन लूंगी. " मैं अपने पिता के घर जाने की जिद कर बैठी. मेरी जिद को देखकर भगवान भोलेनाथ ने अपने कुछ गणों के साथ मुझे मेरे पिता के घर भेज दिया. जब मैं अपने पिता के यज्ञस्थल पर पहुंची तब वहां उपस्थित सभी गणमान्य लोगों ने मेरी उपेक्षा की. मेरे पिताजी ने भी मेरे समक्ष ही भगवान भोलेनाथ का घोर अपमान करना आरंभ कर दिया. वे मेरे पति के लिए अपमान जनक शब्दों प्रयोग करना आरंभ कर दिया. यह सब देखकर मेरा हृदय क्रोध और दु:ख से संतप्त हो गया. अब मुझे अनुभव हुआ कि अपने पति की अवज्ञा करके मैंने बहुत भारी भूल कर दी है. यह अपमान मेरे लिए असह्य था. मैंने मन ही मन निर्णय ले लिया कि अब मेरी आत्मा उस शरीर में नहीं रहेगी, जो शरीर मेरे पिताजी के औरस से निर्मित है. ऐसा निर्णय लेकर मैं तत्क्षण धधक रहे यज्ञकुंड में कूद गयी. मेरे यज्ञकुंड में कूदते ही वहां कोहराम मच गया. जब मेरे आत्मदाह की सूचना मेरे पतिदेव को मिली तब उनका तीसरा नेत्र खुल गया. सर्वप्रथम उन्होंने अपने प्रिय दूत वीरभद्र जी को यज्ञस्थल पर भेजा. वीरभद्र जी ने वहां पहुंचकर उस यज्ञ का विध्वंस करते हुए मेरे पिताजी का धड़ सर से अलग कर दिया. मेरे पिताजी का वध होते ही देवताओं में त्राहिमाम मंच गया. तभी रौद्र रूप धारण किये हुए मेरे पति भी वहां आ गये और मुझे यज्ञकुंड से निकाल कर अपने कंधे पर रख लिया और तांडव करते हुए तीनों लोगों का भ्रमण करने लगी. मेरे पतिदेव के उस उग्ररूप को देखकर तीनों लोकों में हाहाकार मच गया. ब्रह्माजी के निवेदन पर भगवान विष्णु ने मेरे मृत शरीर को खंडित करके भगवान भोलेनाथ के क्रोध को शांत किया. यज्ञकुंड में कूदते समय मैंने मन में संकल्प कर लिया था कि अगले जन्म में भी मैं अपने आराध्य भोलेनाथ की ही अर्द्धांगिनी बनूंगी. इसलिए इस जन्म मे मैं हिमराज हिमालय और उनकी पत्नी मैना देवी की पुत्री के रूप में अवतरित हुई हूं. और अब अपने पूर्व पति भोलेनाथ को ही पति रूप में प्राप्त करने हेतु यहां तपस्यारत थी कि तुमने आकर मेरी तपस्या भंग कर दी."
"मेरी धृष्टता क्षमा करें देवी." वेदवती अपने दोनों हाथ जोड़ कर क्षमा याचना करती हुई बोली -"आपको तो आपके स्वामी मिल ही जाएंगे, परंतु मेरा क्या होगा?" नैराश्य भाव से पूछा वेदवती ने.
"तुम चिंता न करो वेदवती, सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण हेतु तुम्हारे आराध्य भगवान विष्णु अनेकानेक रूपों में अवतार लिया करते हैं, किसी न किसी युग में वे पति रूप में तुम्हें मिल ही जाएंगे. परंतु उन्हें पाने के लिए तुम्हें घोर तप करना होगा." पार्वती जी ने स्नेह से वेदवती के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा. यह उनका आशीर्वाद था. वेदवती उनके आशीर्वाद रूपी प्रसाद को ग्रहण करने के पश्चात गंधमादन पर्वत की सबसे ऊंची चोटी पर जाकर तपस्या में लीन हो गयी.
*****
अनंत काल तक वेदवती अपने आराध्य देव की तपस्या में लीन रही. इस बीच पार्वती जी को भगवान भोलेनाथ पति रूप में प्राप्त हो चुके थे और उन्हें दो पुत्र रत्नों की भी प्राप्ति हो चुकी थी. परंतु संभवतः वेदवती की साधना अब तक पूर्ण नहीं हो पायी थी.
एक दिन भगवान विष्णु अपनी अर्द्धांगिनी देवी लक्ष्मी के साथ गंधमादन पर्वत पर पहुंचे.
"उठो वेदवती." इस दैवीय मृदुल स्वर को सुनकर वेदवती की तंद्रा भंग हो गयी. अपने समक्ष साक्षात्
भगवान विष्णु और महालक्ष्मी देवी को देखकर वह अचंभित रह गयी. उसने उन दोनों का सादर अभिवादन किया.
उसे स्नेहिल आशीर्वाद प्रदान करते हुए भगवान विष्णु ने कहा -"तुम्हारी तपस्या से मैं प्रसन्न हूं वेदवती. तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी. परंतु तुम्हें त्रेतायुग के आने तक धैर्य धारण करना होगा."
"करूंगी प्रभु अवश्य करूंगी और तब-तक तपस्या करती रहूंगी जब-तक की मेरी मनोकामना पूर्ण नहीं हो जाती."
"तथास्तु!" इतना कहकर भगवान विष्णु देवी लक्ष्मी के साथ अन्तर्ध्यान हो गये.
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क्रमशः........!
---------------------------- *गंधमादन पर्वत भारत के दो पौराणिक स्थलों पर अवस्थित है. प्रथम तमिलनाडु राज्य के रामेश्वरम द्वीप में और दूसरा हिमालय क्षेत्र के मानसरोवर झील के निकट. उपरोक्त कथा में वर्णित गंधमादन पर्वत हिमालय क्षेत्र में स्थित पर्वत ही हो सकता है, क्योंकि मां पार्वती हिमराज हिमालय की पुत्री थी और भगवान भोलेनाथ का निवासस्थान भी हिमालय पर स्थित कैलास पर्वत पर था.
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