धारावाहिक पौराणिक उपन्यास (प्रथम खंड)
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- रामबाबू नीरव
रावण और मंदोदरी
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शुभ्र चांदनी रात थी. चन्द्र प्रकाश में तारे लुका-छुपी का खेल खेल रहे थे. सुम्बाद्वीप के उत्तरी छोर पर स्थित एक छोटी सी पहाड़ी पर लेटा हुआ रक्षपति रावण अपनी थकान मिटा रहा था. उसकी दृष्टि आकाश में पूर्ण रूपेण खिले हुए पूनम के चांद पर टिकी हुई थी. वह अपनी विजय पर मन ही मन हर्षित हो रहा था. उसने प्रायः सभी असुर राजाओं को पराजित कर अपने समक्ष घुटने टेकने को विवश कर दिया. लगभग सभी असुर राजा, जिसमें दैत्य, दानव और राक्षस सभी शामिल थे, उसके द्वारा स्थापित रक्ष संस्कृति को स्वीकार कर चुके थे. अब मात्र इस सुम्बाद्वीप का दैत्य राजा ही बाकी बचा था. आज प्रातः ही इस सुम्बाद्वीप के अभेद्य दुर्ग में अकेले घुसकर रावण ने कोहराम मचा दिया. अपने परशु से सुम्बाद्वीप के सैकड़ों दैत्य सैनिकों को मौत के घाट उतारने के पश्चात शेर की तरह दहाड़ते हुए जब वह राजमहल के सिंह द्वार पर पहुंचा तब उसकी दहाड़ सुनकर द्वीप का अधिपति भय से कांपता हुआ बाहर आया और रावण के चरणों में गिर कर अभय दान मांगते हुए बोला -"मुझे आपकी अधीनता स्वीकार है रक्षपति, आइए सुम्बा द्वीप के राज सिंहासन पर विराजिए."
"नहीं अभी नहीं, प्रातः काल में मैं तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार करूंगा."
"जैसी आपकी इच्छा रक्षपति." राजा को अभयदान देकर रावण अपने कंधे पर विशाल परशु रखे हुए और जंगल के राजा शेर की तरह मस्त चाल से चलते हुए इस पहाड़ी पर आ गया. तब-तक रात्रि का आगमन हो चुका था. आकाश में तारे टिमटिमाने लगे थे और पूनम का चांद विहंसने लगा था. तभी रावण को आकाश में कुछ उड़ता हुआ सा दिखाई दिया. निकट आने पर ज्ञात हुआ, यह तो उसके सौतेले भाई कुबेर का पुष्पक विमान है. अपने इस अलौकिक और दिव्य विमान पर चढ़कर वह वैभव का प्रदर्शन कर रहा है. कुबेर के इस विमान की मनमोहक छवि रावण की आंखों को चूभ गई. वह इर्ष्या की अग्नि में जलने लगा. उसके मुंह से सर्द उच्छवास निकल पड़ा -"हाय यह अलौकिक पुष्पक विमान मेरा कब होगा?" कुछ ही क्षणों में वह विमान रावण की आंखों से ओझल हो गया. तभी उसे अपने दायें पार्श्व की पगडंडी पर दो छाया दिख पड़ी. चन्द्र प्रकाश में दोनों छाया स्पष्ट दृष्टिगोचर तो नहीं हो रही थी फिर भी रावण ने अनुमान लगा लिया - उनमें से एक विशालकाय पुरुष है और दूसरी एक षोडशी कन्या. वह विशालकाय पुरुष अपने हाथ में एक भारी-भरकम भाला लिए हुए था, जिसकी तेज धार चन्द्र प्रकाश में चमक रही थी. उसके सर पर स्वर्ण मुकुट शोभायमान था. जो इंगित कर रहा था कि वह किसी छोटे से राज्य का अधिपति होगा. धीरे धीरे पग बढ़ाते हुए वे दोनों उसकी ओर ही बढ़े चले आ रहे थे. उस विशालकाय पुरुष को देखकर रावण ने समझा -"कहीं यह सुम्बा द्वीप का राजा तो नहीं है. परंतु जब राजा को मैंने अभयदान दे दिया, तब फिर उसका यहां आने का क्या प्रयोजन हो सकता है और इसका शरीर थुलथुल है. यह सुम्बाद्वीप का राजा नहीं हो सकता. मैं उसे देख चुका हूं. यह किसी दूसरे गिरोह का सरदार होगा. फिर इसके साथ यह कन्या कौन है ? कहीं यह इसकी पुत्री तो नहीं ? फिर उसने सोचा, यह दानव मेरा कोई शत्रु तो नहीं." रावण के मन में तरह तरह की आशंकाएं उभरने लगी. शत्रु की आशंका होते ही उसने अपने सर के नीचे रखा हुआ परशु निकाल लिया और हवा में लहराने लगा.
जब वे दोनों पहाड़ी के ऊपर आ गये तब रावण चौकन्ना हो गया. उस दानव का हाव भाव ऐसा था जिसे देखकर रावण समझ गया कि यह उसका शत्रु नहीं मित्र हैं. दानव ने आते के साथ आदर भाव से कहा -"स्वस्ति." प्रत्युत्तर में रावण ने भी "स्वस्ति" कहा. दानव की पुत्री उसके पीछे सकुचाई हुई सी खड़ी थी. चूंकि उसकी गर्दन झुकी हुई थी, इसलिए रावण उसके मुखड़े को देख नहीं पाया. रावण ने विनम्रता पूर्वक पूछा -
"महोदय आप कौन हैं और मेरे समक्ष आने का प्रयोजन क्या है?" रावण ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की.
"क्या मैं महर्षि पुलत्स्य के पौत्र और विश्रवा ऋषि के पुत्र रावण से बातें कर रहा हूं.?" दानव ने पूछा.
"जी हां, मैं रावण ही हूं." रावण ने थोड़ा कुपित होकर कहा -"परन्तु क्षमा करें महोदय, मैंने अपने पिता के कुल का परित्याग कर अपनी माता के कुल को स्वीकार किया है. और मेरी माता का नाम कैकसी है. जो राक्षसों के महानायक सुमाली की पुत्री है. मैं अब सभी राक्षसों का स्वामी रक्षपति रावण हूं."
"जानता हूं वत्स रावण." दानव नायक थोड़ा मुस्कुराया -"मुझे प्रसन्नता है कि जिसे मैं ढ़ूंढ़ रहा था वह तुम्हीं हो."
"अपने आने का अभिप्राय बताएं महोदय." रावण ने शिष्टता से विनम्र स्वर में पूछा.
"मैं अपनी आप बीती सुनाऊं उससे पूर्व तुम मेरी पुत्री से मिलो." दानव ने अपनी सुकुमारी पुत्री की कलाई पकड़कर आगे खींच लिया. उस युवती के लावण्यमय मुखड़े पर दृष्टि पड़ते ही रावण आश्चर्यजनक रूप से चौंक पड़ा. यह तो वही युवती है, जो आज प्रातः सुम्बा नगरी के हाट में उसके द्वारा दैत्यों का संहार किये जाते समय हर्षित होती हुई उससे लिपट गयी थी. फिर उसके कान में फुसफुसाती हुई बोली थी -"तुझ में अप्रतिम शौर्य है महाबली, तुम वीर योद्धा हो. मैं तुम से ही विवाह करूंगी."
"वाह.....ऐसे कैसे विवाह कर लोगी.?" रावण उसके भोलेपन पर हंसते हुए बोला था. तब वह खिलखिला पड़ी थी. और अपनी बड़ी बड़ी आंखें मटकाती हुई बोली थी -"करूंगी न. मुझे और मेरे पिताजी को तुम्हारी ही तलाश थी. मैं संध्या में फिर मिलूंगी अभी चलती हूं." इतना कहकर यह युवती धनुष से निकले हुए तीर की भांति सनसनाती हुई आंखों से ओझल हो गयी थी. रावण अपलक उस दिशा की ओर देखता रह गया था.
"रक्षपति रावण." उस महाकाय दानव की आवाज सुनकर रावण चौंक पड़ा और चकित भाव से उसकी ओर देखते हुए बोला -
महोदय, सर्वप्रथम आप अपना परिचय दें." रावण की उत्सुकता बढ़ गई.
"कश्यप सागर के तट पर स्थित हिरण्यपुरी के निकट मेरा पुर है."
"तो क्या आप इस सुम्बाद्वीप के नहीं हैं?" रावण चकित रह गया.
"नहीं. मैं तो दैत्यराज विरोचन* का बांधव हूं. मेरा नाम मय दानव है. एक समय ऐसा था जब मैं काफी प्रभावशाली और वैभवशाली हुआ करता था. मैं भी विरोचन के पिता प्रह्लाद की तरह ही देवताओं का प्रियपात्र था. मेरे आचार-विचार से प्रसन्न होकर देवराज इन्द्र ने हेमा नाम की एक अप्सरा मुझे उपहार स्वरूप प्रदान किया था. हेमा को पत्नी रूप में पाकर मैं तो धन्य था ही, हेमा भी मुझे पति रूप में पाकर प्रसन्न थी. मैंने अपनी प्राणेश्वरी हेमा के लिए एक महल बनवाया. कुछ दिनों पश्चात उसने एक सुन्दर सी कन्या को जन्म दिया. जब हमारी पुत्री षोडषी हुई तब हेमा हम पिता पुत्री को त्याग कर यह कहती हुई स्वर्गलोक चली गयी कि पृथ्वीलोक हमारी अवधि पूर्ण हो चुकी है. मैं अपनी प्रियतमा हेमा को खोकर असमय में ही वृद्ध हो चला हूं. हेमा की सुलक्षा पुत्री यही है. और इसका नाम मंदोदरी है. मैं चाहता हूं कि हेमा की निशानी मेरी इस पुत्री को तुम पत्नी रूप में स्वीकार कर लो. जहां तक मुझे ज्ञात है, मंदोदरी की भी यही इच्छा है कि तुम उसे पति रूप में मिलो."
"परंतु इसके लिए आपको तथा आपकी पुत्री मंदोदरी को हमारी रक्ष संस्कृति को स्वीकार करना होगा."
"मुझे स्वीकार है." मय दानव ने शीघ्रता से कहा.
"तो फिर मुझे भी आपका यह प्रस्ताव स्वीकार है दानव नायक मय." रावण ने मंदोदरी की ओर दृष्टिपात किया. वह भी प्रशंसनीय दृष्टि से उसकी ओर ही देख रही थी फिर उसके अधरों पर मृदुल मुस्कान थिरक उठी.
"मेरा अहोभाग्य रक्षपति रावण." मय दानव ने हर्ष प्रकट करते हुए कहा. -"मेरी इस सुलक्षणा पुत्री मंदोदरी के अतिरिक्त एक पुत्री और भी है. उसका नाम दम्यमालिनी है. वह मेरी प्रथम पत्नी के गर्भ से है. दो पुत्र भी है. उनमें से एक का नाम मायावी है और दूसरे का दुंदुभी. मेरे दोनों पुत्र तुम्हारी तरह ही पराकर्मी और मायावी हैं. मैं अपनी दूसरी पुत्री दम्यमालिनी का भी विवाह तुम्हारे साथ ही करना चाहता हूं. मेरे दोनों पुत्र भी तुम्हारी रक्ष संस्कृति को आगे बढ़ाने में तुम्हारी सहायता करेंगे, क्या तुम्हें स्वीकार है पुत्र."
"हां मुझे स्वीकार है." रावण ने मय दानव के इस प्रस्ताव को भी स्वीकार कर लिया. -"यदि आपके दोनों पुत्र मेरे साथ आ जाएंगे तब निश्चित रूप से मेरी शक्ति काफी बढ़ जाएगी."
"तो ठीक है, कल्ह प्रातः काल में ही मैं अपनी दोनों पुत्रियों के साथ दोनों पुत्रों को भी आपको सौंप दूंगा रक्षपति रावण."
"महामहिम दानव नायक." रावण सम्मानित भाव से विनम्रता पूर्वक बोला. -"यह सुम्बाद्वीप अब हमारा है. कल्ह प्रातः काल में इस द्वीप के राजा मेरे समक्ष आत्मसमर्पण करने वाले हैं. अतः हमारा आपकी पुत्रियों के साथ सुम्बाद्वीप के राजमहल में ही विवाह सम्पन्न होगा."
"अति उत्तम पुत्र." मय दानव अति उत्साहित होते हुए बोला -"मैं अभी से ही विवाह की तैयारी में लग जाता हूं. चलो पुत्री." मय दानव अपनी पुत्री मंदोदरी के साथ जिस पगडंडी से होकर आया था, उसी से होकर वापस चला गया. रावण काफी देर तक अपनी होने वाली पत्नी को देखता रहा. कभी कभी मंदोदरी भी उसे पलट कर देखा लेती.
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सुबह होते ही सुम्बा द्वीप का राजा अपने मंत्रियों और दरबारियों के साथ उस पहाड़ी पर आया और पूरे राजकीय सम्मान के साथ रावण को राजमहल में ले गया. वह अब रक्षपति रावण का दास था. जब उसे ज्ञात हुआ कि रक्षपति रावण हिरण्य नगरी के मय दानव की पुत्रियों से विवाह करनेवाले हैं तब पूरे उत्साह और उमंग के साथ वह विवाह की तैयारी में जुट गया. पूरे सुम्बाद्वीप में हर्ष की लहर दौड़ गयी. सुम्बाद्वीप के नागरिक अपने नये राजा के विवाहोत्सव में पूरे हर्षोल्लास के साथ सम्मिलित हुए. रावण का यह विवाह अनोखा था. भले ही रावण ने मंदोदरी के साथ साथ उसकी बहन दम्यमालिनी के साथ भी विवाह किया था, परंतु उसकी प्रथम पत्नी यानि पट्टरानी मंदोदरी ही बनी.
सुम्बाद्वीप के राजमहल में ही रावण ने सुहागरात मनाया. लगभग एक माह तक वह अपने वैवाहिक जीवन का आनंद लेता रहा. परंतु रावण का लक्ष्य मात्र आनंद भोग नहीं था. उसे स्वर्णनगरी लंका के साथ साथ, कुबेर का खजाना और पुष्पक विमान भी हस्तगत करना था. मन में एक दृढ़ संकल्प लेते हुए वह अपनी दोनों पत्नियों को साथ लेकर अपने नाना सुमाली के अस्थाई निवास पर पहुंच गया. वहीं उसकी मां कैकसी के साथ छोटा भाई विभीषण और बहन सूर्पनखा भी थी. उन सबों ने राक्षस कुल की दोनों कुलवधुओं का हार्दिक अभिनन्दन किया.
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*विरोचन असुर राज हिरण्यकश्यप का पौत्र और प्रह्लाद का पुत्र था. प्रह्लाद की मृत्यु के पश्चात विरोचन ही असुरों का नायक बना. विरोचन के समय में भी देवासुर संग्राम हुआ था. जिसमें देवराज इन्द्र ने छल से विरोचन को मार डाला था. विरोचन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बलि असुरों का राजा बना.
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क्रमशः.........!
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