धारावाहिक पौराणिक उपन्यास (प्रथम खंड)

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- रामबाबू नीरव 

रक्षपति रावण

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तीनों राक्षस कन्याओं ने विश्रवा ऋषि को प्रसन्न कर अद्भुत संतानों की प्राप्ति की. सुमाली की पुत्री कैकसी ने चार संतानों को जन्म दिया. तीन पुत्र और एक पुत्री. उसके पुत्रों में सबसे बड़ा रावण था, उसके बाद कुंभकर्ण और सबसे छोटा विभीषण, वहीं पुत्री सूर्पनखा थी.

इसी तरह माली की पुत्री राका ने दो जुड़वा पुत्रों अहिरावण और महिरावण तथा माल्यवान की पुत्री पुष्पोत्कटा ने भी दो जुड़वा पुत्रों खर और दूषण को जन्म दिया. इन सभी राक्षस संततिओं ने अपने मातृकुल की सभ्यता और संस्कृति और आचार-विचार को अपनाया. परंतु कैकसी के सबसे छोटे पुत्र विभीषण ने अपने पिता विश्रवा ऋषि के संस्कार को अपनाया यानी वे साधु प्रवृत्ति के निकले. फिर भी उस काल की राक्षसों में प्रचलित प्रथा के अनुरूप उसने भी प्रमुखता अपनी मां कैकसी के कुल को ही दी. राका और पुष्पोत्कटा अपने अपने पुत्रों को लेकर पिता के पास चली गयी. बाद के दिनों में उन दोनों के चारों पुत्र दुर्दांत राक्षस बने. जिनके आतंक से समस्त आर्यावर्त कांपा करता था. कैकसी अपनी चारों संतानों के साथ विश्रवा ऋषि के आश्रम में रहकर पुत्रों तथा पुत्री का लालन-पालन करने लगी.

कैकसी का बड़ा पुत्र रावण बालकाल से मेधावी और तेजस्वी था. तीनों भाई अपने पिता विश्रवा ऋषि से वैदिक शिक्षा प्राप्त करने लगे. रावण ने चारों वेदों के साथ साथ उपनिषदों और शास्त्रों का भी ज्ञान प्राप्त किया. सामवेद रावण का प्रिय विषय था. सामवेद का वह अल्पावधि में ही प्रकांड विद्वान बन गया. रावण ने ज्योतिष, आयुर्वेद, चिकित्सा विज्ञान, राजनीति शास्त्र, संगीत शास्त्र आदि विधाओं की भी विधिवत् शिक्षा प्राप्त की.* बौध्दिक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात उसने अस्त्र-शस्त्र तथा युद्ध संचालन की विधिवत शिक्षा भी दी. विभीषण ने भी सभी अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किये परंतु शस्त्र और युद्ध में उनकी रूचि न थी. इसलिए अस्त्र-शस्त्र संचालन से वे वंचित रहे. कुंभकर्ण विचित्र प्राणी था वह ऐसा भुक्खड़ था कि कई नगरों के प्राणियों का भोजन अकेले ही चट कर जाया करता था. उसका शरीर किसी छोटे-मोटे पहाड़ी की तरह विशाल था. उसके इस भक्षण प्रवृत्ति से उसके परिजनों के अतिरिक्त अन्य लोग भी आतंकित रहा करते थे. अचानक एक दिन भ्रमण करते हुए उसकी दृष्टि इन्द्र के इन्द्रासन पड़ गयी और वह इन्द्रासन प्राप्त करने के लिए परमपिता ब्रह्मा जी की तपस्या करने लगा. उसकी एक कमजोरी थी, वह तुतलाया करता था. जब उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हुए तब उसने अपनी  तोतली बोली मैं उनसे इन्द्रासन के बदले निद्रासन मांग लिया, परिणाम स्वरूप वह हर समय सोया ही रहता. वर्ष में मात्र एक दिन वह भोजन के लिए जगता फिर सो जाता. उसे मिले इस वरदान से कम-से-कम विश्व का कल्याण तो ही गया इसके साथ ही देवराज इन्द्र का इन्द्रासन भी बच गया. अब रावण अपने  दोनों भाइयों तथा दुलारी बहन सूर्पनखा के साथ अपने नाना सुमाली तथा मामा प्रहस्त की छत्रछाया में था. सुमाली देवताओं के विरुद्ध भड़काने ‌लगा तथा उसके मनोमस्तिष्क में यह भर दिया कि लंका राक्षसों की है और उसे लंका हस्तगत कर वहां का अधिपति बनना है. रावण शक्तिशाली तो था ही महत्वकांक्षी भी था. उसने दृढ़ निश्चय कर लिया, वह सिर्फ लंका ही नहीं बल्कि तीनों लोकों का स्वामी बनकर रहेगा. अब उसने अपना सारा ध्यान  अस्त्र-शस्त्र संचालन पर केंद्रित कर दिया. उसने विशेष रूप से भाला, गंदा, धनुष, परशु तथा खड्ग चलाने में महारत प्राप्त किया. इसके साथ ही वह मल्लयुद्ध में पारंगत हो चुका था. उसका सबसे प्रिय अस्त्र परशु था. उसने स्वयं अपने हाथों से एक विशाल परशु का निर्माण किया जिसे वह हर समय अपने कंधे पर रखे हुए दिग्विजय का स्वप्न देखने लगा. सुमावली अपने सभी संबंधियों तथा प्रिय दौहित्रों के साथ एक छोटे से समुद्री द्वीप पर आकर रहने लगा. वह द्वीप आदिवासियों का था. अपने पराक्रम से रावण उन आदिवासियों के साथ साथ उनके द्वीप का भी स्वामी बन बैठा. यह रावण की प्रथम जीत थी. इस जीत से वह अतिउत्साहित हो गया. सुमाली को अब लगने लगा कि रावण के रूप में उसे एक ऐसा हीरा मिल चुका है जो सभी असुरों (दैत्य, दानव और राक्षस) को संगठित कर पूरे आर्यावर्त में राक्षसों का विशाल साम्राज्य स्थापित करेगा.

रावण जगत पिता ब्रह्मा तथा भोले शिवशंकर का परम भक्त था. उसने अतुल शक्ति प्राप्त करने हेतु इन दोनों आदि देवों की कठोर तपस्या आरंभ कर दी. जहां ब्रह्मा जी ने उसे सदा अजेय रहने का वरदान दिया वहीं शिव शंभू ने अनेकों दिव्यास्त्र प्रदान किये. उन दिव्यास्त्रों में प्रमुख थे पशुपति अस्त्र और ब्रह्मास्त्र. इतनी शक्ति प्राप्त कर लेने के पश्चात वह अपने मन में दिग्विजय का सपना संजोए हुए निकल पड़ा अनंत यात्रा पर. सर्वप्रथम उसने छोटे छोटे टापुओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया. फिर यत्र-तत्र छुपे हुए राक्षसों, दैत्यों तथा दानवों को एकत्रित करके सबों के एक छत्र के नीचे ले आया. राक्षसों के तीनों कुलों को मिला कर उसने एक नयी संस्कृति की स्थापना की. जिसका नाम रखा - "रक्ष-संस्कृति". रावण की यह रक्ष-संस्कृति उसके सौतेले भाई कुबेर की "रक्ष-संस्कृति" के बिल्कुल विपरीत थी. रावण की "रक्ष-संस्कृति" का मूल मंत्र था -"वयं रक्षाम:" अर्थात "तुम हमारे शरण में आओ हम तुम्हारी रक्षा करेंगे. लगभग आर्यावर्त की सभी आदिम जातियों के साथ-साथ सभी समुद्री द्वीपों का भी देखते देखते रावण अधिपति बन चुका था. और उसने स्वयं को रक्षपति घोषित कर दिया. जिसने रावण की रक्ष-संस्कृति को स्वीकार किया उसे अभय दान, जिसने अस्वीकार किया उसे मृत्यु दंड. अब उसकी दृष्टि स्वर्णनगरी लंका पर टिकी थी.

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*रावण ने विभिन्न विषयों पर आधारित ग्रंथों की रचना की थी, जो इस प्रकार हैं - रावण संहिता, अरुण संहिता, अर्क प्रकाश, नारी परीक्षा, कुमार तंत्र आदि. वह कुशल वीणा वादक भी था. वीणा के प्रति उसका अनुराग इतना गहरा था कि जब वह लंका का अधिपति ‌बना तब उसने अपने ध्वज का प्रतिक चिन्ह वीणा को ही बनाया.

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क्रमशः...........!

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