पौराणिक कथा  



-रामबाबू नीरव

जब महर्षि विभांडक की चेतना लौटी तब उन्होंने स्वयं को उर्वशी के आलिंगन में पाया. उनके ब्रह्मचर्य के साथ साथ वर्षों की तपस्या भी भंग हो चुकी थी. शीघ्र ही उन्होंने  स्वयं को उर्वशी के बाहुपाश से मुक्त किया और प्रज्वलित ऑंखों से उसे घूरते हुए क्रुद्ध स्वर में  पूछ बैठे -"सच सच बताओ तुम कौन हो और तुमने मेरे  साथ ऐसा छल क्यों किया?  यदि तुमने सबकुछ सच सच नहीं बताया तो मैं तुम्हें श्राप देकर भस्म कर दूंगा." ‌ऋषि विभांडक के क्रोध को देखकर उर्वशी सूखे पत्ते की भांति कांपने लगी. वह ऋषि के कदमों में गिरकर प्राण रक्षा की भीख मांगती हुई करूण स्वर में बोली -"क्षमा करें ऋषिवर! मैं इन्द्रलोक की अप्सरा उर्वशी हूँ और आपको भ्रष्ट करने का अपराध मैंने नहीं बल्कि देवराज इन्द्र ने किया है. मैं तो उनकी दासी मात्र हूँ. उनकी आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है."

"उस दुष्ट इन्द्र से तो मैं बाद में निबटूंगा, परंतु तुम्हें भी तुम्हारी इस दुष्टता का दंड देना आवश्यक है. ताकि भविष्य में कोई भी पुंश्चली स्त्री किसी भी तपस्वी की तपस्या भंग करने की धृष्टता न करे."

"नहीं....!" उर्वशी के मुंह से करूणा पूर्ण स्वर निकल पड़ा -"नहीं आर्य श्रेष्ठ, आप तेजस्वी ऋषि हैं, ऐसा अन्याय न करें. पृथ्वी पर आर्य संतति के विस्तार हेतु हम अप्सराओं को किसी भी तेजस्वी ऋषि अथवा प्रतापी राजा से शारीरिक सम्बन्ध बनाने का अधिकार प्राप्त है. स्वछंद यौनाचार हम अप्सराओं के लिए वरदान है, अभिशाप नहीं.! मुझसे पूर्व भी अनेकों अप्सराएँ किसी तेजस्वी ऋषि अथवा प्रतापी राजा से संबंध स्थापित कर तेजस्वी संतानों को जन्म दे चुकी है. मैं भी आपकी वंशवृद्धि के लिए एक तेजस्वी पुत्र को जन्म देना चाहती हूँ." उर्वशी की तर्कसंगत बातें सुनकर विभांडक ऋषि स्तब्ध रह गये. उर्वशी ने जो कुछ भी कहा था वह सब अक्षरशः सत्य था. उन्होंने मन ही मन उर्वशी को तो क्षमा कर दिया, परंतु इन्द्र के प्रति उनका आक्रोश कम न हुआ. उन्होंने ठान लिया -"चाहे जैसे भी हो, मैं इस अनैतिकता के लिए इन्द्र को सबक सीखा कर रहूंगा. साथ ही आजीवन किसी भी स्त्री की छाया तक अपने ऊपर न पड़ने दूंगा."

"ऋषिवर यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं शिशु के जन्म लेने तक आपके आश्रम में रह सकती हूँ.?"

"हुंह.... इसके अतिरिक्त तो कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है, परंतु सावधान उर्वशी, अब मैंने अपने ऊपर किसी भी स्त्री की छाया तक न पड़ने देने का संकल्प ले लिया है.... इसलिए भूलकर भी मेरे समक्ष आने की धृष्टता मत करना."

" जो आज्ञा ऋषिवर. " उर्वशी शिशु के जन्म तक विभांडक ऋषि के आश्रम में ही रही. परंतु उसने ऋषि से अपनी दूरी बना रखी. जब तक वह आश्रम में रही विभांडक ऋषि पर अपनी छाया न पड़ने दी. 

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यथा समय उर्वशी ने एक बालक को जन्म दिया और  उस बालक को ऋषि के आश्रम में छोड़कर देवलोक को प्रस्थान कर गयी. उस बालक के लालन पालन करने कि जिम्मेदारी विभांडक ऋषि पर आ गयी. चूंकि बालक का जन्म विभांडक ऋषि के औरस से ही हुआ था, इसलिए उसे पालने की जिम्मेदारी भी उनकी ही थी. उस बालक के माथे पर एक छोटा सा सिंग (शृंग) था, इसलिए ऋषि ने अपने पुत्र का नाम ऋष्यशृंग रखा. उन्होंने उसी आश्रम में उसका लालन पालन आरंभ कर दिया. ऋषि ने यह भी प्रतिज्ञा ले ली कि अपने पुत्र के ऊपर भी वे किसी भी स्त्री की छाया तक न पड़ने देंगे. उन्होंने अपने पुत्र को उसी आश्रम में एक गुप्त कक्ष का निर्माण कर छुपा दिया. अपने पुत्र की क्षुधा शान्त करने हेतु उन्होंने एक गाय पाल लिया. वे अपने पुत्र के माता और पिता दोनों थे. जब ऋष्यशृंग थोड़ा बड़ा हुआ तब विभांडक ऋषि उसमें आर्य सभ्यता और संस्कृति का संस्कार डालने लगे. प्रत्येक दिन सूर्योदय से पूर्व ही वे अपने पुत्र के साथ महामती नदी में स्नान करके आश्रम में आ जाते तथा वेद पाठ करने के पश्चात होम करते, फिर कंदमूल का भोग लगाकर कर ऋष्यशृंग को उसके कक्ष में छुपा देते. दूसरे आश्रम के भी कुछ तरुण ऋषि कुमार उनसे वैदिक शिक्षा ग्रहण करने उनके आश्रम में आते, उन्हें शिक्षा देने के पश्चात वे भिक्षाटन हेतु नगर की ओर प्रस्थान कर जाते. यह उनका तथा उनके पुत्र का प्रत्येक दिन का नियम बन गया.

देवराज इन्द्र द्वारा किये गये छल को वे भूल नहीं पाये थे. जैसे जैसे उनका पुत्र बड़ा होता जा रहा था वैसे वैसे उनके मन में इन्द्र के प्रति प्रतिशोध की भावना प्रबल होती जा रही थी. वे ऋषि-मुनियों, राजा तथा प्रजा को इन्द्र को देवराज नहीं मानने को प्रेरित किया करते. उनके इस कृत्य से देवराज इन्द्र की प्रतिष्ठा धूमिल हो रही थी. इतना ही नहीं, कई ऋषियों तथा राजाओं ने तो विभांडक ऋषि के कहने पर इद्र को यज्ञ भाग देना भी बंद कर दिया था. अब देवराज की सहन शक्ति जवाब देने लगी और उन्होंने भी विभांडक ऋषि से प्रतिशोध लेने का निश्चय कर लिया. चूंकि विभांडक ऋषि का आश्रम अंग राज्य की सीमा में था, इसलिए देवराज इन्द्र ने अंग राज्य पर ही कहर ढ़ाना आरंभ कर दिया. उन्होंने वहाँ बारिश रोक दी. लगातार कई वर्षों तक अंग देश में बारिश नहीं हुई. इस अनावृष्टि के कारण पूरे अंगदेश में अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गयी. कुछ वर्षों तक राज्य के भंडार में आपातकाल के लिए सुरक्षित रखे गये अन्न से प्रजा का प्रति पालन होता रहा, परंतु जब राज्य के भंडार में संरक्षित अन्न भी समाप्त हो गया तब प्रजा में हाहाकार मच गया. महाराज रोमपाद की चिंता बढ़ गयी. उन्होंने वर्षा के लिए अनेकों पूजा पाठ, होम जाप और यज्ञ करवाये परंतु देवराज इन्द्र का हृदय न पिघला. अंत में उन्होंने ऋषि मुनियों की एक वृहद सभा बुलाई. उस सभा में अनेकों ऋषियों ने अनावृष्टि से मुक्ति के विचित्र विचित्र सुझाव दिये, जो तर्कसंगत न थे. अंत में एक वयोवृद्ध ऋषि ने कहा.- "अंगदेश में बारिश तभी होगी जब इस देश की भूमि पर किसी ऐसे युवा ऋषि के चरण पड़ेंगे, जो बाल ब्रह्मचारी हो साथ ही उसके ऊपर अबतक किसी स्त्री की छाया तक न पड़ी हो." उक्त ऋषि का सुझाव तर्कसंगत तो था, परंतु समस्या यह थी कि ऐसा ऋषि मिलेगा कहाँ? इस जटिल प्रश्न का उत्तर भी उसी वृद्ध और अनुभवी ऋषि ने ही दिया -"चम्पा नगरी से पाॅंच योजन दूर मनोरमा नदी के तट पर एक सघन वन है, उसी वन में महर्षि कश्यप ऋषि के पुत्र विभांडक ऋषि का आश्रम है. विभांडक ऋषि का भी एक पुत्र है, जिसका नाम ऋष्यशृंग हैं. ऋषि विभांडक ने अपने पुत्र को न सिर्फ बाल ब्रह्मचारी बनाया है, बल्कि उस पर अभी तक किसी स्त्री की छाया तक भी नहीं पड़ने दी है." वृद्ध ऋषि की बातें सुनकर महाराज रोमपाद पुनः चिंता में डूब गये. अब समस्या थी कि ऋष्यशृंग को उस गुप्त स्थान से लाएगा कौन? इस समस्या का समाधान बताते हुए ऋषि ने कहा -"कोई चतुर और युवा गणिका इस काम को कर सकती है."

महाराज रोमपाद ने राज्य के महामंत्री को निर्देश दिया -"यथा शीघ्र किसी चतुर युवा गणिका की तलाश करके उसे यथा शीघ्र राजदरबार में उपस्थित किया जाये."

"जो आज्ञा महाराज." महामंत्री ने तत्क्षण ही अपने गुप्तचरों को किसी सुन्दर, चतुर और युवा वारांगना की खोज करने की आज्ञा दी.

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क्रमशः........!

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