पौराणिक कथा 


शान्ता अपने उद्देश्य में सफल हो चुकी थी. विभांडक ऋषि का पुत्र ऋष्यशृंग अब पूर्णरूपेण उसके वश में था. हांलाकि गणिका सावंती और उसकी चतुर पुत्री ने त्रिया चरित्र का सहारा लेकर छल से इस कार्य को निष्पादित किया था, परंतु चूंकि मॉं पुत्री ने यह प्रपंच परमार्थ के लिए रचा था, इसलिए इसे अपराध नहीं माना जा सकता था. क्योंकि आर्य संस्कृति में मानव कल्याण के लिए किये जाने वाले किसी भी कार्य को सबसे बड़ा धर्म माना गया है. और इन दोनों मॉं पुत्री ने अकाल से पीड़ित प्रजा को त्राण दिलाने के निमित्त एक ब्रह्मचारी ऋषि का अपहरण किया था, इसलिए धर्मानुसार इसमें कोई दोष न था. शान्ता और उसकी तीनों सहेलियाँ ऋष्यशृंग को लेकर आश्रम रूपी नौका पर आयी तब सावंती तथा अन्य युवा गणिकाओं ने, जो अब अपने वास्तविक रूप में आ चुकी थी, उन सभी पर पुष्प की वृष्टि कर उनका भव्य स्वागत किया. शान्ता, उसकी सहेलियों तथा ऋष्यशृंग के नौका पर चढ़ते ही सावंती के संकेत पर नाविकों ने नौका को खोल दिया. नौका अब तीव्रगति से चम्पा नगरी की ओर भागी जा रही थी. विभांडक पुत्र तरुण ऋषि को तनिक भी भान न हुआ कि बड़ी चतुराई से छलनामयी गणिकाओं ने उसका अपहरण कर लिया है. वह तो अपलक शान्ता के अद्भुत सौंदर्य को निहारे जा रहा था. शान्ता के प्रति उसके दिल में अद्भुत प्रेम का संचार हो चुका था और वह उसे अपने आलिंगन में बांधने को बेचैन होने लगा. परंतु वह इतनी स्त्रियों के समक्ष ऐसा कैसे कर पाता.? एक ओर उसके मन में नवसृजित प्रेम था, तो दूसरी ओर संकोच का भाव. शान्ता उसके मन में उठ रहे इन दोनों भावों को भांप गयी. वह मुस्कुराती हुई ऋष्यशृंग की कलाई थामकर उसे एक ऐसे कक्ष में ले आयी जो नृत्यशाला जैसा था. वहाँ सुन्दर रमणियां मृदंग, वीणा, तानपूरा, बांसुरी, सितार, एकतारा आदि वाद्ययंत्र बजा रही थी. ऋष्यशृंग विस्मृत भाव से इस अलौकिक दृश्य को अपलक निहाने लगा. ऐसे अनुपम दृश्य की तो उसने परिकल्पना भी न की थी. उसके मुँह से अनयास ही निकल गया -"वाह....अद्भुत है यह सब.... सुन्दरी तुम मुझे कहाँ ले आयी हो?"

"आनन्द लोक में, यहाँ सिर्फ आनंद ही आनंद है ऋषि कुमार." हॅंसती हुई बोली शान्ता. 

"सच कहा तुमने, यहाँ तो आनंद ही आनंद है." ऋष्यशृंग मखमली आसन पर बैठ गया और शान्ता नृत्यशाला के बीचोबीच में आकर नृत्य की मुद्रा में खड़ी हो गयी. फिर वह अपने दोनों कर जोड़कर संगीत की अधिष्ठात्री मॉं वागेश्वरी को नमन करने के पश्चात मनमोहक नृत्य करने लगी. उसके नृत्य पर ऋष्यशृंग झूमने लगा. कुछ देर बाद सावंती भी वहाँ आ गयी और वाद्ययंत्र बजा रही गणिकाओं के साथ बैठकर भैरवी राग में भक्ति रस का गीत गाने लगी. सावंती की मीठी और सुरीली आवाज ने ऐसा शमां बांधा कि ऋष्यशृंग अपनी सुधबुध खो कर आनंद के इस सागर में तैरने लगा. वह इधर रूपजीवाओं के साथ राग-रंग में डूबा हुआ था और उधर उसके आश्रम में महर्षि विभांडक उसके  वियोग में तड़प रहे थे.

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    सूर्यास्त के पश्चात विभांडक ऋषि अपने आश्रम में पधारे. जैसे ही उनके कदम आश्रम के प्रांगण में पड़े कि वहाँ छितराए पुष्पों की पंखुड़ियों को देखकर उनके होश उड़ गये. मसले हुए पुष्पों के ऊपर अनगिनत पांवों के निशान बने थे. फूलों के छोटे छोटे पौधों को भी बड़ी निष्ठुरता पूर्वक कुचल दिया गया था. उनकी समझ में नहीं आया कि उनके आश्रम में ऐसा उधम मचाया किसने.? तभी उनकी दृष्टि भूमि पर गिरे किसी स्त्री की ओढ़नी पर पड़ी. उस ओढ़नी को देकर उनकी छठी इंद्री जागृत हो गयी और उन्हें समझते देर न लगी कि उनकी अनुपस्थिति में निश्चित रूप से या तो कोई अप्सरा या फिर कोई वारांगना यहाँ आयी थी. पांवों के निशान तो यही बता रहे हैं कि उनकी संख्या एक दो नहीं बल्कि तीन चार से भी अधिक रही होगी. "मेरा पुत्र...." तभी उन्हें अपने पुत्र का स्मरण हुआ -"कहीं मेरे पुत्र के साथ वही अधर्म तो नहीं हुआ, जो मेरे साथ हुआ था. यदि पुनः इन्द्र ने ही ऐसा दुष्कर्म किया है, तो मैं उसे छोड़ूँगा नहीं." क्रोध से उफनते हुए वे ऋष्यशृंग के कक्ष की ओर दौड़ पड़े, परंतु यह क्या..... कक्ष तो बिलकुल सूना सूना था. विभांडक ऋषि विक्षिप्त की सी अवस्था में पहुँच कर अपनी दाढ़ी और बाल नोचते हुए बड़बड़ाने लगे -"कहाँ गया मेरा पुत्र, कौन ले गया उसे?" वे कक्ष से बाहर निकले और आश्रम का चक्कर लगाने लगे. मगर कहीं भी न था उनका पुत्र. भगवान भास्कर के क्षीण से प्रकाश में उन्हें भूमि पर कुछ कदमों के निशान दिखे, जो महामती नदी की ओर चले गये थे. कदमों के उन्हीं निशानों का अनुसरण करते हुए वे नदी के तट पर पहुँचे. परंतु वहाँ भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी. हाॅं नदी के जल में हो रहे हिलोर को देखकर उन्होंने अनुमान लगा लिया कि यहाँ से कोई विशाल नौका कुछ घंटे पूर्व खुली है और पूरब दिशा की ओर गयी है. निश्चित रूप से उसी नौका से उनके पुत्र का अपहरण किया गया है. वे दौड़े हुए आश्रम पर आये और यज्ञ वेदी पर बैठकर साधना में लीन हो गये. अपने दिव्य ज्ञान से वे यह जानने का प्रयत्न करने लगे कि आखिर उनके पुत्र के साथ हुआ क्या है. तेजस्वी ऋषि की ऑंखों के समक्ष उनके पुत्र के साथ घटी एक एक घटना उभर आई. उन्हें यह भी ज्ञात हो गया कि गणिकाओं द्वारा उनके पुत्र का अपहरण अंगदेश के राजा लोमपाद (रोमपाद) ने करवाया है. महर्षि विभांडक क्रोधाग्नि में जलने लगे. परंतु शीघ्र ही उनका क्रोध तिरोहित हो गया. उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनके पिताश्री महर्षि कश्यप, जो वर्तमान सृष्टि के आदिपुरुष हैं, उनके समक्ष उपस्थित होकर कह रहे हैं -"सावधान पुत्र, अंग नरेश लोमपाद के प्रति द्वेष भाव मत रखना. वे प्रजा पालक राजा हैं. उन्होंने तुम्हारे पुत्र को आदर सहित अपने राज्य में बुलाया है, ताकि तुम्हारे पुत्र के पावन चरणों के प्रभाव से देवराज इन्द्र का कोप दूर हो जाए और अंगदेश भीषण अकाल से मुक्त हो जाये. मेरी आज्ञा है कि तुम स्वयं भी चम्पा नगरी जाओ और वहाँ की प्रजा के दुखों को  दूर करने का प्रयत्न करो."

"जो आज्ञा पिताश्री." कश्यप ऋषि अंतर्ध्यान हो गये. अब विभांडक ऋषि के समक्ष एक ही विकल्प था कि वे चंपा नगरी जाकर  अपने पुत्र के द्वारा निष्पादित होने वाले लोकहित के पुण्य कार्य में सहयोग करें.

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ऋष्यशृंग को लिए हुई आश्रम रूपी वह नौका जैसे ही चंपा नगरी की सीमा में प्रविष्ट हुई कि आकाश में घनघोर बादल छा गये. बिजली चमकने लगी और बादल गरजने लगे. इन्द्रदेव की इस कृपा को देखकर सावंती, शान्ता तथा उसकी सहेलियों का मन मयूर नाचने लगा. महाराज लोमपाद के गुप्तचरों ने सूचना दी कि शीघ्र ही चंपा नगरी की कुशल नृत्यांगना सामवंती और उसकी पुत्री शान्ता युवा ऋषि ऋष्यशृंग के साथ नगर की सीमा में प्रविष्ट होने वाली है. इस सुखद संवाद को सुनकर महाराज रोमपाद की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. प्रजा भी खुश थी. महाराज रोमपाद स्वयं अपने लावलश्कर के साथ ऋष्यशृंग के स्वागत के लिए नदी के तट पर पहुँचे. उनके पहुँचने से पूर्व ही हजारों की संख्या में प्रजा नदी के तट पर पहुँच कर शृंगीऋषि (ऋष्यशृंग) का जयघोष करने लगी. अंगदेश के महामंत्री, सेनापति तथा सभी सभासदों में अजीब तरह का उत्साह था. नगर के सभ्रांत कुल की महिलाएं तो बाल ब्रह्मचारी शृंगी ऋषि का रजकण लेने को व्याकुल हो रही थी. उनलोगों को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी. कुछ ही देर में आश्रम रूपी वह नौका जिसमें सावंती, शान्ता और अन्य गणिकाओं के साथ ऋष्यशृंग सवार था, महामती नदी के तट पर आकर रूकी. तरुण ऋष्यशृंग शान्ता के साथ नौका के एक छोर पर खड़ा था. उसे देखते ही प्रजा पुष्प वृष्टि करती हुई चिल्लाने लगी -"विभांडक पुत्र ऋष्यशृंग की जय"

"जय.... जय.... जय." दसों दिशाएँ जयघोष से गूंजने लगी. महाराज ने अपने हाथों से सुगंधित पुष्पों का हार ऋषि के गले में पहनाकर स्वागत करते हुए नाव से नीचे उतरने का आग्रह किया. अब जैसे ही ऋष्यशृंग के पावन चरण भूमि पर पड़े कि मूसलाधार बारिश आरंभ हो गयी. प्रजा उन्मुक्त भाव से नृत्य करनेवाली लगी. प्रजा के नृत्य में सावंती, शान्ता और अन्य सभी नर्तकियां भी शामिल हो गयी. उधर ऋष्यशृंग को छतरी ओढ़ाकर पूरी सुरक्षा व्यवस्था के साथ राजमहल की ओर ले जाया जाने लगा. राजसी सम्मान पाकर क्षणभर में ही ऋष्यशृंग उस शान्ता को भूल गया जिसने उसे मानव जीवन के उस सुख से परिचित करवाया था, जिससे वह अबतक अनभिज्ञ था. बारिश में भींगती हुई शान्ता ने व्याकुल भाव से ऋष्यशृंग की ओर दृष्टिपात किया, परंतु उस निष्ठुर ने पलटकर उसकी ओर देखना भी उचित न समझा. शान्ता का हृदय कसक उठा और उसके मुॅंह से एक उच्छवास निकल पड़ा -"आखिर मैं हूँ तो एक गणिका ही. इस गणिका को मतलब निकल जाने के बाद कोई भी नहीं पहचानता, चाहे राजा हो या रंक, साधु हो शैतान." शान्ता हृदय में तूफान और ऑंखों में आंसुओं का सैलाब लिए अपने भवन की ओर भागती चली गयी. अपनी पुत्री के हृदय की वेदना से सावंती अनभिज्ञ न रह सकी और वह भी उसके पीछे दौड़ने लगी.

- रामबाबू नीरव        

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क्रमशः......!

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