पौराणिक कथा 


कई दिनों की कठिन यात्रा के पश्चात सावंती की वह आश्रम रूपी नौका पौ फटने से पूर्व ही महर्षि विभांडक के आश्रम की सीमा में प्रविष्ट हुई. महर्षि का आश्रम महामती नदी के तट पर एक सघन उपवन में अवस्थित था. चतुर गणिका सावंती ने अपने आश्रम रूपी नौका को जंगली पेड़ पौधों से आच्छादित झुरमुट के निकट रोकने की आज्ञा नाविकों को दी. नाविकों ने उसकी आज्ञा का पालन करते हुए नौका को ऐसी जगह पर रोका जहाँ जंगली पेड़ पौधे की शाखाएँ नदी को छू रही थी. पेड़ों के उस झुरमुट में नौका छुप गयी. तब तक सबेरा हो चुका था. सावंती साधु के भेष में छुपे सैनिकों में से दो सैनिक को अपने साथ लेकर विभांडक ऋषि के आश्रम की तलाश में निकल पड़ी. उसकी पुत्री शान्ता अपनी सहेलियों के साथ, नौका पर ही रह गयी. काफी भटकने के पश्चात उस उपवन के बीचोबीच सावंती को एक आश्रम दिखाई दिया. वह आश्रम लगभग दो एकड़ भूभाग में फैला हुआ था. जंगली घास फूस से निर्मित आश्रम के सामने काफी सुन्दर बागीचा था. बागीचा से उत्तर एक सरोवर था जिसमें कुमुदिनी (सफेद कमल) तथा लाल कमल के पुष्प खिले थे और हंसों के जोड़े विहार कर रहे थे. बागीचा में खिले रंग बिरंगे गुलाब, गेंदा, माधवी, कनेर, अपराजिता, चम्पा, चमेली, रजनीगंधा आदि पुष्पों की छटा निराली थी. आश्रम के चारों ओर अशोक, चिनार, गुलमोहर और अमलतास के घने और लम्बे पेड़ इतने चिताकर्ष थे कि बरबस ही मन को मोह लिया करते थे. गुलमोहर के लाल लाल फूल को देख कर किसी भी निरस प्राणी का भी मन मयूर स्वत: नाचने लगा करता था. उस बागीचा के पूरबी छोर पर यज्ञशाला था. जहाँ यज्ञ कुंड और यज्ञ वेदी बने थे. सावंती दूर से ही आश्रम के प्राकृतिक सौंदर्य को देखकर अभिभूत हो उठी. उसने मन ही मन सोचा -"निश्चित रूप से विभांडक ऋषि प्रकृति प्रेमी हैं, तभी तो उन्होंने अपने आश्रम को तरह तरह के पुष्पों तथा चिताकर्षक पेड़ पौधों से सजा रखा है." वह सैनिकों को एक जगह छुप जाने की आज्ञा देकर स्वयं आश्रम की ओर बढ़ गयी. उसके पांव स्वयंमेव यज्ञशाला की ओर बढ़ने लगे. यज्ञशाला के निकट पहुँच कर वह एक घने गुलमोहर के पेड़ के पीछे छुप गयी और यज्ञशाला की सारी गतिविधियों को ध्यान पूर्वक देखने लगी. आचार्य के रूप में विभांडक ऋषि यज्ञ वेदी पर बैठे थे. उनके सामने यज्ञ कुंड के उस तरफ  कुछ ऋषि कुमार बैढ़े वेद ऋचाओं का पाठ करते हुए प्रज्वलित यज्ञ कुंड में समीधा डाल रहे थे. उन सभी तरुण ऋषि कुमारों की स्वर लहरी इतनी मृदुल थी कि सावंती मंत्रमुग्ध होकर वेद मंत्रों को एकाग्र भाव से सुनने लगी. यज्ञ कुंड से उठ रहे होम के धुआं से वहाँ का वातावरण सुवासित हो रहा था. कुछ पल के बाद सावंती की तन्द्रा भंग हुई और उसे अपने कर्तव्य का बोध हुआ. वह जिस कार्य हेतु तीन दिन और दो रातों की कठिन यात्रा के पश्चात यहाँ तक पहुँची थी, क्या वह तपस्या व्यर्थ हो जाएगी? नहीं ऐसा नहीं होगा. मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त करके ही रहूँगी. परंतु कैसे? विभांडक ऋषि के रहते वह उनके आश्रम में प्रविष्ट हो नहीं सकती थी. कमसे कम यह तो पता चले कि ऋषिवर अपने आश्रम से निकलते कब हैं.? और उन्होंने अपने पुत्र को कहाँ छुपा कर रखा हुआ है. होम कर रहे ऋषि कुमारों में से तो कोई भी उनका पुत्र नहीं लग रहा. क्योंकि उसे बताया गया था कि विभांडक ऋषि के पुत्र के माथे पर एक सिंग है. तभी उसकी दृष्टि आश्रम से बाहर निकल रहे एक ऋषि कुमार पर पड़ी. वह संभल गयी और ध्यान पूर्वक उस ऋषि कुमार की ओर देखने लगी. वह सरोवर की ओर जा रहा था. सावंती भी पेड़ के पीछे से निकल कर तेजी से उसकी ओर बढ़ गयी.

"सुनो वत्स." सावंती पुरुष की आवाज में उस ऋषि कुमार को पुकारती हुई बोली. ऋषि कुमार रूक गया और पलटकर चकित भाव से उसकी ओर देखने लगा. उसने आज से पूर्व इस ऋषि  को आश्रम में नहीं देखा था. फिर भी आश्रम के शिष्टाचार का पालन करते हुए उसने सावंती को साष्टांग दण्डवत किया.

"आयुष्यमान भवऽ वत्स." ठीक किसी तेजस्वी ऋषि की तरह सावंती ने उसे आशीर्वाद दिया.

"क्षमा करें ऋषिवर, आपको प्रथम बार मैं यहाँ देख रहा हूँ.... आप कौन हैं.?" ऋषि कुमार ने पूछा.

"वत्स मेरा नाम ऋषिकेश है और मैं इसी वन के मध्य में स्थित महर्षि विश्वामित्र के दत्तक पुत्र शून:शेप के आश्रम का आचार्य हूँ."

"तो फिर आप सरोवर की ओर क्यों आ गये, आश्रम में पधारिये."

"नहीं वत्स मैं अभी आश्रम में नहीं जा सकता. मुझे ऋषिवर से कुछ गुप्त वार्ता करनी है, परंतु वे तो वेदपाठ में लीन हैं."

"तो क्या हुआ थोड़ी देर प्रतीक्षा कर लीजिएगा."

"नहीं ऐसा नहीं हो सकता क्यों कि मुझे भी शीघ्र ही अपने आश्रम में पहुँचना है. वत्स तुम सिर्फ इतना बता दो कि ऋषिवर आश्रम से बाहर निकलते कब हैं.?"

"वे दोपहर को भिक्षाटन हेतु निकलते हैं और सायं सूर्यास्त के बाद वापस आते हैं."

"वत्स, उनका एक पुत्र भी तो है.?"

"हाँ है तो, परंतु....!" कुछ देर के लिए ऋषि कुमार रूक गया और सशंकित दृष्टि से सावंती की ओर देखने लगा.

"परंतु क्या वत्स....!"

"आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं." 

"नहीं बस ऐसे ही." सावंती घबरा गयी, परंतु शीघ्र ही संभल गयी -"मैं जानना चाहता था कि उनका कोई पुत्र है या नहीं."

"है न....ऋष्यशृंग नाम है उनके पुत्र का, परंतु हमलोगों ने उनके पुत्र को देखा नहीं है."

"ठीक है वत्स अभी मैं जाता हूँ. कल्ह पुनः आऊंगा" सावंती मुड़कर तेजी से उस ओर बढ़ गयी, जिधर उसके सैनिक छुपे थे.

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क्रमशः.......!

-रामबाबू नीरव

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