धारावाहिक उपन्यास 


- रामबाबू नीरव 

लखनऊ की यह गली जितनी ही बदनाम है, उतनी ही हसीन भी. जैसे जैसे शाम शब की आगोश में समाती चली जाती है, वैसे वैसे-वैसे यहां मस्ती का आलम छाता चला जाता है. कोठों से आती हुई घुंघरुओं की रून-झुन, सितार की झंकार, हारमोनियम की सरगम, तबले की थाप और कोकिलाओं की कूक की आवाज से यहां की फिजाओं में अजीब सी मस्ती छा जाती है. हाथों में बेला और जुहू के गजरे लपेटे हुए, लड़खड़ाते कदमों से शमां पर मर मिटने वाले परवाने  हुस्न का दीदार करने के लिए इस कोठे से उस कोठे का चक्कर लगाते हुए नजर आया करते हैं. छोटे छोटे रियासतों के  नवाबों, जमींदारों और धन्ना सेठों के ठहाकों से यहां की रात परवान चढ़ने लगती है. वहीं हुस्न और फ़नों के पुजारियों के वाह वाह तथा मास्सालाह की करतल ध्वनि से पूरा माहौल गूंजने लगता है. कई राजे, महाराजे, नबाब और सेठ साहूकार इन कोठों    की हसीनाओं की अदाओं पर मुग्ध होकर अपना सबकुछ लुटाने के बाद इनके टुकड़ों पर पलने को मजबूर हो गये. इतिहास के पन्नों में गुम हो चुके मुजरा के शौकीन रईसों की अनेकों दिलचस्प कहानियां लखनऊ की इस बदनाम मुहल्ले से जुड़ी हुई है. यहां आनेवाले तब के रईस सिर्फ  हुस्न के दीवाने ही नहीं हुआ करते थे, बल्कि वे फ़न और फ़नकारों की कद्र भी किया करते थे. मगर हाय रे इन कोठों का दुर्भाग्य ! अब न तो वे राजा रहे, न‌ नबाब और बाबू साहब कहलाने वाले जमींदारों की भी ऐसी की तैसी हो गयी. कहां गये कला के वे पारखी और संगीत के खिदमतगार. जब पारखी ही न रहे तब कला और कलाकारों की कद्र कौन करे ? जहां इन कोठों पर ठुमरी, मल्हार, बिरहा, कजरी और ग़ज़लों की शास्त्रीय नृत्य के साथ धूम मचा करती थी, वहीं अब रैप डांस और अश्लील भोजपुरी गीतों के भोंडेपन पर ही आज के शोहदे झूमते हुए आनंद के सागर में ‌डूब कर हिचकोले खाने लगे हैं. शास्त्रीय नृत्य का स्थान कान फाड़ूं डीजे की धून पर निर्लज्ज युवतियों द्वारा उछल-कूद कर अपने अर्द्ध नग्न शरीर का निर्लज्जता पूर्वक प्रदर्शन करने वाले नृत्य ने ले लिया है. सभी  जानते  हैं कि इस तरह के नृत्य और संगीत मन मस्तिष्क को कुंद कर रहे हैं फिर भी इन कोठों पर युवाओं की भीड़ उमड़ रही है. बावजूद इसके हुस्न की इस मंडी में एक कोठा ऐसा है जहां अवध के नवाबों और रईसों की आन, बान और शान आज भी बरकरार है. वह कोठा है गुलाब बाई का. इस कोठे पर दादरा, ठुमरी, मल्हार, कजरी और ग़ज़लों की बहारें मुजरा के सच्चे कद्रदान रईसों को मदमस्त कर दिया करती है.  जब खुद गुलाब बाई दादरा और कजरी का आलाप लगाने लगती है, तब संगीत प्रेमियों की वाह वाही से सिर्फ गुलाब बाई का कोठा ही नहीं, बल्कि यह पूरा मोहल्ला गूंज उठा करता है. गुलाब बाई की यही खासियत है, उसने लखनऊ की कोठों की रवायत को आज भी जिन्दा रखा हुआ है. गुलाब बाई के कोठे पर आठ नर्तकियां हैं. सभी अपने अपने फ़न में माहिर. मगर उन सभी नर्तकियों में शबाना सबसे तेज तर्रार और हर फ़न में माहिर हैं. उसकी खुबसूरती और दिलकश अदाओं के दीवाने चुम्बक की तरह खींचे हुए गुलाब बाई के कोठे पर चले आया करते हैं. शबाना सिर्फ गुलाब बाई की चहेती ही नहीं है, बल्कि उसकी मुंह बोली बेटी भी है. इसलिए ही गुलाब बाई के साथ साथ सभी लड़कियां उसे अम्मा कहकर पुकारतीं हैं. शबाना सिर्फ नर्तकी ही नहीं बल्कि उच्च कोटि की गायिका भी है. फिर भी वह गुलाब बाई के मन के लायक न थी. गुलाब बाई चाहती थी कि उसके कोठे पर एक ऐसी नर्तकी हो, जो सौंदर्य में अद्वितीय तो हो ही, साथ ही नृत्य गीत और संगीत में भी निष्णात हो. ठीक वैसी ही, जैसी पुराने जमाने में आम्रपाली, सालवती और अर्द्धकाशी हुआ करती थी. ये सारे गुण गुलाब बाई को अपनी बेटी श्वेता के बचपन में ही नजर आ गये थे. इसलिए उसने अपनी बेटी को बचपन में ही इस बदनाम मुहल्ले के गंदे माहौल से दूर करके दिल्ली के एक मंहगे हॉस्टल में रख दिया और वहीं उसकी पढ़ाई के साथ साथ नृत्य गीत और संगीत की शिक्षा दिलवाने लगी. गुलाब बाई प्रत्येक महीने दिल्ली उससे मिलने जाया करती. उसने अपनी बेटी को एक झूठी कहानी सुनाकर यह विश्वास दिला चुकी थी कि उसके पिता जी का देहांत उसके जन्म से पहले ही हो चुका है. जब श्वेता घर जाने की जिद करती तब वह उसे किसी हिल स्टेशन पर ले जाकर उसका मन बहला दिया करती. श्वेता काफी मेधावी थी, वह पूरे मनोयोग से विद्यालय की शिक्षा के साथ साथ नृत्य गीत और संगीत की भी शिक्षा लेने लगी. आज पूरे बीस वर्षों के बाद श्वेता स्नातक  की डिग्री के साथ साथ नृत्य गीत और संगीत की भी डिग्री लेकर लखनऊ आयी तब अपनी हकीकत को जानकर उसे अपनी मां से बेहद नफ़रत हो गयी. गुलाब बाई आज अपनी ही बेटी की नज़रों से गिर गयी. गुलाब बाई समझ नहीं पा रही थी कि वह कैसे अपनी बेटी को एहसास कराए कि सचमुच वह एक तवायफ की ही बेटी है. 

धीरे-धीरे शाम गहरी होती जा रही थी और उसके कोठे पर आने वाले नियमित ग्राहकों के आने का वक्त भी है चुका था, परंतु इस गमगीन माहौल में मुजरा हो पाना आज संभव न था. इसलिए उसने अपने वफादार सेवक अब्दुल्ला को कह दिया कि वह कोठे पर ग्राहकों को न आने दें. अब्दुल्ला ने उसके हुक्म का पालन करते हुए ग्राहकों को ऊपर जाने से रोक दिया.  कुछ देर बाद गुलाब बाई शबाना को साथ लेकर श्वेता के कमरे में पहुंची. रोते-रोते श्वेता पलंग पर सो गयी थी. उसका चेहरा ग़म के मारे ज़र्द पड़ चुका था. अपनी बेटी की ऐसी हालत देखकर गुलाब के दिल से हूक निकल पड़ी. श्वेता की इस हालत की जिम्मेदार वह खुद थी. शबाना भी श्वेता के दिल के दर्द को महसूस कर अंदर ही अंदर तड़प रही थी, मगर वह करती क्या? 

"बेटी श्वेता.... ऑंखें खोलो.!" गुलाब बाई के उसके गाल पर प्यार भरी थपकी देती हुई मृदुल स्वर में बोली. श्वेता ने अपनी ऑंखें खोल दी और करुणापूर्ण  नजरों से उन दोनों की ओर देखने लगी. उसकी ऑंखों में अब नफ़रत की जगह करुणा का भाव था. निश्चित रूप से इस एकांत में वह अपनी स्थिति पर गंभीरता पूर्वक सोचने के बाद अन्तर्द्वन्द्व में फंस चुकी होगी. 

"उठो और नीचे चलो, हाथ मुंह धोकर कुछ खा लो.!" गुलाब बाई आग्रह करती हुई बोली.

"नहीं, मुझे भूख नहीं है." इंकार करती हुई तीखे स्वर में बोली श्वेता.

"कैसे भूख नहीं है, सुबह से ही तुमने कुछ खाया नहीं."

"कैसे नहीं खाया.....!"  एकाएक श्वेता का रूप बदल गया. -"इतना दु:ख, इतनी मानसिक यातना, क्या यह कम है."

"तुम क्या समझती हो मुझे दु:ख नहीं है, मुझे दर्द नहीं है?"

"हुंह...." श्वेता उपेक्षा से मुंह सिकोड़ती हुई तल्ख़ स्वर में लगभग चीख पड़ी -"क्यों होगा तुम्हें दर्द, क्यों होगा दु:ख.... तुम्हें तो तुम्हारे बुढ़ापे का सहारा मिल गया. मेरे जिस्म की कमाई से तुम जिन्दगी भर ऐश करोगी. मगर मुझे एक बात बताओ गुलाब बाई, जब मुझे वेश्या ही बनाना था तो इतनी ऊंची शिक्षा क्यों दिलवाई.? एक बेहतरीन नर्तकी क्यों बनवाया?" श्वेता की इन तीखी बातों को सुनकर गुलाब बाई का कलेजा छ्लनी हो गया. वह तड़पती हुई बोली -"तुम गलत समझ रही हो बेटी. मेरा कोठा चकला घर नहीं है. लखनऊ के सारे रईस जानते हैं कि गुलाब बाई के कोठे की अपनी एक अलग रवायत है. यहां फ़न और फ़नकारों के कद्रदान आते हैं. जिस्म के भूखे भेड़िए नहीं."

"वाह....वाह, तुम्हारी इन चिकनी-चुपडी बातों का जवाब नहीं गुलाब बाई." श्वेता अपनी मां की खिल्ली उड़ाती हुई बोली. 

"श्वेता मैं तुम्हारी मां हूं." कलेजा फटने लगा गुलाब बाई का. 

"चुप.... बेगैरत, बेहया औरत. तू मेरी मां नहीं हो सकती. मेरी मां तो सरस्वती देवी थी, जो इस कोठे पर मेरे कदम रखने साथ ही मर गई.

तुम गुलाब बाई हो, दौलत की भूखी एक वेश्या."

"ठीक कहती हो बेटी, यह औरत सरस्वती देवी नहीं, गुलाब बाई ही है. मगर इसके साथ ही यह भी सच है कि यह गुलाब बाई ही तुम्हारी मां है." इस गम्भीर और सौम्य आवाज को सुनकर श्वेता के साथ साथ गुलाब बाई और शबाना भी चौंक पड़ी. जिस बुजुर्ग ने कमरे में कदम रखा था उनकी शख्सियत ऐसी थी कि श्वेता पल भर के लिए अचंभित रह गई और अनायास ही उस बुजुर्ग के सम्मान में उसका सर झुक गया. मगर शीघ्र ही वह संभल कर अपने पहले वाले तेवर में आ गयी. लखनवी लिवास में बुजुर्ग की शख्सियत काफी निखर गई थी. सफेद दाढ़ी  के पीछे छुपा उनके चेहरे से उनकी फ़नकारी झलक रही थी. निश्चित रूप से ये किसी फ़न के माने हुए उस्ताद होंगें. गुलाब बाई और शबाना बुजुर्ग के सम्मान में उठकर खड़ी हो गयी और‌ झुक झुक कर उन्हें सलाम करने लगी.

"और आप कौन हैं?" श्वेता ने बुजुर्ग की ओर देखते हुए पूछा. उसके पूछने का अंदाज कुछ ऐसा था कि गुलाब बाई और शबाना को लगा कि श्वेता उस शख्स का जान बुझ कर तौहीन कर रही है, जिन्हें इस मंडी की तवायफें सर ऑंखों पर बैठाया करती हैं. 

"तुम्हारा सवाल वाजिब है बेटी." बुजुर्ग श्वेता के करीब आकर बोले -"अभी मैं तुम्हारे लिए अजनबी जरूर हूं, मगर जब तुम नन्ही सी गुड़िया थी, तब मैं तुम्हें अपनी गोद में खेलाया करता था. तुम्हारे लिए कभी मैं घोड़ा बनता तो कभी हाथी. मेरा नाम अमजद अली खां है."

"हुंह.....!"  श्वेता के ओठ उपेक्षा से सिकुड़ गये.

"मैं जानता हूं श्वेता कि तुम्हारे दिल में मेरे लिए भी उतनी ही नफ़रत है जितनी कि अपनी मां के लिए. तुम्हारी नफ़रत भी जायज है. क्योंकि यह मुहल्ला बदनाम है.  तुम्हें यह जानकर हैरत होगी कि इस बदनाम मुहल्ले में मेरे जैसा पांचों वक्त का नवाजी भी रहता है. मैंने अभी तुम्हें सिर्फ अपना नाम बताया ववहै, अब मेरा पेशा भी जान लो. मैं गुलाब बाई के कोठे पर सितार बजाया करता हूं. इस मुहल्ले के सभी लोग मुझे उस्ताद मानते हैं और मेरी इज्जत करते हैं. " श्वेता अब गौर से उस्ताद अमजद अली खां साहब को देखने लगी. उनकी सफेद दाढ़ी के भीतर एक चमकती हुई आभा  नजर उसे. ऐसी आभा साधारण लोगों में देखने को नहीं मिलती. इसका मतलब खां साहब संगीत के महापंडित होगें. चूंकि श्वेता कला साधिका थी, इसलिए खां साहब के प्रति उसके मन में वितृष्णा की जगह धीरे धीरे श्रद्धा का भाव उत्पन्न होने लगा. और खां साहब के बारे में जानने की  उत्सुकता जग गयी. 

"मैं यहां क्यों हूं, तुम्हारे लिए यह जानना जरूरी है. क्यों कि तुम गुलाब बाई की बेटी के साथ साथ एक फ़नकार भी हो. मैं भी एक फ़नकार हूं . किसी भी फ़नकार की पहली ख्वाहिश होती है अपने फ़न की नुमाइश करना और लोगों की वाहवाही बटोरना. मगर आज के दौर में शास्त्रीय संगीत के कद्रदान हैं कहां? मैं उस्ताद हूं सैकड़ों शागिर्द पैदा किये हैं मैंने, मगर मेरे वे सारे शागिर्द गुमनामी के अंधेरे में खो गये. मैं संगीत के ऐसे घराने से ताल्लुक रखता हूं , जिसकी किसी जमाने में तूती बोला करती थी. मगर आज आलम यह है कि मां सरस्वती के हाथों में शोभायमान होने वाली वीणा और सितार जैसे हमारे प्राचीन वाद्ययंत्रों के नाम तक आज की पीढ़ी नहीं जानती. गुलाब बाई ने ठीक कहा था तुम से - इसके कोठे की एक अलग रवायत और पहचान है. इस कोठे पर आने वाले रईस हुस्न के परवाने नहीं होते, बल्कि फ़न और फ़नकारों के कद्रदान होते हैं. तुम्हें फख्र होना चाहिए कि तुम एक ऐसी फ़नकार की बेटी हो, जो बड़े-बड़े राजा महाराजाओं के महफ़िल में अपनी फ़नकारी का जलवा  बिखेर चुकी है."

"क्या.....?" अब श्वेता हैरत से गुलाब बाई की ओर देखने लगी, जिसकी ऑंखों से बेशुमार ऑंसू की धारा प्रवाहित हो रही थी. 

"हां बेटी, मैं झूठ नहीं कहता. तुम्हें इसने इस माहौल से दूर रखकर अच्छी तालीम दी. गीत, संगीत और नृत्य में भी इसने तुम्हें वह तालीम दिलवाई जो सबको नसीब नहीं होता. सदियों से तवायफों और तवायफों के कोठों से हमारा समाज नफ़रत करता आया है. सोचो, तुम खुद अपने दिल पर हाथ रख कर सोचो, जब खुद को इज्जतदार मानने वाले लोगों को यह पता चलेगा कि तुम एक तवायफ की बेटी है, तब क्या वे लोग तुम्हें इज्जत देंगे.? जो सफेदपोश लोग रात के अंधेरे में यहां दिल को सुकून देने के लिए आते हैं, दिन के उजाले में कोठे पर नाचने वाली नर्तकियों को पहचानने से भी इंकार कर देते हैं. समाज के भले मानुषों के दोहरे चरित्र होते हैं बेटी. इसलिए हकीकत का सामना करो, सच्चाई से मुंह मत मोड़ो. मुझे जो कहना था, मैंने तुम्हें कह दिया, अब आगे तुम्हारी मर्जी." अपनी बात समाप्त कर उस्ताद अमजद अली खां साहब मुड़ कर वापस जाने लगे. एकाएक श्वेता बिछावन पर से नीचे कूद पड़ी और खां साहब का रास्ता रोक कर रुंद्धे हुए गले से बोली -"मुझे माफ़ कर दीजिए गुरु जी, अनजाने में मैंने आप का अपमान कर‌ दिया. क्या आप मुझे अपनी शिष्या बनाएंगे. ?"

"क्यों नहीं बेटी, तुम जैसी काबिल फ़नकार का उस्ताद बनकर मुझे खुद पर फख्र होगा."

"शुक्रिया गुरु जी." श्वेता खां साहब के कदमों में झुक गयी. खां साहब ने उसे उठाकर अपने गले से लगा लिया. इधर श्वेता की ऑंखों से खुशी के ऑंसू बह रहे थे उधर गुलाब बाई और शबाना भी खुशी से लवरेज होकर ऑंसू बहाने लगी थी. भले ही खां साहब की नसीहत को आत्मसात कर श्वेता ने तवायफ बनना स्वीकार कर लिया था, मगर उसके दिल के दर्द से भी खां साहब अनजान न थे. मन ही मन खां साहब सोच रहे थे -"इस काबिल लड़की की बदकिस्मती यह है कि यह लखनऊ की मशहूर तवायफ गुलाब बाई की बेटी है."

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क्रमशः...........!

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