- डॉ मनीष कुमार चौरे
भारतवर्ष आस्था और विश्वास कि माटी है । इस आस्था और विश्वास के प्रतिक है राम ! इस माटी के रज-रज में राम बसे हैं और राम बसते हैं हमारे ह्रदय में, हमारी आत्मा में, हमारे मन-मंदिर में । अयोध्या में श्री रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा से पूरा भारतवर्ष रामराज्य की परिकल्पना में डूबा हुआ है । क्यों न हो राजा राम वर्षों प्रतीक्षा के बाद अपने जन्म स्थान पर विराजे हैं । जन्मभूमि का मोह सभी को होता है, इससे प्रभु राम भी अछूते नहीं वह लक्ष्मण से कहते है- "लक्ष्मण ! यद्यपि यह लंका सोने की नगरी है किन्तु मां और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है -
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
रामकथा मानवीय रिश्तों से सजी वह सुंदर बगिया है, जिसकी खुशबू न केवल भारत, बल्कि अनेक देशों में बिखरी हुई है । वास्तव में समग्र रामकथा मानवीय संवेदना और जीवन मूल्यों की सुंदर माला है, जिसका एक-एक मोती तप, त्याग, समर्पण, धैर्य, दया, ममता, करुणा, स्नेह, कर्तव्यनिष्ठा, वचनबद्धता रूपी उदात्त भावों से तगा हुआ है । मनुष्य अपने जीवन रूपी मुंदरी में इसका एक नग भी धारण कर ले तो उसका जीवन धन्य हो जाए । हम सभी जानते हैं कि ‘राम’ और ‘रावण’ एक ही ह्रदय में रहते हैं । हम अपने ह्रदय में अहंकार, असत्य, ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, लोभ, मोह, स्वार्थ को स्थान देंगे तो रावण को बल मिलेगा, राम निर्बल होंगे । यदि इसके विपरीत दया, संवेदना, त्याग, समर्पण, स्नेह, अपनत्व, प्रेम, धैर्य, सहयोग, साहस, सहस्तित्व की भावना ह्रदय में होगी तो रावण दुर्बल होगा । इसलिए जब तक मनुष्य अपने अंदर के राम को नहीं जगाता तब तक रामराज्य की परिकल्पना बेमानी है ।
हमे समझना होगा कि ‘राम’ शिल्पकार द्वारा छैनी-हथौड़ी से तराशी पाषाण की मूर्ति नहीं ! बल्कि तप, त्याग और दृढ-संकल्प की प्रतिमूर्ति है, असंख्य भारतीयों की आस्था के प्रतीक है, सदियों का अटल विश्वास है, कर्तव्यनिष्ठा के बोधक है, वचनबद्धता की परिपाटी है, सत्य के रक्षक है, अदमय शक्ति-पुंज है, जनमानस के लोकनायक है, आदर्श और नैतिक मूल्यों के द्योतक है, धर्म की लहराती ध्वजा है, जन-जन की आशा है, सनातन संस्कृति के संवाहक है राम !
जनमानस में वाल्मीकि ‘रामायण’ हो या तुलसी का ‘मानस’ उसकी लोकप्रियता और सर्वस्वीकृति का आधार राम का विराट व्यक्तित्व है । राम का उदात्त चरित्र संपूर्ण मानव-जाती के लिए प्रेणना-पुंज है | राम अपनी प्रजा को आदेशित नहीं करते बल्कि अपने आचरण अपने कार्य व्यवहार से प्रभावित करते है । प्रजा उनके चरित्र का अनुशरण कर परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए अच्छे नागरिक बनने के लिए स्वप्रेरित होती है । यही स्वप्रेरणा रामराज्य की अवधारणा का आधार है । प्रजा में राजा के प्रति सम्मान का भाव किसी भी सुशासित व खुशहाल राज्य का सूचक है | ‘यथा राजा तथा प्रजा’ अर्थात जैसा राजा वैसी प्रजा, सर्वविदित है । प्रभु राम के व्यक्तित्व से सम्मोहित ‘राष्ट्रकवि’ मैथिलीशरण गुप्त ‘साकेत’ महाकाव्य में कृतज्ञता अर्पित करते हुए कहते है -
‘राम तुम्हारा वृत्त स्वयं काव्य है
कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है ।’
राम शब्द संस्कृत के रम् और घम् से मिलकर बना है । रम् का अर्थ है रमना या समा जाना और घम् का अर्थ है ब्रह्मांड का खाली स्थान । इस तरह राम का अर्थ है सकल ब्रह्मांड में निहित या रमा हुआ तत्व यानी चराचर में विराजमान स्वयं ब्रह्मा । शास्त्रों में लिखा है- “रमन्ते योगिनः अस्मिन सा रामं उच्यते” अर्थात, योगी ध्यान में जिस शून्य में रमते हैं उसे राम कहते है । इस माटी के जनमानस में राम का नाम इस तरह रचा-बसा है कि जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत इसके गुनगान करते नहीं थकता । इसलिए कहा गया हैं - ‘कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा’ । इसलिए राम शब्द मात्र वाक् ध्वनि, साधारण शब्द या अक्षरों का संयोजन नहीं, ये आत्मा की आवाज है । जय श्रीराम का उद्घोष युवाओं में जहाँ राष्ट्र के प्रति कर्तव्य का बोध कराता है वहीँ अभिवादन में राम-राम शब्द का स्वतः उच्चारण यहाँ की सस्कृति और सम्मान का बोधक है । शव यात्रा में ‘राम नाम सत्य है’ का निरंतर घोष जीवन की नश्वरता और राम के नाम की परम शाश्वता का स्मरण कराता है | भगवन शिव भी प्रभु राम के नाम का निरंतर जाप कर आनंदित होते है – श्रीरामरक्षास्तोत्रम – ‘राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे | सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ||’
वर्तमान परिवेश में नितांत आवश्यकता है, राम के नाम और चरित्र के अनुशरण की, क्योकि 'वसुदेव कुटुंबकम' की भावना को आत्मसात करने वाला भारत, कुटुंब तो छोड़िए आज सहोदर भाइयों में प्रेम, अपनत्त्व और भाईचारे का अभाव जग-जाहिर है । अहंकार और स्वार्थ के चलते भाइयों में आपसी द्वेष, झगड़े, कोट-कचेरी, अंधी प्रतिस्पर्धा के तमाम उदाहरण खून के रिश्ते को कलंकित कर रहे हैं । गाँव हो या शहर जमीन बटवारे का आपसी विवाद भाइयों में बैर का बड़ा कारण है | हम भूल गए कि कौरवों के अहंकार और स्वार्थ ने कृष्ण की चेतावनी को नजरंदाज किया और महाभारत को जन्म दिया :- कृष्ण की चेतावनी रामधारी सिंह दिनकर -
‘दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो, तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम । हम वहीं खुशी से खायेंगे, परिजन पर असि न उठायेंगे !
दुर्योधन वह भी दे न सका, आशीष समाज की ले न सका, उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला | जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है |
यह अनुभूत सच है कि जीवन में प्राप्ति के आनंद से ज्यादा त्याग का आनंद है | रामराज्य का सीधा-सा सूत्र है – ‘बड़े हो तो बड़प्पन दिखाओं, छोटे हो तो समर्पण दिखाओ |’ क्योकि भाई से अच्छा कोई मित्र नहीं और भाई से बड़ा कोई शत्रु नहीं । यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि जीवन में हमें अच्छा मित्र चाहिए या बड़ा शत्रु ? क्योंकि एक भाई ही भाई की ताकत और कमजोरी से अच्छी तरह अभिज्ञ होता है । रामकथा प्रत्यक्ष उदाहरण है जो हमें बताती है कि भाई अगर साथ हो तो साधारण मानव भी लंका पर विजय प्राप्त कर सकता है । भाई का साथ न हो तो शक्तिशाली, पराक्रमी रावण को भी अपने वंश और सोने की लंका गंवानी पड़ी । विभीषण सच्चा व्यक्ति था उसने सच्चाई का साथ दिया परन्तु भाई के साथ छल करना उसके लिए अभिशाप बना, आज भी विभीषण को- ‘घर का भेदी लंका ढाए’ उक्ति से याद किया जाता है । बलशाली बालि को भी अपने प्राण गवाने पड़े क्योकि उसने अपने भाई की पत्नी का हरण कर भाई को मारना चाहा | अयोध्या के महाराजा दशरथ के चारों पुत्रों के बीच प्रेम, स्नेह, अपनत्व, त्याग, समर्पण, आदर, सम्मान की भावना रामराज्य का आधार है | हम भी उस भाव को आत्मसात कर रामराज्य की परिकल्पना को साकार कर सकते है । सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के चितेरे कवि है उनकी कविताओं में प्रकृति और पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम जग-जाहिर है, परन्तु मानव के लिए प्रेम प्रदर्शित करती उनकी पंक्तियां निश्चित ही रामराज्य की उस खुशहाल प्रजा और खुशमिजाज राजा के लिए कही होगी - “सुंदर है सुमन, विहग सुंदर, मानव तुम सबसे सुंदरतम ।”
तुलसी ने भी ‘मानस’ में रामराज्य की खुशहाली और सुखसंपदा का बखान इन सुंदर पक्तियों में किया है –
दैहिक, दैविक, भौतिक तापा |
रामराज नाहिं काहुहि व्यापा ||
अर्थात रामराज्य में सभी तन-मन-धन से सुखी और संतुष्ट है | तन का स्वस्थ्य होने का मतलब शरीर का रोगव्याधि से मुक्त होना | प्रसन्नचित मन लोभ, ईर्ष्या और असंतोष से परे होता है | वह किसी को दुखित नहीं करता | रामराज्य में किसी प्रकार की देवीय घटना नहीं घटती, प्रकृति और मनुष्य सहअस्तित्व की भावना रखते है | निश्चित ही जिस राज्य में सारी प्रजा प्रसन्नचित और संतुष्ट हो, जहाँ चहुँ ओर खुशहाली और समृद्धि व्याप्त हो वहां स्वर्ग की अभिलाषा बेमानी है | वह धरा ही स्वर्ग के समान है | राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के ‘साकेत’ महाकाव्य की ये पंक्तियाँ उस भाव को साकार करती है - ‘संदेश नहीं मैं यहां स्वर्ग का लाया; इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया |’
परन्तु इसके विपरीत कलयुग का मनुष्य न सुखी है न संतुष्ट | भौतिक सुख-सुविधाओं को जुटाने और अतृप्त कामनाओं की भटकन में मृगतृष्णा की भांति-भागा जा रहा है । मनुष्य के स्वार्थ ने सब कुछ अशुध्द और असुरक्षित कर दिया | मानवीयता मलिन हो गई | संवेदना शून्य हो गई | जगह-जगह अनाचार, कदाचार, व्यभिचार और अत्याचार बढ़ रहा है | लोग हिंसा, ईष्या, द्वेष और आक्रोश में जल रहे हैं | अनास्था, अविश्वास, उपेक्षा और तिरस्कार का आलम पसरा हुआ है | ह्रदयघात, केंसर जैसे अनेक असाध्य रोगों से लोग असमय ही काल के गाल में समा रहे है | प्राकृतिक आपदाएं (कोरोना, भूस्खलन, चक्रवात, हिमस्खलन, आकाशीय बिजली, बाढ़, सूखा, भूकंप ) नित्य नए रूप धारण कर मानव की दुश्मन बनी हुई है | प्रतिपल लोग सड़क दुर्घटनाओं में असमय जान गवां रहे है | हतासा, निराशा, अविश्वास और अकेलापन लोगों को निरंतर लील रहा है | इस भयाभय स्थिति में हम कैसे रामराज्य की परिकल्पना करे ? हमारे जीवन में न ठहराव है न शांति ! न सुख है न संतुष्टि ! न सत्य है न साहस ! न त्याग है न समर्पण ! न धैर्य है न अनुशासन ! न कर्तव्य है न संकल्प ! न दया है न उदारता ! न आस्था है न विश्वास ! न संवेदना है न ही साहनभूति | मनुष्य जब तक अपने अंदर के राम को नहीं जगाता तब तक उसकी स्थिति यथावत रहेगी | क्योकि अन्दर के राम जागेंगें तो रामराज्य आएगा |
पाश्चात संस्कृति के मोह-पाश में फसा आज का युवा, नेता-अभिनेता, खिलाडी या उद्योगपतियों को अपना आदर्श मानता है | उनके पदचिन्हों पर चलता है | कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश आदर्श की प्रतिमूर्ति युवाओं को भ्रमित कर रहे हैं | पार्टी बदलते नेताओं की कथनी-करनी और उनकी अपराधिक दुनिया जग-जाहिर है | अश्लीलता परोसते और पान-मसाला, शराब का विज्ञापन करते अभिनेताओं का चेहरा किसी से छुपा नहीं है | देश के नामी अभिनेता और खिलाडी ‘ऑन लाइन गेम्स’ ड्रीम इलेवन, माय सर्कल, विंजो, लूडो, पबजी, इंडिया रमी जैसे तमाम ऑनलाइन गेम्स की लत लगाकर युवाओं का जीवन बर्बाद कर रहे हैं | स्वार्थ में अंधे उद्योगपति विकास के नाम पर पर्यावरण से खिलवाड़ कर अपनी तिजोरी भर रहें हैं | देश का अन्नदाता अधिक पैदावार के लालच में रासायनिक खादों और कीटनाशक का प्रयोग कर कैंसर जैसे असाध्य रोग को बढ़ावा दे रहे है | देश के शासन-प्रशासन और न्याय के लिए जिम्मेदार अधिकारी रिश्वत और भ्रष्टाचार में लिप्त न केवल प्रशासनिक अखंडता को कमजोर कर रहे है साथ ही न्याय प्रणाली पर प्रश्नचिंह खड़ा कर रहे हैं | प्रशासनिक और शिक्षक जैसे महत्वपूर्ण पदों पर न्युक्तियों में होने वाली गड़बड़ियाँ हमारे नैतिकता के पतन का प्रतिक है | वर्तमान परिदृश्य को देखकर मुझे राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त कि ‘भारत-भारती’ की वह प्रसिद्ध पंक्तियाँ याद आती है –
“हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी,
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी”
इन समस्त समस्याओं के निराकरण के लिए भारत के युवाओं के समक्ष प्रभु राम का विराट व्यक्तित्त्व दृष्टव है, जिसमें प्रभु राम ने शील, साहस, सत्यता के बल पर पराक्रमी रावण को परास्त किया | मनुष्य का मनुष्य के प्रति प्रेम, दया, उदारता दिखाकर सुग्रीव, शबरी, अहिल्या जैसे शोषित, वंचित लोगों को न्याय दिलाया | माता-पिता की आज्ञा पर वनवास को अपनाया और त्याग, कर्तत्व, वचनबद्धता जैसे उदात्त भाव प्रकट कर पुरूषोतम राम कहलाए | विपत्ति में धैर्य, विश्वास और सुझबुझ का परिचय देते हुए पंक्षियों, वानरों, रीछ, आदिमानवों और उपेक्षित लोगों को साथ लेकर लंका पर विजय प्राप्त की | माता-पिता और गुरुजन की आज्ञा का पालन, नारी के प्रति सम्मान, बड़ों के प्रति आदर, भाइयों के प्रति अपनत्व, छोटो के प्रति स्नेह, प्रजा और राज्य के प्रति दायित्वबोध, प्रकृति और पशु-पक्षी के प्रति प्रेम, मात्रभूमि के लिए समर्पण जैसे भाव उनके उदात्त चरित्र को चित्रित करते हैं | आज की युवा-पीढ़ी प्रभु राम के इन गुणों को जीवन में उतारकर बड़ी से बड़ी विपत्ति से पार-पा सकतें हैं और जीवन-जगत को सफल और खुशहाल बना सकते हैं | पुनः रामराज्य ला सकते है | तब हम विश्वास से कह सकेंगें –
“भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है |
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है |” (भारत-भारती)
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