धारावाहिक उपन्यास
- राम बाबू नीरव
गुलाब बाई के कोठे की शान अनोखी थी और रौनक निराली. किसी नयी नवेली दुल्हन की तरह कोठे को सजाया गया था. दीवारों पर छोटे छोटे रंग-बिरंगे बल्ब जुगनुओं की भांति भुकभुक करते हुए इन्द्रधनुषी छटा बिखेर रहे थे. छत से लटक रहे झाड़ फानुसों में अनगिनत मोमबत्तियां जल रही थी. अपने कोठे की खूबसूरती को निखारने में गुलाब बाई ने तनिक भी कोताही नहीं की थी. आज गुलाब बाई का कोठा किसी रजवाड़े के नृत्यशाला को टक्कर दे रहा था. उत्तर की तरफ सभी साजिंदे बैठे अपने अपने साज-बाज को दुरुस्त कर रहे थे. उस्ताद अमजद अली खां साहब की शान निराली थी. खास लखनवी कशीदा किया हुआ चिकन का कुर्ता और उस पर झिलमिल सितारों से चमचमा रहा कत्थई रंग का अचकन, उनके गठिले बदन पर खूब फब रहा था. और सर पर फर की टोपी ने तो कमाल ही कर दिया. यानी साठ की उम्र में भी वे पचास के दिख रहे थे. हारमोनियम वादक पं० उमेश दत्त त्रिपाठी जी भी कुछ कम न थे. मलमल के कुर्ते पर रेशमी बंडी ने उनके व्यक्तित्व को ऐसा निखार दिया था कि उस्ताद अमजद अली खां साहब को उनसे रस्क हो गया. पान चबाते हुए वे बार-बार त्रिपाठी जी की ओर ईर्ष्या भरी नजरों से देख लिया करते. नाल वादक शम्भू महाराज तथा तवला वादक हरे कृष्ण गोस्वामी के भी अपने अपने अनोखे ठाठ थे. पूरे नृत्यशाला में मदहोश कर देनेवाली अगरबत्तियां चल रही थी.
यह सारा तामझाम इसलिए था कि आज गुलाब बाई की बेटी श्वेता का प्रथम मुजरा होने जा रहा था. गुलाब बाई ने आज के दिन शहर के मुजरा के शौकीन खास-खास रईसों को ही आमंत्रित किया था. नर्गिस के साथ मुख्य द्वार पर वह स्वयं खड़ी होकर मेहमानों का तहेदिल से इस्तेकबाल कर रही थी. नर्गिस सभी आगंतुक मेहमानों पर हंस हंस कर केवड़ा की खुशबू से लवरेज इत्र का छिड़काव कर रही थी. दरवाजे के दूसरी ओर शाही लिवास में खड़ा अब्दुल्ला उन शोहदों पर नजर रखे हुआ था, जिन्हें आज के दिन कोठे पर आने की मनाही थी. परंतु गुलाब बाई द्वारा बहुत सावधानी और चौकसी बरतने के बाद भी कुछ अवांछित तत्वों ने श्वेता को एक नजर देखने की नीयत से घुसपैठ कर ही लिया. देखते ही देखते मेहमानों से हॉल खचाखच भर गया. गुलाब बाई दरवाजा बंद करवा कर अपनी खास जगह पर आकर बैठ गयी. उधर श्वेता भी इस भरे बाजार में नुमाइश के लिए सज-धज कर तैयार थी. इसमें कोई संदेह नहीं कि उसकी खुबसूरती के सामने लखनऊ की इस मंडी की सारी लड़कियां फीकी थी. आजके दिन उसे खास तौर पर सजाया गया था. फिरोजी रंग की घाघरेदार समीज और सलवार ने उसके सौंदर्य को ऐसा निखार दिया था कि उसकी सहेली बन चुकी शबाना उस पर मोहित हो गयी. जब उसी रंग के दुपट्टा से उसने घूंघट काढ़ा तब शबाना के मुंह से एकबारगी निकल पड़ा -"श्वेता एक दिन तुम ही लखनऊ के रंगीन मिजाज रईसों के दिलों पर राज करोगी." शबाना की बात सुनकर वह एक फीकी मुस्कान मुस्काकर रह गयी. उसकी नाक में आज एक कीमती नथ डाली गयी थी. यह नथ उसकी कुंवारी होने की निशानी थी. आज की इस महफिल में कोठे के रस्मो-रिवाज के मुताबिक उसकी मुंहदिखाई की रस्म होनी थी. उसका घूंघट वहीं शख्स उठाएगा जो मुंहदिखाई में सबसे मोटी रकम देगा.
*****
बालकोनी के एक पाए की ओट में शबाना के साथ छुपकर खड़ी श्वेता हॉल में पधार चुके सभी रसिकों को हैरत से देख रही थी. उन रसिकों में बीस वर्ष के नौजवान से लेकर साठ वर्ष के बुजुर्ग भी थे. उसके पीठ पीछे खड़ी शबाना उन आला मिजाज रईसों का संक्षिप्त परिचय देती हुई इनकी तारीफ और किसी किसी की आलोचना भी करती जा रही थी. आज लखनऊ के इन्हीं महापुरुषों के समक्ष उसे प्रथम बार तवायफ बनकर मुजरा करना है. फिर जब तक उसका यौवन रहेगा समाज के भद्रपुरूष माने जाने वाले ये लोग उसे नचाते रहेंगे और वह नाचती रहेगी.
"वे जो चमेली का गजरा हाथ में लेपेटे हुए बार बार सूंघ रहे हैं, वे कुंवर वीरेंद्र सिंह हैं. किसी पुराने रियासत के टिमटिमाते हुए चिराग हैं कुंवर साहब, लेकिन हम नर्तकियों के नृत्य और गायन प्रतिभा के सच्चे कद्रदान हैं ये, इसमें कोई शक नहीं. राज-पाट चले जाने के वाबजूद भी इनकी दरियादिली में रत्ती भर भी कमी नहीं आने पायी है. हमलोग इन्हें राजाजी कहकर पुकारते हैं." लगभग पचपन वर्षीय एक रोबिले शख्स की ओर इशारा करते हुऐ शबाना ने बताया. श्वेता कुछ पल राजा जी को निहारती रही. फिर शबाना की अंगुली राजाजी के बगल में बैठे दूसरे शख्स की ओर उठ गयी -"और वे जो काले रंग की शेरवानी पहने हुए लखनवी अंदाज में पान चबाते हुए बार बार पीकदान में थूक रहे हैं, वे नबाब बशीरुद्दीन अहमद लखनवी हैं. नबाब साहब का कहना है कि सत्रहवीं शताब्दी में जब दिल्ली के बादशाह औरंगजेब हुआ करते थे, तभी इनके खानदान के किसी आला मिजाज नबाब ने दिल्ली से तवायफों को बुलवाकर लखनऊ के इस मुहल्ले को रौनक बख़्शी. अब इस बात में सच्चाई कितनी है, यह तो नबाब साहब ही जाने. मगर इस बात की दाद देनी होगी कि नबाब साहब भी राज जी की तरह ही दिलदार है. राजा जी और नबाब साहब के बीच जब हम नर्तकियों को बख्शीश देने की होड़ लगती है तब हम हमारे बारे न्यारे हो जाते हैं. वैसे नबाब साहब भी नेकदिल इंसान हैं और राजाजी की काफी इज्जत करते हैं. नबाब साहब का मिजाज शायराना है."
"अच्छा....!" पलभर के लिए श्वेता की ऑंखें चमक उठी.
"हां....और अब उधर देखो, गैंडे की जैसी शक्ल वाला जो व्यक्ति बैठा अपनी तोंद पर हाथ फेर रहा है, वह लखनऊ का मशहूर सर्राफा है. इसका नाम है सेठ जगत नारायण वर्णवाल, मीना बाजार में इसकी बहुत बड़ी ज्वेलरी की दुकान है. मुजरे का शौकीन तो बहुत है पट्ठा मगर है एक नंबर का कांइया. दस बार जेब में हाथ डालेगा तब कहीं जाकर सौ का एक नोट निकाल पाएगा. मगर अम्मा भी कुछ कम नहीं है. ऐसे लोगों से पैसे ऐंठने के फ़न में भी माहिर हैं. और वो जो सेठ जी के पीछे शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन उठाए इधर उधर देख रहा है, उसका नाम है मुश्ताक अहमद देहलवी. नबाब साहब का शागिर्द है पट्ठा. मगर इसकी शेखी ऐसी है कि कभी कभी नबाब साहब यानी अपने उस्ताद की भी तौहीन कर बैठता है. उस तरफ गाव तकिया के सहारे, दीवार से पीठ टिकाए, खोए खोए हुए से जो सज्जन बैठें हैं, उनका नाम उपेन्द्र नाथ अवस्थी है."
"क्या कहा उपेन्द्र नाथ अवस्थी?" श्वेता बुरी तरह से चौंक पड़ी.
"हां, मगर तुम इस तरह से चौंकी क्यों?" शबाना हैरत से श्वेता की ओर देखने लगी.
"मैं इनको जानती हूं.....ये बहुत बड़े कहानीकार हैं. मैं इनकी कहानियां और उपन्यास बड़े चाव से पढ़ा दू करती हूं. अपनी कहानियों में ये स्त्रियों की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण किया करते हैं. मैं इनकी फैन हूं और कई बार इन से पत्राचार भी कर चुकी हूं."
"अच्छा....." शबाना की ऑंखें भी हैरत से फ़ैल गयी. अवस्थी जी काफी दिनों से इस कोठे पर आ रहे हैं, मगर वह इन्हें उतनी गहराई से नहीं जान रही थी, जितनी गहराई से श्वेता जान रही है.
"आश्चर्य है शबाना कि इस कोठे पर अवस्थी जी जैसे महान लोग भी आते हैं." श्वेता आदर भाव से अवस्थी जी की ओर देखती हुई बोली.
"ये इस कोठे पर आते तो जरूर हैं, मगर इनकी रूचि हम नर्तकियों में नहीं रहती."
"तो फिर.?"
"ये खोये खोये से कुछ तलाशते हुए से नजर आया करते हैं. मैं आज तक नहीं समझ पायी कि इनकी तलाश आखिर है क्या?"
"कहीं इनकी तलाश तुम तो नहीं हो....?" श्वेता ने परिहास पूर्ण स्वर में पूछा. उसके इस परिहास को सुनकर शबाना शर्मिंदा हो गयी और बाद में गमगीन भी.
"हम तवायफों का ऐसा नसीब कहां जो अवस्थी जी जैसे महान विभूति हमारी तलाश करें."
तुम्हारे दिल को चोट लगी न." श्वेता की अधरों पर मृदुल मुस्कान थिरकने लगी और इस बार शबाना भी मुस्कुरा दी.
"खैर छोड़ इन बातों को, अब जरा उन नौजवानों के बारे में भी तो कुछ बता." श्वेता ने बुजुर्गों से अलग-थलग बैठे नौजवानों की ओर इशारा करते हुए पूछा.
"उन नौजवानों के बारे में कुछ ना ही पूछो तो अच्छा." शबाना मुंह बनाती हुई बोली.
"क्यों.....?"
"वे सब छंटे हुए गूंडे हैं....वो जो राजा साहब के रू-ब-रू बैठा है, उसका नाम धनंजय है. एक नम्बर का शराबी और लोफर है. चूंकि इस कोठे पर शराब पीने की सख्त मनाही है, इसलिए वह बाहर से ही मस्त होकर आया करता है. सुना है किसी करोड़पति की बिगड़ी हुई औलाद है यह. मगर है दिलदार. हम नर्तकियों को बख्शीश देने में राजा जी को भी मात कर दिया करता है."
"अच्छा....और वो जो उसकी बाईं और बिल्लौरी आंखों वाला बैठा है, वह कौन है....?"
"वो साला एक नंबर का हरामी है." शबाना का चेहरा एकदम से दहकने लगा. और उसके मुंह से गालियां सुनकर श्वेता बुरी तरह से चौंक पड़ी. क्या इस कोठे की नर्तकियां अश्लील गालियां भी बकती हैं? वह मन ही मन सोचने लगी. उसके मनोभाव से बेखबर शबाना अपनी शय में बोलती जा रही थी. -" वो साला मुफ्त में ही मुजरे सुनता है, नाच देखता है. ठीक है सुनें मुजरे, देखे नाच, मगर हरामी की औलाद हमारे साथ छेड़छाड़ क्यों करता है.? अम्मा भी इस हरामखोर से डरती है, क्योंकि यह हरामी इस इलाके के विधायक सी. के. पाण्डेय की नाजायज औलाद है. इस हरामखोरी की तरह इसका बाप भी हरामी है. पता नहीं अम्मा ने आज के दिन इसे ऊपर क्यों आने दिया." शबाना ने क्या कहा क्या नहीं, वह सब श्वेता सुन नहीं पायी. वह यही जानकर बेदम हुई जा रही थी कि वह लड़का यहां की लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करता है. यदि उसने मेरे साथ ऐसा किया तो मैं उसके मुंह पर थूक दूंगी. उसका मूड बदल गया. वह तेजी से पलट गयी और अपने रूम की ओर भाग खड़ी हुई. शबाना हैरान नजरों से उसे देखती रह गयी.
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क्रमशः .........!
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