मीरा बाई का बचपन
(प्रथम किश्त)
- रामबाबू नीरव
सोलहवीं शताब्दी में श्रीकृष्ण भक्ति की काव्य धारा में एक अद्भुत कवयित्री का प्रादुर्भाव हुआ जिसने श्रीकृष्ण की साधना में डूबकर हिन्दी साहित्य को भक्ति रस से सराबोर अनुपम काव्य देकर इसकी निधि को लबालब भर दिया. उस साहित्य साधिका कृष्ण भक्त कवयित्री का नाम था मीरा बाई. राजपूतों के आन, बान और शान के लिए विख्यात राजपूताना (मेवाड़) में मीराबाई को लेकर अनेक तरह की लोकोक्तियों के साथ साथ दंतकथाएं प्रचलित हैं. वे प्रचलित दंतकथाएं तथा लोकोक्तियां सच हो अथवा झूठ, परंतु इतना तो निर्विवाद सत्य है कि द्वापर काल में भगवान श्रीकृष्ण की निश्छल प्रेमिका राधारानी के बाद इस कलिकाल में उनकी भक्ति के साथ साथ प्रेमसागर में आकंठ डूब जाने वाली प्रेयसी यदि कोई हुई है, तो वह है मीराबाई. मेवाड़ क्षेत्र में उनके बारे में प्रचलित दंतकथाओं को जानने से पहले आइए जानते हैं उनके जन्म आदि की सच्चाई को. माना जाता है कि मीराबाई का जन्म जोधपुर (राजस्थान) के मेड़ता के राजा के छोटे भाई कुंवर रतन सिंह की एकलौती संतान के रूप में सन् 1492 ई० में हुआ था. जिस दिन मीराबाई का जन्म हुआ था वह शरद् पूर्णिमा का दिन था. वर्तमान जोधपुर (राजस्थान) का मेड़ता राजघराना उन दिनों मेवाड़ के प्रतिष्ठित राजघरानों में से एक था. मेड़ता के राजपूत अपने नाम के आगे राव और नाम के पीछे राठौड़ उपनाम लगाया करते थे. इस तरह मीराबाई के दादाजी का नाम राव दादू सिंह राठौड़ था. मीराबाई के पिताजी कुंवर रतन सिंह राठौड़ राव दादू सिंह राठौड़ की चौथी संतान थे. बचपन से ही मीरा अपने दादा जी की चहेती थी. मेवाड़ में प्रचलित एक कथा के अनुसार मेड़ता राजघराने की किसी राजकुमारी की बारात आयी हुई थी. उस समय मीरा मात्र पाॅंच वर्ष की अबोध बालिका थी. जब दुल्हाजू का द्वार पूजन हो रहा था, तब बालिका राधा ने अपनी माॅं से भोलेपन से पूछा -"माॅं, मेरा दुल्हा कौन होगा." तब मीरा की माॅं जशोदा बाई ने भगवान श्रीकृष्ण की एक छोटी सी प्रतिमा की ओर इशारा करते हुए परिहास पूर्ण स्वर में कहा था -"वे हैं तेरे दुल्हा." माॅं की ठिठोली को मीरा ने सच मान लिया और भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा को उठाकर अपने कलेजे से चिपकाती हुई उसी क्षण प्रण कर लिया कि वह श्रीकृष्ण को ही अपना पति बनाएगी. तब से ही वह श्रीकृष्ण की उस प्रतिमा को ही पति मानकर उनकी भक्ति में लीन हो गयी. जब वह छः वर्ष की हुई तब उसकी माता जी का स्वर्गवास हो गया. इससे उसके हृदय को तीव्र झटका लगा. माता जी के गुजर जाने से मीरा पूर्णतः एकाकी हो गयी. मीरा की मां जशोदा बाई उसकी मात्र मां ही नहीं, बल्कि सहेली भी थी. एकांत में बैठकर मीरा अपनी मां के वियोग में तड़पती हुई बेशुमार आंसू बहाया करती थी. मीरा का दर्द उसके दादा जू से देखा न जाता. चूंकि मीरा के पिताजी का अधिकांश समय दिल्ली के सुल्तान से युद्ध करते हुए गुजर रहा था, इस कारण वे अपनी पुत्री को समय नहीं दे पा रहे थे. तब मीरा के दादाजी, जो राजपाट से संन्यास ले चुके थे, ने मीरा की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और बड़े लारदुलार के साथ वे उसकी परवरिश करने लगे. जिस उम्र में लड़कियां अक्सर गुड्डे-गुड़ियों का खेल खेला करती हैं, उस उम्र में मीरा अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की प्रतिमा के साथ भक्ति के साथ साथ प्रेमालाप में लीन हो जाया करती थी. और अपने प्रियतम की भक्ति में कविताएं रचा करती थी. मीरा की इस निश्छल भक्ति से राव दादू सिंह राठौड़ अनभिज्ञ नहीं थे. उन्होंने मीरा की इस श्रद्धामय भक्ति पर कोई टीका टिप्पणी नहीं की, बल्कि परोक्ष रूप से उसे प्रोत्साहित करते रहें. अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की भक्ति में डूबकर मीरा जब नृत्य करने लगती तब उसके दादा राव दादू सिंह राठौड़ उसे प्रोत्साहित करते हुए ताली बजाया करते. उन्होंने अपनी पौत्री की भक्ति भावना से प्रसन्न होकर उसके लिए एक तानपुरा (एक तरह का छोटा सितार) और घूंघरू ला दिया. मीरा अपने दादा जी की ओर ये दोनों उपहार पाकर प्रसन्नता से झूम उठी. मीरा अब घूंघरू पहन कर तानपुरा बजाती हुई अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को रिझाने के लिए उन्मुक्त भाव से भजन कीर्तन करती हुई नृत्य भी करने लगी. उसका इस प्रकार से नृत्य करना भले ही उसके दादा जी को बहुत मनभावन लग रहा हो, परंतु राजघराने के अन्य महिला तथा पुरुष सदस्यों को मीरा की श्रीकृष्ण के प्रति यह निश्छल भक्ति रास नहीं आ रही थी. वे सभी मीरा की खिल्ली उड़ाता करते. राजमहल की दासियां भी तरह तरह की बातें करती, मगर मीरा को इसकी परवाह न थी.
समय बीतता रहा. धीरे धीरे मीरा बालिका से किशोरी हुई और किशोरी से युवती. युवावस्था प्राप्त करने के पश्चात मीरा का सौंदर्य भी निखिल उठा. उसकी भक्ति के साथ साथ अनुपम सौंदर्य की भी चारों ओर चर्चा होने लगी. अब राव दादू सिंह राठौड़ को उसकी शादी की चिंता संतानें लगी.
उन दिनों मेवाड़ के राजा थे - राणा संग्राम सिंह. ये महाराणा सांगा के नाम से भी विख्यात थे. ये मेवाड़ के सिसौदिया राजघराने के प्रतापी राजाओं में से एक थे. इनके नाम से दिल्ली सल्तनत के सुल्तान कांपा करते थे. उस समय दिल्ली पर लोधी वंश का शासन था. राणा सांगा के दो पुत्र थे. प्रथम पुत्र का नाम था कुंवर भोजराज सिंह (जो बाद में राणा कुम्भा के नाम से मेवाड़ के राजा बने) और दूसरे पुत्र का नाम था कुंवर विक्रम सिंह. जहाॅं कुंवर भोजराज वीर योद्धा और विनम्र स्वभाव के सर्वप्रिय युवक थे वहीं उनका अनुज विक्रम सिंह दुष्ट स्वभाव का उदंड युवक था. राव दादू सिंह राठौड़ ने अपनी पौत्री मीरा के लिए वर के रूप में कुंवर भोजराज का चयन कर लिया. उन्होंने अपना मंतव्य अपने पुत्र और मीरा के पिता कुंवर रतन सिंह राठौड़ पर प्रकट किया. भला रतन सिंह को क्या आपत्ति हो सकती थी. उन्होंने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी. अब राजपुरोहित के साथ दूत को मेवाड़ के राजदरबार में भेजा गया. महाराज राणा संग्राम सिंह को मीरा की खूबसूरती के साथ साथ उसकी कृष्ण भक्ति की भी जानकारी थी. उन्होंने मीरा को मेवाड़ राजघराने की बहुरानी बनाने की स्वीकृति प्रदान कर दी. इस सुखद संवाद को सुनकर राव दादू सिंह राठौड़ के साथ साथ उनके सभी पुत्र भी प्रसन्नता से झूम उठे. मेवाड़ राजघराने से सम्बन्ध जुड़ना गौरव की बात थी. जहां राजमहल की महिलाओं में हर्षोल्लास छाया हुआ था, वहीं मीरा का मुखड़ा विषाद से कुम्हला गया. ऐसा लगने लगा था जैसे उसके ऊपर बज्रपात हो चुका हो.
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क्रमशः........!
(अगले अंक में पढ़ें : *मीरा बाई के पति भोजराज जी की उदारता*)
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