भक्तिकाल के संत कवि


(अंतिम किश्त)  

- रामबाबू नीरव

हिन्दू दर्शन में "ब्रह्म" ही सम्पूर्ण विश्व का परम सत्य है. संत कबीर दास का एकात्म ईश्वरवाद इसी परम सत्य "ब्रह्म" में समाहित है. यह सर्वविदित है कि संत कबीर दास एकेश्वरवादी थे. यानि वे मूर्ति पूजा के साथ साथ वैष्णव मत के भी घोर विरोधी थे. जबकि उनके गुरु रामानंद स्वामी वैष्णव मतावलंबियों थे. और वैष्णव मतावलंबियों के प्रमुख आराध्य भगवान श्रीराम हैं. संत कबीर ने भी अपने आराध्य के रूप में अनेकों बार श्रीराम का नाम लिया है. -

"निर्गुण राम जपहु रे भाई

अवगति की गति लखी न जाई। 

चारि वेद जाके सुमिरन पाराना

नौ व्याकरणी मरम न जाना।।"

अर्थात : संत कबीर दास भक्तजनों को कहते हैं - हे भाई ! निर्गुण (निराकार) राम का स्मरण और ध्यान करो, जो अविगत और‌ अव्यक्त है. बुद्धि की समझ से बाहर है. उस राम को शब्दों में समझा या समझाया नहीं जा सकता. वह किसी भी प्राणी की समझ से परे है. यहाॅं तक कि चारों वेद, स्मृति, पुराण तथा दोष रहित व्याकरण, अन्य ग्रंथ और शास्त्र भी इस गहन रहस्य को समझ नहीं सके. इसका भावार्थ यह है कि कबीर भक्तजनों से कह रहे हैं कि यदि आपको धर्म, जीव, ब्रह्म आदि के गहरे तत्व ज्ञान की समझ नहीं है, तो आप‌ चिंता न करें. यदि आप धर्मशास्त्रों को पढ़ या समझ नहीं सकते हैं, तब भी आप चिंता न करें. वेद शास्त्र, पुराण और अन्य धर्मग्रंथ भी इसे समझने में असमर्थ हैं. क्योंकि ईश्वर अविगत हैं, इन्हें जाना नहीं जा सकता. अव्यक्त है, समझा नहीं जा सकता. इसलिए सर्वशक्तिमान राम (अन्तर्यामी) को याद करते रहें, नाम जपते रहें, उनका ध्यान और सुमिरन करते रहें.

कबीर के राम, निर्गुण अर्थात निराकार हैं. वे तीनों गुणों - सत्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण से परे हैं. कबीर के राम का कोई आकार नहीं है. ऐसा मान लें कि वह निराकार राम पानी की तरह है, जिसे जिस पात्र में रख दिया जाए, वह उसी का आकार ग्रहण कर लेता है. अब यहाॅं, प्रश्न उठता है कि  कबीर के उस निराकार राम का आखिर शाब्दिक अर्थ है क्या ? यदि हम गहनता पूर्वक विचार करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि कबीर साहेब के "राम" का अभिप्राय उस ईश्वर से है, जो निराकार है और जो संसार के कण कण में व्याप्त है. जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ‌के नियंता हैं. हिन्दू दर्शन (माइथोलॉजी) में निर्गुण (निराकार) तथा सगुण (साकार) दोनों उपासना पद्धति को मान्यता दी गयी है. संभवतः संसार में एक मात्र हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म है, जिसमें हजारों सम्प्रदाय और पंथ है. कोई वैष्णव मत को मानता है तो कोई शैव मत को. वैष्णव सम्प्रदाय में अनेकों तरह के मत है, वहीं शैव सम्दप्रदाय में भी अनेकों मत हैं. कोई ब्रह्म समाज में विश्वास करता है, तो कोई आर्य समाज में. यानि गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में कहें तो "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी." अब आईए देखते। हैं संत कबीर दास जी अपने निराकार प्रभु राम के बारे में क्या कहते हैं -

"कस्तूरी कुंडन बसै मृग ढ़ूंढ़े बन माही,

ऐसे घट घट राम हैं दुनिया देखे नाही."

अर्थात : जिस तरह कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ मृग की अपनी ही नाभि में छुपी होती है, मगर वह उस कस्तूरी को पाने के लिए इधर उधर भटकता फिरता है, ठीक वैसे ही ईश्वर तो मनुष्य के हृदय में ही वास करते हैं, परंतु इस संसार के लोग ऐसे अज्ञानी हैं कि स्वयं के अंदर छुपे राम (अंतर्यामी प्रभु) को देख नहीं पाते और इधर उधर भटकते रहते हैं. आगे देखिए संत कबीर साहेब इसे थोड़ा और विस्तार रूप देते हुए क्या कहते ‌हैं- "मोको कहॉं ढ़ूंढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में ।

ना मैं देवल, ना मैं मस्जिद,

ना काबा कैलास में ।।

ना तो कौनो क्रिया-कर्म में नहीं भोग वैराग्य में ।

खोजी हौं तुरतैं मिलिहौं पल भर की तलास में।।

कहै कबीर सुनो भाई साधो  सब सांसों की सांस में ।"

कबीर साहेब का यह पद इतना सहज और सरल है कि इसकी व्याख्या करने ‌की आवश्यकता नहीं है. संत कबीर साहेब के इसी निर्गुणी मत को परिभाषित करते हुए आधुनिक काल के कवि रामनरेश त्रिपाठी क्या कहते हैं, जरा देखें -

*अन्वेषण*

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"मैं ढ़ूंढ़ता तुझे था, जब कुंज और वन में .

तू खोजता मुझे था,

तब दीन के बदन में.

तू आह बन किसी की, मुझको पुकारता था.

मैं था तुझे बुलाता,

संगीत में भजन में .

मेरे लिए खड़ा था, 

दुखियों के द्वार पर तू.

मैं बांट जोहता था, 

तेरी किसी चमन में.

बनकर किसी के ऑंसू ,

मेरे लिए बहा तू .

ऑंखें लगी थी मेरी,

तब मान और धन में.

बाजे बजा बजा कर,

मैं था तुझे रिझाता.

तब तू लगा हुआ था,

पतितों के संगठन में.

मैं था विरक्त तुझसे,

जग की अनित्यता पर.

उड़ान भर रहा था,

तब तू किसी पतन में.

बेबस गिरे हुओं के,

 तू बीच में खड़ा था.

मैं स्वर्ग देखता था,

झुकता कहां चरण में."

अपनी इस कविता के माध्यम से कवि पं० रामनरेश त्रिपाठी ने संत शिरोमणि कबीरदास के निर्गुण राम (निराकार प्रभु) के स्वरूप की अक्षरशः व्याख्या कर दी है. त्रिपाठी जी ने अपनी इन पंक्तियों के द्वारा स्पष्ट कर दिया ‌है कि ईश्वर मंदिरों, संगीत-भजनों, स्वर्ग के ऐश्वर्य भोग, धन-दौलत की चकाचौंध अथवा आडंबरों में नहीं हैं, बल्कि दीन दुखियों की झोपड़ियों में, उनकी आह, उनके दु:ख दर्द और उनकी ऑंसुओं में हैं. यदि ईश्वर को पाना चाहते हो तो इनकी सेवा करो, इनके ऑंसू पोंछो. कुछ इसी तरह का भाव सुप्रसिद्ध कथाशिल्पी राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह ने अपनी कहानी "दरिद्र-नारायण," में भी प्रकट किया है. ‌

संत कबीर दास ने अपने उस अदृश्य ईश्वर को "राम" का नाम इसलिए भी दिया, क्योंकि उनके गुरु स्वामी रामानंद के मुख से प्रथम मिलन में "राम" नाम ही निकला था. इसलिए संत कबीर दास ने इस नाम को  गुरु मंत्र मान लिया और उस अदृश्य शक्ति को "राम" का नाम दिया. कबीर पंथ (निर्गुण भक्ति) की परंपरा को आगे बढ़ाने में उनके शिष्यों का बहुत बड़ा। योगदान रहा है. उनके उन शिष्यों में प्रमुख थे - अनंतानंद, सुखानंद, नारारी दास, अभयानन्द, भगत पिपा, कबीर द्वितीय. सेन, धन्ना, रविदास, सुश्रुरी आदि. उनकी पत्नी का नाम लोई था. उनकी दो संतानें थी. एक पुत्र तथा एक पुत्री. पुत्र का नाम कमल था जिसे वे प्यार से कमाल कहकर पुकारा करते थे. पुत्री का नाम कमली था. माना जाता है कि उनके पुत्र कमाल की कबीर पंथ को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी.    

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क्रमशः...........!

(अगले अंक में पढ़ें : इस शृंखला की अंतिम कड़ी *श्रीकृष्ण की आराधिका : मीरा बाई*)

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