(कुंवर भोजराज के साथ मीरा के विवाह कि कथा.) 


-रामबाबू नीरव

यह जानकर कि उसके दादा जी ने उसका विवाह मेवाड़ के राजकुमार कुंवर भोजराज के साथ सुनिश्चित कर दिया है, मीरा व्याकुल हो गयी. वह तो श्रीकृष्ण को अपना पति मान चुकी थी, फिर वह किसी परपुरुष के साथ विवाह कैसे कर सकती है? वह अपने कोप भवन में जाकर ऑंसू बहाने लगी. उसकी दासियों ने राव दादू सिंह को इसकी सूचना दी. दादू सिंह दौड़े हुए मीरा के कोप भवन में पहुंचे. यह देखकर वे हैरान रह गये कि उनकी पौत्री जार जार आंसू बहाये जा रही है. मीरा के माथे पर स्नेह से हाथ फेरते हुए उन्होंने पूछा -

'यह क्या पुत्री खुशी के इस मौके पर तुम रो रही हो?"

"दादा जी, मैं विवाह नहीं करूंगी."

"क्या.....!" मीरा की बात सुनकर राव दादू सिंह अवाक रह गये. आज तक उनके खानदान की किसी भी राजकुमारी ने शादी से इंकार करने का दुस्साहस नहीं किया था. वे मीरा के इस दुस्साहस को देखकर कुपित हो उठे.

"मीरा तुम जानती हो कि तुम क्या कह रही हो.?" उनका स्वर काफी कठोर हो चुका था. 

"मैं जानती हूं दादा जी, परंतु आपलोग नहीं जानते कि मेरा विवाह बचपन में ही हो चुका है." मीरा ने शान्त स्वर में कहा.

"तुम्हरा विवाह हो चुका है, मगर किसके साथ ?" दादू का सर चकरा कर रह गया. वे फटी फटी ऑंखों से मीरा को देखने लगे.

"इनके साथ." अपने ऑंचल में छुपाकर रखी हुई श्रीकृष्ण की प्रतिमा को निकाल कर दिखाती हुई मीरा निश्छल भाव से बोली. उसकी इस निश्छलता पर दादू हो..... हो, कर हंस पड़े.

"पगली, ये तो भगवान श्रीकृष्ण की मूरत है, इनके प्रति श्रद्धा भक्ति रखी जाती है, भला इनके साथ कोई लड़की विवाह कैसे कर सकती है?"

"वैसे ही, जैसे राधा ने किया था." मीरा के भोलेपन पर दादू पुनः हंस पड़े. 

"वह युग दूसरा था पुत्री. तब श्रीकृष्ण और राधा दोनों प्रत्यक्ष थे. परंतु आज का युग दूसरा है. आज श्रीकृष्ण प्रत्यक्ष नहीं हैं."

"आप लोगों के लिए वे अदृश्य होंगे, परंतु वे मेरे परमेश्वर के साथ साथ पति भी हैं, इसलिए मेरे लिए प्रत्यक्ष हैं. मैं दूसरा विवाह नहीं कर सकती." मीरा का दृढ स्वर सुनकर दादू कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गये. मीरा के मुखमंडल पर एक देदीप्यमान आलोक प्रकाशमान होने लगा था. ऐसा लगने लगा जैसे मीरा के अंदर कोई दैवीय शक्ति आ गयी हो. दादू की समझ में कुछ भी न आया. यदि यह विवाह नहीं हुआ तो मेवाड़ के राणा राजवंश से शत्रुता हो जाएगी, जिसका परिणाम काफी भयानक हो सकता था. उन्होंने अपने सर की पगड़ी उतार कर मीरा के कदमों में रखते हुए कहा -"पुत्री अंधभक्ति और अति भावुकता में आकर तुम ऐसा अनर्थ मत करो. तुम नहीं जानती तुम्हारे इस इंकार से दो राजवंशों के बीच भयानक रक्तपात होने लगेगा और भरी सभा में मेरी पगड़ी उछाल दी जाएगी. मेरी पगड़ी की लाज बचा लो पुत्री." दादू की ऑंखों से भी ऑंसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी. उनकी वेदना की अनुभूति से मीरा तड़प उठी और वह उस अलौकिक अनुभूति से मुक्त होकर यथार्थ के धरातल पर आ गयी. वह दादू की पगड़ी उठा कर उनके सर पर रखती हुई बोली -

"ठीक है दादाजी, जिस किसी के साथ भी मेरा विवाह होगा उसे मैं अपना नश्वर शरीर ही अर्पित करूंगी, मेरी आत्मा तो अपने आराध्य श्रीकृष्ण में रम चुका है." मीरा की स्वीकृति पाकर राव दादू सिंह राठौड़ की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. 

एक शुभ मुहूर्त में मीरा का विवाह धूमधाम के साथ मेवाड़ के कुंवर भोजराज सिंह सिसौदिया उर्फ़ राणा कुम्भा के साथ सम्पन्न हो गया. वह अपने साथ श्रीकृष्ण की प्रतिमा मेवाड़ के राजमहल में लेती आयी थी. राव दादू सिंह राठौड़ के विशेष अनुरोध पर राणा सांगा ने मेवाड़ राजमहल में कुल देवी मॉं तुलजा भवानी (माॅं दुर्गा का एक रूप) के मंदिर के निकट ही मेवाड़ की कुलवधु मीराबाई के लिए श्रीकृष्ण के भव्य मंदिर का निर्माण करवाया गया. मेवाड़ के महाराज राणा सांगा अपनी वधू के रूप में मीरा को पाकर प्रसन्नता से झूम उठे थे.  

                     ******

    कुंवर भोजराज सिंह भी मीराबाई को पत्नी रूप में पाकर मन-ही-मन फूले न समा रहे थे. प्रथम रात्रि में ही वे अपनी पत्नी के सौंदर्य पर मोहित हो गये. मीरा ने बड़े ही भोलेपन से उन्हें अपने हृदय की पूरी बात बता दी और श्रीकृष्ण के प्रति अपनी श्रद्धा भक्ति के साथ साथ यह भी प्रकट कर दी कि वह श्रीकृष्ण की ही पत्नी है. सहज, सरल और उदार स्वभाव के भोजराज ने मीरा के इस कथन को भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उसकी अटूट आस्था मान लिया. कुंवर भोजराज जी को अपनी धर्मपत्नी की इस आस्था से कोई आपत्ति न थी. उन्होंने मीरा को राजमहल में स्थित भगवान श्रीकृष्ण के मंदिर में जाकर पूजा अर्चना करने की अनुमति प्रदान कर दी. अपने पति की इस उदारता को देखकर मीरा निहाल हो गयी. वह अब प्रत्येक रात्रि में मंदिर में जाकर अपने प्रथम पति श्रीकृष्ण के प्रेमसागर में डूबकर तानपुरा बजाती हुई   नृत्य करने लगती. 

मीराबाई की छोटी ननद उदाबाई दुष्ट और ईर्ष्यालु स्वभाव की थी. वह मन ही मन उससे जलती रहती थी और हर समय इस मौके की तलाश में रहा करती थी, जब वह अपने बड़े भाई कुंवर भोजराज सिंह (राणा कुम्भा) के समक्ष उसे नीचा दिखा सके. एक निस्तब्ध रात्रि को उसने मीराबाई को श्रीकृष्ण के मंदिर की ओर जाते हुए देख लिया. फिर क्या था वह मीरा बाई के पीछे पीछे चलती हुई मंदिर में पहुंच गयी और छुपकर मीरा की हरेक गति विधि को ध्यान से देखने लगी मैं. मीराबाई ने मंदिर के अंदर प्रविष्ट होकर द्वार बंद कर लिया. दुष्ट स्वभाव की ऊदाबाई पाये की ओट से बाहर निकल कर मंदिर के भीतर से आ रही खुसुर फुसुर की आवाज को ध्यान से सुनने लगी. उसके पापी मन ने समझा उसकी भाभी मीराबाई अपने किसी अज्ञात प्रेमी के साथ प्रेमालाप कर रही है. उसे साध्वी मीरा को नीचा दिखाने और बदनाम करने का सूत्र हाथ लग चुका था. वह उसी क्षण अपने बड़े भाई कुंवर भोजराज सिंह के शयन कक्षा की दौड़ पड़ी. आधीरात को अपने" समक्ष अपनी बहन को देखकर भोजराज चौंक पड़े. उन्होंने ने ऊदाबाई से आने का कारण पूछा. ऊदाबाई ने जो कुछ भी बतलाया उसे सुनकर भोजराज का खून खौल उठा और हाथ में नंगी तलवार लिए हुए मंदिर की ओर दौड़ पड़े. जैसे ही वे मंदिर के अंदर प्रविष्ट हुए कि मीराबाई चौंक कर उनकी ओर देखने लगी. उन्होंने कड़कते हुए पूछा -

"कहां है वह दुष्ट ?"

"कौन दुष्ट....?" मीरा का स्वर शांत था. भोजराज के पीछे खड़ी थी उनकी बहन ऊदाबाई. वह हैरान थी, आखिर मीराबाई का प्रेमी चला कहां गया? मीराबाई की दृष्टि ऊदाबाई पर पड़ चुकी थी. मीराबाई समझ गयी, यह सारा खुराफात मेरी ननद ने ही रची है. वह तनिक भी विचलित न हुई और अपने आराध्य श्रीकृष्ण की ओर इशारा करती हुई शान्त स्वर में बोली- "वो रहे वे." इतना कहकर मीरा अपने श्रीकृष्ण की साधना में लीन हो गयी. भोजराज जी   भी समझ गये, यह सब उनकी बहन की चाल है. वे क्रुद्ध नेत्रों से अपनी बहन को घूरते हुए मंदिर से बाहर निकल गये.

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क्रमशः..........!

(अगले अंक में पढ़ें कुंवर भोजराज (राणा कुंभा) की शहादत की कथा.)

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