(मीराबाई के जीवन से जुड़ी कुछ खास बातें)
-रामबाबू नीरव
मीरा के आध्यात्मिक गुरु : संत रविदास
यह सत्य है कि बिना गुरु के ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती और अगर ज्ञान प्राप्त हो भी जाए, तो उस ज्ञान का कोई मोल नहीं होता. इस अल्पायु में ही मीरा ने भक्ति साहित्य के क्षेत्र में अनेकानेक उपलब्धियां प्राप्त की. अपने आराध्य श्रीकृष्ण की भक्ति में अनेकों काव्य का सृजन किया फिर भी उनके मन को संतुष्टि न हो रही थी. उन्हें तलाश थी ऐसे गुरु की जो उन्हें भक्ति मार्ग का सही मंत्र दे सके. उन दिनों पूरे भारतवर्ष में भक्ति काव्य धारा की सलील सरिता बह रही थी. इसमें निर्गुण और सगुण दोनों तरह की विचारधाराएं थी. जहां निर्गुण (निराकार) विचारधारा के संवाहक संत कबीर थे, वहीं सगुण (साकार) विचारधारा को आगे बढ़ाने वालों में प्रमुख थे संत सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास दास, रहीम खानखाना, रसखान आदि. इसी परंपरा के एक और संत थे, जिनका नाम था संत रविदास, जिन्हें रैदास, रुही दास और रोबिन दास के नाम से भी जाना जाता था. संत रविदास निर्गुणवादी संत कबीर दास के शिष्य थे. इसलिए उन पर सगुण धारा के साथ साथ निर्गुण धारा का भी प्रभाव था. चूंकि वे दलित समुदाय (चमार जाति) से थे, इसलिए उच्च जाति में उन्हें समोच्चित सम्मान प्राप्त नहीं था, जबकि वे ज्ञान के भंडार थे. उनका जन्म तथा शिक्षा दीक्षा काशी (बनारस) में हुआ था. किसी संत समागम में उनके मानवतावादी तथा श्रीकृष्ण की भक्ति से ओत-प्रोत प्रवचनों को सुनकर मीराबाई उनसे काफी प्रभावित हुई तथा उनसे दीक्षा लेकर उनकी शिष्या बन गयी. जब यह खबर चितौड़गढ़ में पहुंची कि मीराबाई ने संत रविदास को अपना गुरु बनाया है, तब राणा विक्रमजीत सिंह के पूरे बदन में आग लग गई. उसकी नज़रों में मीराबाई ने रविदास को अपना गुरु बनाकर पूरे मेवाड़ राजघराने के मान-सम्मान को मिट्टी में मिला दिया था. अब वह पल भर के लिए भी मीराबाई को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं था. उसने मीराबाई को राजमहल का परित्याग करने की राजाज्ञा निर्गत कर दी. उसके इस निर्णय से राजमाता रत्ना कुंवरी के हृदय को चोट लगी. राजमाता अब मीराबाई के प्रति पूरी सहानुभूति रखने लगी थी. महल का परित्याग करके मीरा कहां जाएगी ? इस दुश्चिंता में वे घुलने लगी. अपने हृदयहीन पुत्र विक्रमजीत सिंह से काफी अनुनय विनय करके मीरा के लिए आश्रय के रूप में महल से बाहर स्थित श्रीकृष्ण के मंदिर को मांग लिया. इस पर वह सहमत हो गया. राजमहल का परित्याग कर मीरा अब स्थाई रूप से मंदिर में आ गयी और यहीं रहकर अपने प्रभु की पूजा अर्चना करती हुई भक्ति काव्य की रचना करने लगी. उस मंदिर में अब संतों का जमघट लगने लगा. उन संतों में संत रविदास भी शामिल हुआ करते थे. जब इसकी सूचना राणा विक्रमजीत सिंह को मिली तब वह आग बबुला हो उठा. उसने राजमाता रत्ना कुंवरी से साफ साफ कह दिया "माते, मीरा बाई अब हद पार कर चुकी है. सिसौदिया राजवंश की मर्यादा को मिट्टी में मिलाकर रख दिया इसने. अब या तो वह जिन्दा रहेगी या मैं जिन्दा रहूंगा."
जब मीरा को राणा विक्रमजीत सिंह की बातें ज्ञात हुई, तब उन्होंने राजमहल के परिसर में स्थित उस मंदिर का भी परित्याग कर दिया और अपने श्रीकृष्ण की प्रतिमा को लेकर वृन्दावन की ओर प्रस्थान कर गई.
*गोस्वामी तुलसीदास के कहने पर मीराबाई ने श्रीराम की भक्ति आरंभ की*
वैसे तो मीराबाई ने जितनी भी कविताओं की रचना की, वे सभी श्रीकृष्ण की भक्ति से ओत-प्रोत थी, परंतु अपवाद स्वरूप उन्होंने प्रभु श्रीराम की भक्ति में भी कुछ पदों की रचना की थी. इस संबंध में
माना जाता है कि उन्होंने पत्राचार द्वारा श्रीराम के परमभक्त और रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास से सम्पर्क किया था. उन्होंने अपने मन की व्यथा व्यक्त करते हुए उनसे समाधान पूछा. तुलसीदास जी ने उन्हें प्रभु श्रीराम की भक्ति में चित लगाने की सलाह दी. तब मीरा श्रीराम की भक्ति में लीन होकर पदों की रचना करने लगी. उनमें से एक सबसे प्रसिद्ध पद का अवलोकन करें -
"पायो जी मैंने राम रतन धन पायो.
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो.
वस्तु अमोलिक दी मोरे सत्गुरु,
किरपा कर अपनायो.
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो.
खर्चे न खूटे चोर न लूटे,
दिन दिन बढ़त सवायो.
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो.
सत की नाव खेवटिया सत्गुरु,
भव सागर तर्पायो.
पायो जी मैने रामरतन धन पायो.
मीरा के प्रभु गिरधर नागर
हर्ष हर्ष जब गायो,
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो."
*भावार्थ*
"इस पद में मीरा बाई प्रभु श्रीराम का स्तुतिगान करती हुई कहती हैं कि मुझे रामरतन नामक बड़े धन की प्राप्ति हुई है. मेरे सत्गुरु ने मुझ पर कृपा करके ऐसी अमूल्य वस्तु मुझे भेंट की है. उसे मैंने श्रद्धा पूर्वक पूरे मन से अपना लिया है. इस रामरतन धन को प्राप्त करके मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे मन में वर्षो से संचित अभिलाषा पूर्ण हो गयी हो. वैसे तो मेरे प्रभु गिरधर नागर (श्रीकृष्ण) हैं, फिर भी प्रभु श्रीराम को पाकर भी मैं धन्य हो गयी हूं."
*मीरा बाई के संबंध में कुछ किंवदंतियां*
माना जाता है कि श्रीकृष्ण की आराधिका मीराबाई पूर्वजन्म (द्वापर युग) में बरसाने (वृंदावन) की एक गोपी थी और श्रीकृष्ण की प्राणेश्वरी श्रीराधा रानी की प्रिय सहेलियों में से एक थी. जिसका नाम था ललिता. ललिता भी मन ही मन श्रीकृष्ण से प्रेम करती थी. परंतु इस भय से कि उसकी सहेली राधा से बिगाड़ न हो जाये, उसने अपने आराध्य श्रीकृष्ण पर अपना प्रेम कभी प्रकट नहीं किया और मन ही मन श्रीकृष्ण के प्रेम में घुटती रही. इसी बीच उसका विवाह हो गया और वह अपने ससुराल चली गई. परंतु श्रीकृष्ण के प्रेम में वियोगिनी बनी ललिता अपने पति को पत्नी का सुख प्रदान नहीं कर पायी. उसी ललिता ने हजारों वर्ष बाद मेवाड़ के एक राजघराने में मीरा बाई के रूप में जन्म लिया और पूर्वजन्म की भांति इस जन्म में भी अपने पति भोजराज जी की जगह श्रीकृष्ण को ही अपना पति मानकर पूरी जिन्दगी विरह वेदना में तड़पती हुई बिता दी.
वहीं राधा बल्लभ सम्प्रदाय के संतों का मानना है कि इस आधुनिक काल में स्वयं राधारानी ने ही मीराबाई के रूप में जन्म लेकर लोगों को श्रीकृष्ण की भक्ति का संदेश दिया.
*मीराबाई की रहस्यमय मृत्यु*
कुछ लोगों का मानना है कि अपने जीवन के अंतिम दिनों में साध्वी मीराबाई राणा विक्रमजीत सिंह की प्रताड़ना से उब कर द्वारिका चली गई और वहीं भगवान् श्रीकृष्ण के मंदिर में रहकर उनकी भक्ति में लीन हो गयी. परंतु अधिकांश लोग यह मानते हैं कि मीराबाई वृंदावन के एक मंदिर में जाकर अपने प्रभु के श्रीचरणों में समर्पित हो गयी. एक दिन तानपूरा बजाती, नृत्य करती और अपने आराध्य श्रीकृष्ण के गीत गाती हुई उन्होंने अपने शरीर का परित्याग कर दिया. कुछ भक्तजनों का मानना है कि वे अंतिम क्षणों (सन् 1547 ई०) में अपने स्वामी श्रीकृष्ण में समाहित हो गयी. सच्चाई चाहे जो भी हो, परंतु यदि साहित्यिक दृष्टि से देखा जाए तो मीराबाई का अवसान भक्ति काव्य धारा का अवसान माना जाएगा.
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(अगले अंक से पढ़ें पौराणिक भारत के इतिहास की शृंखला में महाभारत कालीन "कुरु राजवंश" का इतिहास. )
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