हमारी सांस्कृतिक विरासत


-- रामबाबू नीरव

छठ मूल रूप से बिहार, झारखंड तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनाया जाने वाला महापर्व है. वैसे अब यह पर्व धीरे धीरे पूरे उत्तर भारत के साथ साथ दक्षिण भारत के भी कुछ शहरों में फैलता जा रहा है. जिन जिन राज्यों में बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश कै लोग रहते हैं, उन राज्यों में छठ पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. यह त्यौहार त्रिदिवसीय है. इस त्यौहार में मुख्य रूप से महिलाएं 48 घंटे का उपवास रखती हैं और डूबते हुए सूर्य (सूर्यास्त) तथा उगते सूर्य (सूर्योदय) के साथ साथ छठी मईया को फल, फूल तथा अन्य पकवानों के साथ अर्घ्य देती हैं. इस अवसर पर महिलाएं छठी मईया को प्रसन्न करने के लिए सामूहिक रूप से तरह तरह के मंगल गीतें गाती हैं. कभी कभी मन्नत स्वरूप पुरुष भी उपवास रख कर सूर्यदेव तथा छठी मईया को अर्घ्य दिया करते हैं. यह एक ऐसा अनोखा त्यौहार है जिसमें अर्घ्य देकर पूजा-अर्चना तो की जाती है सूर्य देव की परंतु इस त्यौहार का नाम है *छठ महापर्व* और गौण रूप पूजा की जाती है *छठी मईया* की. आखिर *छठी मईया* है कौन ? और श्रद्धालुओं द्वारा इनकी उपासना क्यों की जाती है, इस परंपरा की शुरुआत कबसे हुई और किसने की.....? इस तरह के अनेकों प्रश्न हैं, जिसके उत्तर अधिकांश व्रतधारी पुरुष अथवा महिलाएं नहीं जानती हैं. तो आइए सबसे पहले हम यह जान लें कि *छठी मईया* आखिर है कौन ? हिन्दू "माइथो- लॉजी" (पौराणिक आख्यानों) के अनुसार सूर्य देव जहां सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं वहीं छठी मईया उनकी मानस पुत्री हैं. चूंकि छठी मईया ब्रह्मा जी की छठी संतान होने के साथ साथ इनकी उत्पत्ति कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी को हुई थी, इसलिए उनका नाम छठी मईया पड़ा. सूर्यदेव अपनी छोटी बहन छठी (षष्ठी) मईया से बहुत प्रेम भाव रखा करते थे. मान्यता है कि छठी मईया के साथ साथ सूर्यदेव की उपासना करने से मनुष्य की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, इसलिए महिलाएं इस व्रत को पूरी श्रद्धा एवं नियम-निष्ठा के साथ अनंत काल से मनाती आ रही हैं. कुछ प्रचलित कथाओं के अनुसार त्रेतायुग में भगवान श्रीराम की धर्मपत्नी माता सीता ने श्रीलंका से वापस अयोध्या आने के बाद अपने परिवार तथा समस्त अयोध्या की सुख शांति के लिए इस व्रत का अनुष्ठान किया था. वहीं द्वापर युग में पांचों पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी ने भी छठ व्रत किया था, इसका उल्लेख कई दंतकथाओं में देखने को मिलता है. परंतु इन दोनों कथाओं से हटकर एक कथा और भी है, जिससे अधिकांश लोग अनभिज्ञ हैं. त्रेतायुग से भी पूर्व यानि सतयुग से ही सूर्य-षष्ठी व्रत मनाये जाने की परंपरा चली आ रही है, स्कंद पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार उस युग में महर्षि भृगु के एक पुत्र थे च्यवन. च्यवन भी अपने पिता भृगु की तरह ही तेजस्वी तथा तपस्वी थे. एक बार वे अलौकिक सिद्धि की प्राप्ति हेतु नर्मदा नदी के तट स्थित सघन वन में घोर तपस्या में लीन थे. अनन्त काल तक तपस्या में रत रहने के कारण उनके शरीर को दीमकों ने अपना बसेरा बना लिया था. फलस्वरूप उनका शरीर मिट्टी का एक छोटा सा टीला नजर आने लगा. उस टीले में सिर्फ दो छिद्र दिख रहे थे और उन छिद्रों से उनकी ऑंखें चमक रही थी. वह जंगल उस काल के प्रतापी राजा शर्याति के राज्य में स्थित था. राजा शर्याति की एक पुत्री थी, जिसका नाम था सुकन्या. उस समय राजकुमारी सुकन्या षोडषी बाला थी. उसका सौन्दर्य अद्भुत था. वह चंचल और मृदुल स्वभाव की थी. 

एक दिन महाराज शर्याति आखेट हेतु जंगल जाने की तैयारी करने लगे, तब राजकुमारी सुकन्या भी उनके साथ शिकार पर जाने की जिद करने लगी. अपनी प्रिय पुत्री की जिद के समक्ष महाराज को झुक जाना पड़ा. अपने लाव-लश्कर के साथ महाराज शर्याति उसी जंगल की ओर प्रस्थान कर गये जिस जंगल में नर्मदा नदी के तट पर महर्षि भृगु पुत्र च्यवन घोर तपस्या में लीन थे. उनके साथ राजकुमारी सुकन्या भी अपनी कुछ सहेलियों के साथ उस जंगल में पहुंची. महाराज ने अपने सैनिकों को नर्मदा नदी के तट पर ही पड़ाव डालने की आज्ञा दी. 

    दूसरे दिन महाराज तो अपने सैनिकों तथा अन्य सेवकों के साथ रथ पर सवार होकर शिकार के लिए निकल गये और इधर उनकी पुत्री राजकुमारी सुकन्या अपनी सहेलियों के साथ हिरणी की तरह कुलांचे मारती हुई पहुंच गयी वहां जहां च्यवन ऋषि तपस्या में लीन थे. अचानक उसकी दृष्टि दिमकों द्वारा बनाए गये मिट्टी के उस टीले पर पड़ गयी, जो वास्तव में तपस्यारत महर्षि च्यवन थे. अपनी सहेलियों के साथ रूककर वह चकित भाव से उस टीले को देखने लगी. टीले के दो छिद्रों में से चमकती हुई दो ऑंखों को देखकर उसे महान आश्चर्य हुआ. राजकुमारी ने समझा ये ऑंखें किसी जंगली जानवर के हैं. उसने बिना कुछ सोचे समझे कुश की एक नुकीली लकड़ी उठा कर उन ऑंखों में घूसेर दी. ऑंखों में लकड़ी के चुभते ही अविरल ऑंसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी. च्यवन ऋषि की तपस्या भंग हो गयी और वे असह्य पीड़ा से तड़पने लगे. खून देखकर राजकुमारी सुकन्या और उसकी सहेलियां बुरी तरह से घबरा गयी. उसकी इस धृष्टता की सजा उसके पिता तथा अन्य राजकर्मचारियों को भुगतनी पड़ी, जो राजा शर्याति के साथ उस जंगल में आते थे. उन लोगों का मल-मूत्र त्यागना बंद हो गया. राजा शर्याति के साथ सारे सैनिक तथा राजकर्मी इस व्याधि से पीड़ित होकर तड़पने लगे. राजज्योतिषी ने महाराज को इस व्याधि का कारण बताते हुए तपस्यारत च्यवन ऋषि के साथ घटी पूरी घटना बता दी. महाराज शर्याति अपने सैनिकों तथा राजकर्मियों के साथ आकर ऋषि के चरणों में गिरकर अपनी पुत्री की धृष्टता की क्षमा याचना करने लगे.

"राजन." ऋषि ने अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए कहा -"आपकी पुत्री की नासमझी के कारण न सिर्फ मेरी वर्षो की तपस्या भंग हो गयी, बल्कि मैं अंधा भी हो गया. अब आप ही बताइए मेरा जीवन यापन कैसे होगा?"

"ऋषिवर, मेरी पुत्री से तो नासमझी के कारण धृष्टता हो गयी, अब इससे मुक्ति का मार्ग आप ही बताएं.'

"इससे मुक्ति का एक ही मार्ग है..... आपकी पुत्री को मेरे साथ विवाह करना होगा और पतिव्रता नारी की तरह मेरी सेवा सुश्रुषा करनी होगी, तभी आपलोगों की व्याधि दूर होगी."

"ठीक है ऋषिवर अपनी इकलौती पुत्री का कन्यादान आपके साथ करने का मैं वचन देता हूं."

राजकुमारी सुकन्या ने जब यह सुना कि उनके पिताजी ने उनका विवाह वृद्ध और अब अंधे हो चुके ऋषि के साथ करने का वचन दे चुके हैं, तब पहले तो वह अपने दुर्भाग्य पर खूब रोयी, फिर अपने प्रारब्ध से समझौता कर लेने के सिवा अन्य कोई विकल्प उसके समक्ष नहीं था. एक शुभ मुहूर्त में सुकन्या का विवाह अंधे और वृद्ध च्यवन ऋषि के साथ कर दिया गया. महाराज शर्याति अपनी पुत्री को च्यवन ऋषि के आश्रम में छोड़ कर अपनी राजधानी लौट आते. 

    सुकन्या पतिव्रता नारी के धर्म का पालन करती हुई अपने पति की सेवा में जी जान से जुट गयी. उसी जंगल में रह रहे एक अन्य तेजस्वी ऋषि ने उसे बताया कि यदि तुम सूर्यदेव तथा उनकी छोटी बहन छठी मईया की पूजा अर्चना कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी को करोगी तो तुम्हारे पति का कायाकल्प हो जाएगा. उक्त ऋषि की बात मानकर सुकन्या ने 48 घंटे का उपवास रखकर पूरे विधि-विधान तथा नियम-निष्ठा के साथ इस व्रत को किया. उसके इस श्रद्धा-भक्ति से प्रसन्न होकर सूर्यदेव तथा छठी मईया के पुण्य प्रताप से च्यवन ऋषि का न सिर्फ अंधापन दूर हो गया बल्कि वे पूर्णतः निरोग भी हो गये. उसी जंगल में एकबार भ्रमण करते हुए अश्विनी कुमार पहुंचे. उन्होंने सुकन्या को जड़ी बुटियों तथा सूखे मेवों से निर्मित औषधि दी. उस औषधि के सेवन से च्यवन ऋषि को युवावस्था प्राप्त हो गया. बाद में ऋषि को युवावस्था प्रदान करने वाली उस औषधि का नाम च्यवनप्राश पड़ा. च्यवन ऋषि तथा सुकन्या के संयोग से दधीचि, प्राची तथा अप्रवाण नामक तीन तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ. मान्यता है कि उसी काल से छठ पूजा का प्रचलन आरंभ हुआ.

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