धारावाहिक उपन्यास 

-रामबाबू नीरव 


(एक)

कल्पना थियेटर!

किसी कवि की कल्पना से भी परे !!

जगमगाते हुए चकाचौंध प्रकाश में कल्पना थियेटर का भव्य पंडाल इन्द्रलोक के सौंदर्य को भी फीका कर रहा है. पूरा पंडाल मिश्र के पीरामिड की तरह चौकोराकार है. पंडाल के ऊपर एक गुबंद बना है, जिस पर छोटे छोटे रंग-बिरंगे बल्बों से थियेटर का नाम लिखा है, जो शहर के किसी भी छोर से स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाता है. जब ये बल्ब जलते और बुझते हैं तब ऐसा लगता है जैसे पूरा पंडाल जल तरंग पर झूल रहा हो. मुख्य द्वार पर "कल्पना थियेटर" का काफी महत्व है लम्बा चौड़ा बोर्ड लगा है जिस पर अनेकों वेपर लाईट की रोशनी पड़ रही है. चारों ओर थियेटर की नर्तकियों के नृत्य की मुद्रा में बड़े बड़े होर्डिंग्स लगे है. इन होर्डिंग्स में जब सतरंगे बल्ब जलते और बुझते हैं तब लगता है जैसे नर्तकियां सजीव होकर नृत्य कर रही हों. 

आज इस थियेटर के उद्घाटन के साथ साथ प्रथम प्रदर्शन का आगाज होने वाला है. अपार जन समूह उमर पड़ा है. लोग मंत्रमुग्ध होकर आश्चर्यचकित भाव से इसकी भव्यता को निहार रहे हैं. जैसे जैसे शो के आरंभ होने का समय निकट आता जा रहा है, वैसे-वैसे भीड़ भी बेकाबू होती जा रही है. वैसे तो कल्पना थियेटर की अपनी सुरक्षा व्यवस्था है, फिर भी स्थानीय पुलिस प्रशासन का भी सहयोग लिया गया है. स्थानीय थाना के सब इंस्पेक्टर मि० के० के०  वर्मा दर्जन भर सशस्त्र पुलिस कर्मियों के साथ भीड़ को नियंत्रित करने में लगे हुए हैं. वर्मा  जी काफी कड़क मिजाज हैं.  उनके रहते बबाल हो जाए, ऐसा मुमकिन ही नहीं. मगर भीड़ का भी अपना अलग मिजाज होता है न ! शोर-शराबा, धक्का-मुक्की भीड़ के उसी मिजाज में शुमार किए जाते हैं. ऐसे मामूली बातों के लिए बल प्रयोग करना उचित नहीं होता. 

इस शहर की दो बड़ी हस्तियों को मुख्य अतिथि तथा उद्घाटनकर्ता बनाया गया है. मुख्य अतिथि है इस शहर के डॉन माना जाने वाला, बड़े बाप का बिगड़ा हुआ बेटा मि० अभय राज और उद्घाटन कर्ता हैं शहर के सबसे बड़े रईस बाबू ज्योतनारायण सिंह उर्फ जीतन बाबू. 

आईए सबसे पहले बाबू ज्योतनारायण सिंह उर्फ जीतन बाबू से आप लोगों को रू-ब-रू करा दूं. जीतन बाबू इस इलाके के विख्यात जमींदार घराने से ताल्लुक रखते हैं. इनके परदादा मुगल काल के दबंग  जमींदार हुआ करते थे. पिताजी अंग्रेजों के चाटुकार थे और स्वयं जीतन बाबू आजादी मिलते ही रातों रात  खांटी कांग्रेसी बन गये. पुरस्कार स्वरूप इनकी करोड़ों की जायदाद बच गयी, जो आज के दिन में अरबों की सम्पत्ति हो चुकी है. इस शहर की एक चौथाई जमीन और दुकानों के ये मालिक हैं. रंगीन मिजाज के हैं, मुजरा के सुनने के शौकीन हैं. शहर के उत्तरी छोर पर स्थित नीलहा कोठी इनके आन-बान-शान की पहचान है. लेकिन इनका दुर्भाग्य ऐसा कि अरबों की सम्पत्ति का कोई वारिस नहीं है. एक बेटी है जो विवाह के कुछ ही दिनों बाद विधवा हो गयी. वह भी नि: संतान ही है और अपनी मॉं के साथ गांव की हवेली में रहती हुई वैधव्य का जीवन व्यतीत कर रही हैं. चूंकि जीतन बाबू  की सम्पत्ति को भोगने वाला कोई है नहीं, इसलिए ये ऐय्यासी पर दोनों हाथों दौलत लुटाया करते हैं.  मगर मजाल है कि किसी गरीब की मदद कर दें! इनकी दौलत का भोग इनके दोनों भांजा कर रहे हैं, जो सपरिवार इसी शहर में स्थित एक आलीशान हवेली में रहते हैं. एक तरह से जीतन बाबू की सम्पत्ति पर ये दोनों भाई ही केंचुल मार कर बैठ चुके  हैं. इनके ही मन मिजाज के कुछ धनकुबेर इनके खास दोस्त हैं, रंगीन मिजाज और‌ ऐय्यास के साथ साथ गरीबों के लहू निचोड़ने वाले हैं. इनके इन खास दोस्तों में शामिल हैं शहर की सबसे बड़ी ज्वेलरी दुकान के मालिक महेश सर्राफ, गल्ला व्यवसाई पारस बाबू, डा० आर० एन० प्रसाद तथा गरीबों को खून के आंसू रूलाने वाले अधिवक्ता केदार शर्मा जी. ये सभी समाज के ऐसे कोढ़ हैं जिन पर लोग थूकना भी पसंद नहीं करते हैं. प्रत्येक महीने के आखिरी रविवार को इनकी कोठी पर कानपुर, लखनऊ, बनारस अथवा मुजफ्फरपुर की तवायफों का मुजरा हुआ करता है. 

जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है वैसे वैसे थियेटर के मालिक मोहन कुमार मेहता और मैनेजर राजीव उपाध्याय की चिंता बढ़ती जा रही है. वे दोनों मुख्य द्वार पर खड़े मुख्य अतिथि तथा उद्घाटन कर्ता की बड़ी बेताबी से प्रतीक्षा कर रहे हैं. तभी मुख्य द्वार के सामने बाले मैदान में तीन गाड़ियां आकर रूकती है. सबसे आगे की गाड़ी लाल रंग की स्कार्पियो है, जिससे उतरने वाले सज्जन बाबू ज्योतनारायण सिंह उर्फ जीतन बाबू हैं. उनके साथ उतरे दो अंग रक्षक. जीतन बाबू की शान निराली है. ब्रास्लेट धोती, मटका का कुर्ता, रेशम की बण्डी और कंधे पर पश्मीना का चादर. इस लिवास में वे यदि दुल्हा नहीं तो दुल्हा के पिता तो अवश्य ही नजर आ रहे हैं.  अपने हाथ में हाथीदांत की मूठ वाली छड़ी लहराते हुए जमींदारी शान से वे मुख्य द्वार की ओर बढ़े आ रहे रहे हैं.  उनके साथ हमकदम हैं - महेश सर्राफ, पारस बाबू, डाक्टर साहब तथा वकील साहब. जैसे ही वे लोग द्वार पर पहुंचे कि मोहनबाबू तथा राजीव उपाध्याय ने अपने अपने हाथ जोड़ कर उनका अभिवादन किया. द्वारपाल ने द्वार खोल‌ दिया. वे‌ सभी अपनी अपनी छाती फुलाते हुए अंदर दाखिल हुए.

"आप लोगों ने आने में बड़ी देर कर दी सर  ?" मोहन बाबू शिकायती लहजे में बोले.

"कहां देरी हुआ है जी, हमलोग तो एकदम ठीके टाइमवा पर आये हैं." जीतन बाबू अपने चिर-परिचित फुहरपन भरे अंदाज बोले.

"सर देर हो रही है, जल्दी चलिए." राजीव ने मोहन बाबू को टोक दिया.

"हां हां चलो." मोहन बाबू वीआईपी गेट की ओर बढ़ गये. उनके साथ जीतन बाबू भी चल रहे थे. 

"का जी, इस थियेटरवा के मालिक तुम ही हो का?" उसी फुहरपन से पूछा जीतन बाबू ने. उनका यह फुहरपन मोहन बाबू के साथ साथ राजीव उपाध्याय पर  भी नागवार गुजरा.

"जी मैं ही हूं मालिक."

"तुम्हरे थियेटरवा की बाईजी सब कैसी है.?" 

"मैं अपने मुंह से अपने कलाकारों की तारीफ नहीं करता, आप लोग यहां आ चुके हैं, अपनी आंखों से देख लीजिएगा." मोहन बाबू थोड़ा तल्ख स्वर में बोले. उनके तल्ख तेवर का जीतन  बाबू पर कोई असर न हुआ. उल्टा व हो हो करके हंस पड़े. मगर डाक्टर  साहब मोहन बाबू  की नाराज़गी को भांप गये. वे 

जीतन बाबू के कान में फुसफुसाते हुए बोल -

"जीतन बाबू, थियेटर की नर्तकियों को बाईजी मत कहिए, वे सभी कलाकार हैं, उनकी इज्जत कीजिए."

"हो......हो....हो." जीतन बाबू अपनी खींसे निपोड़ कर हंसने लगे -" अरे साहेब, ससुरी हमरी जीववा पर तो काबुए नहीं रहता है." मोहन बाबू समझ गये, ये सभी लोग बिगड़े हुए रईस हैं, दौलत तो है, मगर इज्जत नहीं है. 

 वे सभी तब तक  वीआईपी गैलरी के सामने आ चुके थे. वहां थियेटर की छ: सुन्दर नर्तकियां खड़ी थी. चार के हाथों  में पूजा की थाली थी, जिसमें दीप जल रहे थे. दो नर्तकियों के हाथों में पुष्प मालाएं थी. उन दोनों ने जीतन बाबू  तथा उनके मित्रों को मालाएं पहनाकर स्वागत किया. तथा अन्य नर्तकियों ने उन लोगों की आरती उतारी. जीतन बाबू और उसके सभी दोस्त निहाल हो गये. आजतक इन लोगों का ऐसा मनभावन स्वागत कहीं नहीं हुआ था. जितना बाबू ने जहां मुग्ध होकर नर्तकियों को दो दो हजार की बख्शीश दी, वहीं उनके मित्रों ने भी एक एक हजार देकर अपनी दरियादिली का परिचय दिया. सभी नर्तकियों ने मुस्कुराते हुए उन लोगों का अभिवादन किया. वे सब भी इन रईसों की उदारता पर फुली न समा रही थी. मोहन बाबू ने भी मर न ही मन जीतन बाबू की फुहड़ता को नजरंदाज कर दिया.

"सर, पिता काटकर उद्घाटन कीजिए." राजीव ने कैंची जीतन बाबू की ओर बढ़ाते हुए कहा. जीतन बाबू तो जैसे फुलकर  कुप्पा हो गये. उन्होंने राजीव के हाथ से कैंची झटक कर फटाक से रीवन काट दिया. जीतन बाबू के दोस्तों के साथ साथ मोहन बाबू, राजीव उपाध्याय तथा सभी नर्तकियों ने ताली बजाकर हर्ष प्रकट किया. 

"राजीव, तुम इन लोगों को लेकर भीतर जाओ, मैं बाहर देखता हूं."

"ओ के सर." 

मोहन बाबू बाहर चले गये और राजीव उन लोगों को साथ लेकर वीआईपी गैलरी में घुस गया. गैलरी का ठाठ निराला था. वहां लगभग सौ दर्शकों के बैठने के लिए सोफा लगा था. जीतन बाबू अपने दोस्तों के साथ सबसे आगे के सोफा पर जाकर जम गये. फिर भीड़ का एक ऐसा रेला आया कि पलक झपकते ही वीआईपी गैलरी की सारी सीटें भर गयी.

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क्रमशः........!

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