(मीरा के आदर्श पति तथा पूर्ण पुरुष राणा कुम्भा उर्फ़ भोजराज सिंह सिसौदिया) 


-रामबाबू नीरव

अपनी पत्नी का भगवान श्रीकृष्ण के प्रति ऐसा  सात्विक विश्वास और नेह  देखकर राणा सांगा का उनके प्रति विरक्ति के साथ साथ अनुराग भी बढ़ता  चला गया. उन्हें विश्वास हो गया कि मीरा के लिए श्रीकृष्ण भ्रम नहीं हकीकत हैं. मनुष्य मूलरूप से शरीर, मन (आत्मा) तथा बहुत सारी भावनाओं के परस्पर मिलन से बना है. यही कारण है कि स्त्री अथवा पुरुष अपने शरीर, मन और भावनाओं को समर्पित किए बिना, किसी के प्रति स्वयं को समर्पित नहीं कर सकता है. विवाह का यही अर्थ है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के लिए अपना सर्वस्व (शरीर, मन अर्थात आत्मा तथा भावनाएं) समर्पित कर दे. ईसाई धर्म में महिलाएं नन (साध्वी) बनने से पूर्व जिसस के साथ विवाह करती हैं. नन बनने से पूर्व दीक्षा लेते समय जिसस से "मैरेज" करने की इस परंपरा के पीछे वही पूर्ण रूप से समर्पित हो जाने का भाव ही है. हिन्दू धर्म में भी पाणीग्रहण से पूर्व कुमारी कन्या का किसी भगवान के प्रतिकात्मक चिन्ह से विवाह कराये जाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. इस परंपरा में भी ‌समर्पण यानि निष्ठा का पूर्वाभ्यास कराये जाने का भाव छुपा है. श्रीकृष्ण की आराधिका यानि साध्वी मीरा ने जो अपने आराध्य के साथ विवाह कर लेने की बात जगजाहिर की थी, इसमें उनका वही भाव छुपा है, समर्पण का भाव यानि एकाकार हो जाने का भाव. सात्विक भक्ति की पहचान यही है. भक्त अपने आराध्य देव के साथ किस परिणाम तक समर्पित है? यह भक्ति मार्ग  का प्रथम सोपान है. श्रीकृष्ण के साथ मीरा का विवाह कर लेने का भाव दुनिया के लिए भले ही मीरा का "मतिभ्रम" अथवा "पागलपन" हो, मगर उनके लिए यह यथार्थ था. जब राणा कुम्भा (भोजराज) को अपनी पत्नी के इस यथार्थ, अथवा यूं कहें कि दुनिया की नजरों में "मतिभ्रम" की अनुभूति हुई तब उन्हें अपनी पत्नी के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने में असहजता की अनुभूति होने लगी. भले ही मीरा का शरीर अपने पति के लिए था, परंतु उसकी आत्मा तो अपने आराध्य श्रीकृष्ण को ही समर्पित थी. जो स्त्री मन और वचन से श्रीकृष्ण की हो चुकी हो, ऐसी अवस्था में उसके साथ जबरन एकाकार होने की चेष्टा करना उस स्त्री के प्रति अन्याय ही होता. इसलिए राणा कुम्भा (भोजराज) ने अपनी पत्नी के शरीर का स्पर्श तक न करने की प्रतिज्ञा ले ली. यह महानता  मीरा की नहीं बल्कि भोजराज की थी. ऐसा अनूठा त्याग हर पुरुष नहीं कर सकता. वही कर सकता है जो पुरुषत्व की कसौटी पर खरा उतरने का सामर्थ्य रखता हो, यानि धीर, वीर और गंभीर. जो वासना का नहीं, बल्कि सात्विक प्रेम का पुजारी हो. राणा कुम्भा को मीरा के उस यथार्थ का भी ज्ञान हो चुका था कि सच्ची भक्ति ऐसी शक्ति है, जो भक्त को अपने भगवान से भी बहुत ऊंचा उठा देती है. मीरा उसी श्रेणी की साधिका बन चुकी थी. राणा कुम्भा ने अपनी पत्नी   मीरा से सिर्फ शारीरिक संबंध न बनाने की प्रतिज्ञा ली थी, उन्होंने लोकाचार में एक आदर्श पति धर्म का पूरी निष्ठा पूर्वक निर्वाह किया सिर्फ इतना ही नहीं उन्होंने एक पूर्ण पुरुष होने का भी उदाहरण प्रस्तुत किया. राणा सांगा की दृष्टि में पूर्ण पुरुष वह नहीं है जो किसी भी स्त्री के साथ, चाहे वह अपनी विवाहिता पत्नी हो अथवा परायी नारी, जबरन शारीरिक संबंध स्थापित करे. बल्कि पूर्ण पुरुष वह है जो स्त्रियों  की भावनाओं का आदर करते हुए उसके मान सम्मान की रक्षा करे. 

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मीराबाई के साथ इर्ष्या और विद्वेष का भाव सिर्फ राजकुमारी ऊदाबाई (मीराबाई की ननद) के मन में ही नहीं था, बल्कि मीरा की सासु मां भी उसकी कृष्ण भक्ति से क्षुब्ध थी. मेवाड़ राजघराने की कुलदेवी मां तुलजा भवानी थी, और मेवाड़ की महारानी यानि मीराबाई की सासु मां चाहती थी कि सिसौदिया राजघराने की बड़ी बहू होने के नाते मीराबाई भी अपनी कुलदेवी की ही पूजा अर्चना करे, परंतु मीराबाई ने अपनी कुलदेवी की पूजा अर्चना करने से स्पष्ट शब्दों में अस्वीकार कर दिया. उन दिनों सिसौदिया राजघराने की कुलदेवी को बलि देने की प्रथा थी. और बलि दिये जाने वाले निरीह पशु (बकरे) के मांस को महाप्रसाद के रूप में भक्षण करना आवश्यक माना जाता था. मीराबाई जन्मजात वैष्णव थी, इसलिए उसने इस घृणित और अमानवीय प्रथा (बलि प्रथा) का मुखर रूप से विरोध किया. उसने अपने आराध्य श्रीकृष्ण के अतिरिक्त किसी भी अन्य देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करना स्वीकार नहीं किया. परिणाम यह हुआ कि मेवाड़ राजघराने के सभी राजपुरुषों से लेकर राजमहिषियां तक मीरा की विरोधी हो गई. मीराबाई के विरोध का परचम लहराने में उदाबाई सबसे आगे थी. महाराज सांगा के सात पुत्र थे. ऊदाबाई अब अपने अन्य भाइयों को मीराबाई के विरुद्ध उकसाने लगी. अन्य भाइयों ने तो उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया, हां, भोजराज के सबसे छोटे भाई कुंवर विक्रम सिंह सिसौदिया उसके झांसे में आ गया. कुंवर विक्रम सिंह दुष्ट और क्रूर प्रवृत्ति का तो था ही, अपनी बहन के उकसाये जाने पर उसकी क्रूरता और दुष्टता परवान चढ़ने लगी. परंतु अपनी पत्नी के सामने उसकी ढ़ाल बनकर खड़े हो गए कुंवर भोजराज सिंह सिसौदिया उर्फ़ राणा कुम्भा. विक्रम सिंह भले ही क्रूर और जालिम था, मगर वह अपने बड़े भाई राणा कुम्भा से खौफ खाता था. चूंकि राणा कुम्भा मेवाड़ राज्य के उत्तराधिकारी थे, इसलिए चूं तक करने की विक्रम सिंह की हिम्मत न थी.

   परंतु मीराबाई के साथ साथ मेवाड़ राजघराने का दुर्भाग्य..... अल्पायु में ही दिल्ली के लोधी वंश के विधर्मी सुल्तानों के विरुद्ध युद्ध करते हुए राणा कुम्भा (भोजराज) बुरी तरह से घायल हो गये और अंततः सन् 1521 ई . में उनका स्वर्गवास हो गया. पति के स्वर्गवासी हो जाने के कारण मीराबाई पूर्ण रूप से एकाकी हो गयी. भले ही वह अपने इष्ट देव श्रीकृष्ण के प्रति निष्ठावान और समर्पित थी, परंतु लौकिक रूप से अपने पति के साथ भावात्मक रूप से जुड़ी हुई थी. भावना का वह प्रवाह मीरा की ऑंखों से ऑंसू बनकर फूट पड़ा.

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क्रमशः...........!

(अगले अंक में पढ़ें सामाजिक कुरीतियों एवं सामंतवादी व्यवस्था के प्रति साध्वी मीराबाई का विद्रोह.)

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