धारावाहिक उपन्यास 


 - राम बाबू नीरव

नौटंकी  अथवा थियेटर रंगमंच (स्टेज) पर मंचित होनेवाले नाटक का ही एक रूप है. भारतीय संस्कृति में  नाट्य-साहित्य तथा रंगमंच की अति प्राचीन परंपरा रही है. भारतीय नाट्य-शास्त्र तथा संस्कृत के नाटकों के मूल आचार्य के रूप में भरत मुनि का नाम आता है. आचार्य भरत मुनि ने ही *भरत-नाट्यम्* तथा *भरत-नृत्यम्* की रचना की.  इस परंपरा को महाकवि *कालिदास* ने आगे बढ़ाया. इनके बाद महाकवि भास, भवभूति, शूद्रक, विशाखदत्त, हर्षवर्धन, राजशेखर तथा दिंनाग जैसे उद्भट विद्वानों ने न सिर्फ नाट्य-साहित्य को समृद्ध किया बल्कि रंगमंच को भी शिखर तक पहुंचाया. उस युग के राजा महाराजा साहित्य तथा कला प्रेमी हुआ करते थे. उनके राजमहल में नृत्य शाला के साथ साथ नाट्यशालाएं भी हुआ करती थी. सामंती युग में भी यह परंपरा फलती-फूलती रही. मुस्लिम शासकों तथा मुगल शासकों के काल में इसका स्वरूप बदल गया. नर्तकियां  तवायफ हो गयी  और नृत्यशालाएं बन गया कोठा,. फिर अंग्रेजी हुकूमत के समय अंग्रेजों ने भारत के बड़े बड़े शहरों में "ओपेरा" हाऊस की स्थापना की, वहीं देशी रजवाड़ों  के भी अपनी नाट्यशालाएं हुआ करती थी. ओपेरा हाउसों में वैलै नृत्य के साथ साथ सुप्रसिद्ध यूरोपियन नाटककार शेक्सपीयर के नाटकों का मंचन किया जाता था. नाट्यशालाओं में शास्त्रीय नृत्य के साथ साथ कालीदास, भास, भवभूति, शूद्रक, विशाखदत्त आदि संस्कृत के नाटककारों के नाटकों का मंचन किया जाता था. ग्वालियर के महाराज नियाजी राव सिंधिया तथा झांसी के राजा रघुनाथ राव नाट्य प्रेमी थे और इनके महलों में समृद्ध नाट्यशालाएं थी. उस काल की  अभिनेत्रियों में मोती बाई, जूही बाई, जास्मिन बेगम आदि विख्यात थी. अपने देश से पलायन करके जब पारसी लोग यहां (मुम्बई) आये तब वे अपने साथ साथ "पारसी थियेटर" के रूप में अपनी सभ्यता और संस्कृति भी यहां लेते आये. चूंकि  उनके  पारसी थियेटर के कलाकारों से लेकर दर्शक तक सिर्फ पारसी लोग ही हुआ करते थे, इसलिए उसे पारसी थियेटर के नाम से गया था. उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हिन्दी साहित्य के पुरोधा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी में कई नाटकों की रचना करके एक नई परम्परा की शुरुआत की. इनका सबसे विख्यात नाटक *सत्यवादी  राजा हरिश्चन्द्र* था. अपने इस नाटक का मंचन वे स्वयं गांव गांव में घूम घूमकर खुले मैदान में रंगमंच (स्टेज) बनवाकर किया करते थे. यानी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र प्रथम ऐसे रंगकर्मी हुए जिन्होंने नाटक को बर्जुआ वर्ग (राजा महाराजा) की गिरफ्त से निकाल कर आमलोगों के मनोरंजन हेतु उपलब्ध कराया. उनकी इस परंपरा को उनके भतीजे ने आगे बढ़ाया. उसी दौड़ में महाकवि जयशंकर प्रसाद ने भी नाटकों  की रचना की थी, जिसमें ऐतिहासिक कथानक के साथ- साथ ही स्वाधीनता प्राप्ति का संदेश छुपा हुआ करता था. पारसी थियेटर की अवधि 1860 से लेकर 1930 तक रही. इसके बाद सुप्रसिद्ध रंगमंच तथा फि़ल्मी अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ने लाहौर में "हिन्दी रंगमंच" की स्थापना की. उसी  समय आजादी के बाद देश का बंटवारा हो गया और हमारा देश दो हिस्सों में बंटी गया -"हिन्दुस्तान " और "पाकिस्तान". साहित्य, कला और हिन्दी सिनेमा का गढ़ माना जाने वाला शहर लाहौर पाकिस्तान के हिस्से में जला गया. परिणामस्वरूप अन्य सिनेमा कर्मियों के साथ साथ रंगकर्मी पृथ्वीराज कपूर भी भारत की नवसृजित फिल्म नगरी बम्बई (मुम्बई) में आ गये. यहां आकर उन्होंने पृथ्वी थियेटर की स्थापना की. पारसी थियेटर और पृथ्वी थियेटर साधारण लोगों के लिए नहीं थे. ये अभिजात वर्ग के सुखी सम्पन्न लोगों के मनोरंजन के साधन थे. कुछ खास कला साधकों ने आम आदमी के मनोरंजन हेतु खुले मैदान में रंगमंच स्थापित कर एक नयी परंपरा की शुरुआत की . अभिजात वर्ग के लोगो द्वारा इसे *नौटंकी* का नाम दिया गया. चूंकि यह कलाकारों द्वारा आमलोगों के मनोरंजन हेतु स्थापित किया गया था, इसलिए इसे हेय दृष्टि से देखा जाने लगा. फिर भी नौटंकी के कलाकारों ने जमीन से जुड़े हुए लोगों में अपनी एक अमिट पहचान बना ही ली. यही कारण है कि महंगे प्रेक्षागृहों की अपेक्षा खुले मैदान में पंडाल बनाकर मंचित किये जानेवाले नाटकों में दर्शकों की अप्रत्याशित भीड़ बढ़ती चली गयी. 

नौटंकी में आमलोगों की रूचि का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता था. इसमें संगीत, गीत तथा नृत्य की प्रधानता होती थी. भारतीय पारंपरिक वाद्ययंत्रों जैसे  - ढ़ोल, तबला, मृदंग, सारंगी, झाल, शहनाई, बांसुरी के साथ साथ एक विशेष वाद्ययंत्र नगाड़ा की प्रमुखता हुआ करती थी. नगाड़ा नौटंकी की विशेष पहचान थी. नौटंकी के हास्य कलाकारों द्वारा प्रहसन प्रस्तुत कर दर्शकों को हंसाने की एक विशेष शैली रही है. नौटंकी में प्रस्तुत किये जानेवाले नाटकों के संवाद काव्यात्मक हुआ करते थे, जिसकी भाषा अत्यंत ही सरल तथा आम बोलचाल की हुआ करती थी. इसमें मंचित होनेवाले नाटकों में अधिकांश प्रेम-प्रसंग पर आधारित हुआ करते थे जैसे हीर-रांझा, सोहिनी-महिवाल, लैला-मजनूं, रोमियो-जूलियट आदि. कुछ पौराणिक कथा पर आधारित नाटक भी थे , जैसे राजा हरिश्चन्द्र, श्रवण कुमार, सती अनुसूया आदि. कुछ राष्ट्रप्रेम पर आधारित नाटक थे, जैसे सुल्ताना डाकू, झांसी  की रानी, शहीद भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद आदि. नौटंकी के कलाकारों की ज़िन्दगी खानाबदोशों जैसी हुआ करती थी. आज यहां और कल कहीं और.‽

तीस से लेकर सत्तर तक के दशकों तक नौटंकी का क्रेज सातवें आसमान पर पहुंच चुका था. बाद के दिनो मे नौटंकी को थियेटर कम्पनी के नाम जाना जाने लगा. इस नौटंकी ने पारंपरिक कोठे की तवायफों की कला को एक नया आयाम दिया. कोठे से उतर कर नौटंकी दो और रंगमंच पर आ गयी. 

उन दिनों उत्तर प्रदेश, बिहार, पड़ोसी राष्ट्र नेपाल, प० बंगाल आदि राज्यों की थियेटर कंपनियां मशहूर थी. पचास से सत्तर तक के दशकों में गुलाब बाई थियेटर, विमला बाई थियेटर, कमला बाई थियेटर, जूही बाई थियेटर, सरदार भूपेंद्र भाई थियेटर, मतवाला थियेटर, कल्पना थियेटर आदि की तूती बोला करती थी. मेरी उम्र के लोग इन थियेटर  कंपनियों से अवश्य ही अवगत होंगे. जब हिन्दी सिनेमा प्रगति की राह पर अग्रसर हुआ, तब नौटंकी की शैली भी बदल गयी और इन नौटंकियों में फिल्मी गीतों का धरल्ले से प्रयोग होने लगा. यदि यह कहा जाए कि  साठ से‌ लेकर अस्सी के दशकों के हिन्दी सिनेमा के गीतों को लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचाने में नौटंकी की नर्तकियों तथा गायिकाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, तो शायद गलत‌ न होगा. चूंकि नौटंकी की कार्यशैली पूर्णतः हिन्दी सिनेमा पर आधारित हो चुकी थी, इसलिए जैसे जैसे सिनेमा का मिजाज बदलता चला गया वैसे-वैसे नौटंकी शैली भी बदलती चली गयी. और अस्सी का दशक आते-आते इसमें पूर्णरूपेण अश्लीलता का समावेश होता चला गया. थियेटर की जो गरिमा गुलाब बाई, विमला बाई, कमला बाई, जुही बाई जैसी कला साधिकाओं ने स्थापित की थी, उसे भोजपुरिया नौटंकी की नर्तकियों ने मिट्टी में मिला दिया. भोजपुरिया तथा ेूहरियाणवी नौटंकियों की ओर संभ्रांत परिवार के दर्शक उलट कर झांकना तक मुनासिब नहीं समझते.

नौटंकी की पृष्ठभूमि पर बिहार के आंचलिक कथाकार फणिश्वरनाथ रेणु ने एक कहानी लिखी थी -"मारे गये गुलफाम". उनकी उसी कहानी पर उनके परमप्रिय मित्र गीतकार शैलेन्द्र ने एक फिल्म बनाई थी, जिसका नाम था "तीसरी कसम" इस फिल्म में सुप्रसिद्ध अभिनेता राजकपूर तथा अभिनेत्री वहीदा रहमान ने अपनी अपनी अप्रतिम प्रतिभा से रेणुजी के किरदारों हीरामन तथा हीराबाई को जीवंत कर दिया था.  इस फिल्म को तीन तीन नंन्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया था. इसी तरह की एक फिल्म सुप्रसिद्ध निर्माता निर्देशक ह्वी शान्ताराम की "पिंजरा" थी. इस फिल्म में अभिनेत्री संध्या ने थियेटर की बाईजी की भूमिका निभाई थी और रंगमंच के मजे हुए कलाकार डा० श्रीराम लागू ने एक आदर्शवादी ग्रामीण चिकित्सक की भूमिका निभाई थी.  ग्रामीण चिकित्सक थियेटर की नर्तकी से बेहद नफरत करते हैं, परंतु परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती है कि चिकित्सक महोदय बाईजी के प्रेमजाल में उलझ कर रह जाते हैं. इन दोनों फिल्मों का कथानक निगेटिव यानी नकारात्मक है तथा थियेटर की बाईजी के कैरेक्टर को धूमिल करने वाला है. मैं थियेटर की नर्तकियों के उस कैरेक्टर (चरित्र) को समाज के समक्ष रखना चाहता था, जिस कैरेक्टर से समाज कुछ शिक्षा ग्रहण कर सके. सत्तर के दशक में मैंने गुलाब बाई, जिन्हें नौटंकी की दुनिया में अपनी पहचान बनाने तथा उत्कृष्ट कला के प्रदर्शन हेतु भारत सरकार द्वारा पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया था, का एक साक्षात्कार धर्मयुग पत्रिका में पढ़ा. यह साक्षात्कार धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती ने स्वयं लिया था. साक्षात्कार में मोहतरमा गुलाब बाई ने अपने संघर्ष से लेकर अपने छोटे भाई को आईएएस अधिकारी बनाने तक की कहानी का जिक्र किया था. गुलाब बाई के संघर्ष और उनकी जिवटता ने मुझे काफी प्रभावित किया. बस क्या था, मैं उसी कैरेक्टर के ताने-बाने बुनने लगा. मेरे इस उपन्यास  में जहां गुलाब बाई के कैरेक्टर को *हुस्नबानो* ने जीवंत किया है वहीं ओन विमला बाई के कैरेक्टर को *कंचन लता* में देखा जा सकता है. मेरी सोच हमेशा सकारात्मक रही है. मेरी कहानियों, नाटकों अथवा उपन्यासों में मेरी इस सोच को शिद्दत से महसूस किया जा सकता है. मेरे इस उपन्यास को पढ़कर आप बताएं कि मेरी सोच सही है या ग़लत.

                      आपका ही -

                    रामबाबू नीरव 

                     ∆∆∆∆∆∆

(अगले अंक से पढ़ें धारावाहिक उपन्यास *हुस्नबानो*)

0 comments:

Post a Comment

 
Top