धारावाहिक उपन्यास

- राम बाबू नीरव 


शाम ढल चुकी थी, परंतु सूर्यास्त में अभी देर थी. बुआ जी अभी तक लखनऊ से लौटी न थी. हॉल के एक सोफे पर अधलेटी सी संध्या  बड़ी विकलता से उनकी प्रतीक्षा करते करते  सो गयी. उसकी ऑंख  लगने  के कुछ ही देर बाद शारदा देवी ने हॉल में कदम रखा. वे संध्या को जगाती हुई स्नेहिल स्वर में बोली- "संध्या.... बेटी, देखो तो कौन आए हैं?" उनकी आवाज सुनकर संध्या हड़बड़ा कर उठ बैठी और अपनी पलकें  झपकाती हुई बुआ जी के साथ आने वाले सज्जन को देखने लगी. उक्त सज्जन पर जैसे ही उसकी दृष्टि पड़ी वह बेतहाशा चौंक कर सोफे पर से उछल कर खड़ी हो गयी. और विस्फारित नेत्रों से उन्हें घूरने लगी. उक्त सज्जन भी उसे ऐसे देखने लगे जैसे उन्होंने कोई अजुबा देख लिया हो. उनके ओंठ खुले और उनके मुंह से अभी सिर्फ "श्वेत....." ही निकल पाया था कि संध्या बड़ी स्फूर्ति के साथ ऑंखों से इशारा करती हुई उन्हें रोक दी. उसका इशारा शारदा देवी नहीं देख पायी, मगर वे सज्जन उसकी ऑंखों का इशारा समझ गये और उन्होंने मौन धारण कर लिया. अब संध्या शारदा देवी की ओर साभिप्राय देखने लगी और बिल्कुल  अंजान बनती हुई पूछ बैठी -"ये कौन हैं बुआ जी.?"

"ये भारत के विख्यात कहानीकार श्री उपेन्द्रनाथ अवस्थी जी हैं."

"ओह..... नमस्ते, मैंने आपका नाम तो सुन रखा है. आपकी कुछ कहानियां भी पढ़ चुकी हूं मैं. बैठिये न आप खड़े क्यों हैं." बड़ी ही विनम्रता और शालीनता का परिचय दिया संध्या ने. अवस्थी  जी अवाक थे. उन्हें विश्वास ही न हो रहा था कि उनके समक्ष श्वेता ही खड़ी है. उन्हें मौन देखकर संध्या पुन: चहकती हुई आग्रह करने लगी -

"गुरुजी, बैठिये न." इस बार वे संध्या  के आग्रह को टाल न पाए और सोफा  पर बैठ गये, परंतु वे अब भी सहज नहीं हो पाये थे. शारदा देवी भी उन दोनों के हाव भाव को देखकर चकित थी. उन्होंने संध्या से विस्मय से पूछा -

"संध्या, क्या तुम इनसे पहले भी मिल चुकी हो?"

"न... नहीं तो...!"  संध्या सफेद झूठ बोलकर मुस्कुराने लगी.

"तो फिर इन्हें गुरुजी.....!"

"क्यों इतने बड़े साहित्यकार को अपना गुरु मानना गलत है क्या.?" अपने ऑंखों की पुतलियां नचाती हुई बोली संध्या.

"नहीं.... नहीं, बिल्कुल ग़लत नहीं है. अच्छा ऐसा करो तुम  इनसे बातें करो, मैं तब-तक फ्रेस होकर आ रही हूं और हां शान्ति के हाथ से नाश्ता भी भेजवा रही हूं."

"ठीक है बुआ जी." संध्या  यही तो चाहती थी. शारदा देवी चली गयी. उनके जाते ही संध्या अवस्थी जी के कदमों में झुक गयी.

"अरे रे, यह क्या कर रही हो?"

"शिष्या का कर्तव्य निभा रही हूं. उस समय बुआ जी थी और आपको अचानक देखकर मैं नर्वस भी हो चुकी थी, इसलिए औपचारिकता नहीं निभा पाई.... क्षमा करें गुरु जी."

"ओह....तुम अद्भुत हो श्वेता."

 "गुरु जी, मैं अब श्वेता नहीं, बल्कि संध्या हूं."

"परंतु तुम यहां तक पहुंची कैसे?"

"बहुत लम्बी कहानी है. बस इतना ही समझ लीजिए कि ईश्वर की कृपा से ही मैं यहां तक पहुंची हूं."

"ओह....! मैं तुम से कुछ बातें करने के लिए कुंवर वीरेंद्र सिंह जी के साथ गुलाब बाई के कोठे पर गया था. मगर जब तुम वहां न मिली तो मुझे बड़ी निराशा हुई."

"मेरी मां कैसी है?" संध्या ने व्यग्र भाव से पूछा.

"तुम्हारे वियोग में तड़प रही है. तुम उस बदनाम मुहल्ले से भाग आयी, अच्छा किया. वह कोठा तुम्हारे लायक नहीं था."

"गुरुजी, मैं वहां से भागी नहीं थी, बल्कि मेरा अपहरण हुआ था."

"हां, तुम्हारी मां ने बताया था, मगर तुम्हारा अपहरण करवाया किसने था?"

"धनंजय ने.!"

"क्या.....?" अवस्थी जी अवाक रह गये सच्चाई जानकर.

उन्हें  विश्वास ही न हुआ कि धनंजय जैसा लड़का ऐसा दुस्साहस भी कर सकता है.

"फिर तुम शारदा बहन के पास कैसे पहुंच गयी.?" अवस्थी जी की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. संध्या को लगा इन्हें पूरी कहानी सच सच बता देनी चाहिए. फिर उसने इमामबाड़ा की घटना से लेकर धनंजय के रंगमहल में  पहुंचने और उसकी नौकरानी रुपा तथा उसके पति की कृपा से रंग महल से भागने  और शारदा देवी की गाड़ी से टकराने तथा इस फार्म हाउस में आने तक की पूरी दास्तान उन्हें सुना दी. उसकी कहानी सुनकर अवस्थी जी हैरान रह गये. 

"जानती हो श्वेता...."

"गुरुजी प्लीज मुझे इस नाम से मत पुकारिए. यह नाम एक तवायफ की बेटी का था, अब मैं तवायफ की जिन्दगी जीना नहीं चाहती. साथ ही एक और विनती है आपसे मेरी इस सच्चाई किसी को भी भूल कर भी मत  बताइएगा."

"किसी को भी नहीं बताऊंगा, यहां तक कि तुम्हारी मां गुलाब बाई को भी नहीं कि अभी तुम कहां हो. "

"धन्यवाद गुरु जी यह आपका मुझ पर बहुत बड़ा उपकार होगा."

"संध्या, मैंने सैकड़ों कहानियां दर्जनों उपन्यास लिखे हैं, मगर आज तक तुम जैसी नायिका मुझे नहीं मिली. इसके साथ ही किसी तवायफ की जिन्दगी पर कुछ भी नहीं लिखा. अब पहली बार तुम्हारे ऊपर एक उपन्यास लिखने जा रहा हूं."

"मेरे ऊपर उपन्यास...?" संध्या चकित  भाव से अवस्थी जी की ओर देखने लगी. 

"हां तुम्हारे ऊपर. एक तवायफ की बेटी होती हुई भी तुम आधुनिक युवतियों से बिल्कुल अलग-थलग हो. मैं पहले ही कह चुका हूं कि अद्भुत हो."

"लेकिन गुरुजी मेरी कहानी तो अभी शुरुआती दौर में ही है." संध्या हंस पड़ी. 

"तुम्हारी कहानी को क्लाइमेक्स तक मैं पहुंचाऊंगा."

"क्या मेरी जिंदगी को नकारात्मक दिशा की ओर ले जाने का विचार है आपका?" संध्या ने व्यंग्य किया.

"नहीं, कतई नहीं. तुम्हारे चरित्र को मैं कुंदन की तरह निखारना चाहता हूं और उसी रूप में तुम्हें देखना भी चाहता हूं."

"सच गुरु जी." संध्या की ऑंखों में चमक आ गयी.

"हां बिल्कुल सच."

"गुरुजी, यदि आप मुझे कुंदन बनाना चाहते हैं तो, एक कृपा और कीजिए.?" संध्या अवस्थी जी की ओर मुग्ध भाव से देखने लगी.

"हां बोलो....!

" मेरे साथ साथ मेरी सहेली शबाना का भी उद्धार कर दीजिए."

"मैंने उसे इस बात का इशारा कर दिया है कि मैं उसे अपनी अर्द्धांगिनी बनाना चाहता हूं. मगर मैं उसे गुलाब बाई के कोठे हूं भगाकर  नहीं ले जाऊंगा. बल्कि गुलाब बाई से मांग कर लें जाऊंगा."

"ऐसी ग़लती मत कीजिएगा, क्योंकि अम्मा इसके लिए कभी राजी न होंगी."

"तुम चिंता न करो, उन्हें राजी कराने  का दायित्व मेरा है."

तभी शांति और माधव तरह तरह के पकवान लेकर वहां आ गये और डाइनिंग टेबल पर सजाने लगे. शान्ति तिरछी नजरों से अवस्थी जी को देखती जा रही थी. संध्या सोफा पर से उठती हुई बोली -

"आइए गुरु जी." 

"मगर, अभी कुछ भी खाने की मेरी इच्छा नहीं है."

"वाह, ऐसा कैसे होगा. आपने सुना नहीं बुआ जी ने क्या कहा था."

"लेकिन....!"

"अब लेकिन उकिन कुछ नहीं, चलिए उठिए." संध्या उनकी कलाई पकड़ पर जबरन उठा दी. उसकी इस हरकत को देख कर अवस्थी जी के साथ साथ शान्ति भी हैरान रह गयी. वह अपने मन में सोचने लगी -"आखिर ये सज्जन हैं कौन जिनके साथ संध्या ऐसा बिंदास व्यवहार कर रही है?" उसी समय शारदा देवी भी आ गयी. 

"भैया अभी तक आपने नाश्ता भी नहीं किया." अवस्थी जी के बगल वाली कुर्सी पर बैठती हुई शारदा देवी ने पूछा. 

"हे मेरे रामजी." शान्ति तपाक से हंसती हुई अपने अंदाज में बोल पड़ी -"अभी तो मैं नाश्ता लेकर आयी ही हूं, फिर ये कर कैसे लेंगे.?" उसके परिहास पर सभी हंस पड़े. 

"बुआ जी, आपने गुरु जी को भैया कहा, लेकिन ये तो आपसे उम्र में काफी छोटे हैं."

"तो क्या हुआ, छोटे भाई को भी तो भैया कह कर पुकारा जाता है. आज कॉलेज के फंक्शन में इन्हें सम्मानित करने का सौभाग्य मुझे मिला. उस समय इन्होंने मुझे दीदी कहकर पुकारा था तब मुझे गर्व महसूस हुआ कि देश के एक प्रतिष्ठित साहित्यकार की मैं दीदी हूं."

"ऐसा मत कहिए दीदी, आपके हाथों मुझे सम्मानित होने का गौरव मिला है, इसलिए मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूं."

"बुआ जी, जब ये आपके भैया हैं तब तो मेरे मामा जी हो गये." अपनी ही बात पर संध्या खिलखिला कर हंस पड़ी.

"अब तुम अपने गुरु जी को मामाजी बना रही हो, यह तो और भी अच्छी बात है." संध्या के गाल पर प्यार भरा चपत लगाती हुई शारदा देवी बोली और ठहाका लगा कर हंस पड़ी. 

हल्का-सा नाश्ता करके अवस्थी जी उठ गये -

"दीदी अब मुझे आज्ञा दीजिए."

"भैया ऐसा कैसे होगा, चाय तो....!"

"क्षमा कीजिए दीदी मैं चाय नहीं पीता."

"तो ठीक है, माधव." 

"जी बुआ जी " माधव शारदा देवी के सामने आकर खड़ा हो गया. 

"इनको साथ लेकर जाओ. गोपाल बाहर गाड़ी में होगा, उसे बोल‌ देना ये जहां कहें, इन्हें छोड़ देगा."

"जी बुआ जी."

"बुआ जी, माधव भैया के बदले मैं चली जाती हूं न." तभी माधव को रोकती हुई संध्या बोल पड़ी.

"ठीक है, जाओ." संध्या प्रसन्नता से झूम उठी और अवस्थी जी के साथ तेजी से बाहर निकल गयी.

बाहर गाड़ी में बैठा गोपाल शायद अवस्थी जी की ही प्रतीक्षा कर रहा था. उनको देखते ही उसने झटसे गाड़ी का दरवाजा खोल दिया.

"गुरुजी, मेरी बातें भूल मत जाइएगा." अवस्थी जी का चरण स्पर्श करती हुई संध्या बोली.

"कैसे भूल जाऊंगा. तुम न सिर्फ मेरे उपन्यास की नायिका हो, बल्कि मेरी प्रेरणा भी हो. तुम सदा खुश रहो, ईश्वर से मेरी यही कामना है." 

"धन्यवाद गुरुजी." गाड़ी चल पड़ी और संध्या देर तक अपना हाथ हिलाती हुई अवस्थी जी को विदा करती रही. आज अवस्थी जी से मिलने के पश्चात उसे ऐसा लगा जैसे सारे जहान की खुशियां मिली गयी हो.

          ∆∆∆∆∆

क्रमशः........!

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