धारावाहिक उपन्यास 

 

-राम बाबू नीरव 

दोपहर का समय था फिर भी ठंड काफी थी. प्रातः काल से ही घने कोहरे के कारण भगवान भास्कर का दर्शन नहीं हो पाया था. शबाना अन्य नर्तकियों के साथ लिहाफ में दुबकी हुई अपने  आरामगाह में सो रही थी. गुलाब बाई भी ऊपर अपने कमरे में सोई थी. 

"शबाना." एक जानी पहचानी आवाज सुनकर शबाना नींद उचट गई और वह बेतहाशा चौंक पड़ी. 

"शबाना.....!" दूसरी बार आयी इस आवाज को सुनकर उसने अंदाज लगाया -

"कहीं  अवस्थी जी तो नहीं आए हैं.?"  इसके साथ  ही. वह लिहाफ से निकली और एक चादर ओढ़ कर आरामगाह से बाहर आ गयी. उसकी आशंका सच साबित हुई - हॉल में अवस्थीजी ही खड़े थे. ठंड से बचने के लिए उन्होंने भी एक ऊनी साल ओढ़ रखा था. उनका चेहरा एक अप्रतिम आभा से दमक रहा था. ऐसी अद्भुत आभा शबाना उनके चेहरे पर आज तक नहीं देखी थी. कुछ पल किंकर्तव्यविमूढ़ की सी हालत में खड़ी वह एकटक अवस्थी जी को निहारती रही फिर अदब के साथ उन्हें कोर्निश करती हुई बोली -"आपका स्वागत है हुजूर. आइए तशरीफ़ रखिए."

"शबाना, इस ठंडी दोपहरी में मैं मुजरा सुनने नहीं आया हूं, बल्कि अम्मा से तुम्हारा हाथ मांगने आया हूं."

"क्या.....!" शबाना एकदम से चिंहुक पड़ी. कहीं यह सपना तो नहीं हैं.

"हां शबाना, कई वर्षों की मेरी तपस्या आज पूर्ण हो चुकी है, इसलिए मैंने सोचा कि इसी सुअवसर पर तुम्हें अपनी जीवन संगिनी क्यों न बना लूं.!" तब-तक अन्य लड़कियां भी जग चुकी थी और वे सभी हॉल में आकर शबाना के पीछे खड़ी हो गयी. अवस्थीजी की अंतिम बात वे सभी सुन चुकी थी. यह जानकर वे सभी खुश थी कि अवस्थीजी जैसे सज्जन पुरुष शबाना को अपनी जीवन संगिनी बनाने जा रहे हैं, मगर दूसरी ओर शबाना से बिछड़ने का दु:ख भी उन्हें व्यथित करने लगा था. शबाना की खामोशी को देखकर अवस्थी जी व्यथित हो गये, कहीं शबाना इंकार न कर दे इस आशंका ने उन्हें बेचैन कर दिया -

"तुम चुप क्यों हो शबाना, क्या मेरा प्रस्ताव तुम्हें मंजूर नहीं.?" 

"नहीं ऐसी बात नहीं है मेरे सरताज." अपनी  आंतरिक संवेदना को दबाती हुई बोली शबाना -"परंतु मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं अपने सौभाग्य पर हंसू कि दुर्भाग्य पर रोऊं."

"यह कैसी बातें कर रही हो शबाना तुम.?" अवस्थी जी थोड़ा असहज हो गये -"क्या तुम इस कोठे से आजाद होना नहीं चाहती.?"

"चाहती हूं, दिल से चाहती हूं." शबाना अपने  दिल के दर्द को बयां करती हुई बोली -"मगर मैं यह नहीं चाहती कि मेरे कारण आपके ऊपर कोई आंच आए. आप एक सज्जन पुरुष हैं, आदर्शवादी लेखक हैं, समाज में आपकी प्रतिष्ठा है, मगर मैं क्या हूं....! एक तवायफ. नाचने-गाने वाली एक बाई जी. समाज के तथाकथित शरीफ लोग आपके ऊपर कीचड़ उछालने लगेंगे. इसलिए मैं....?" आगे शबाना कुछ बोल न पायी, उसका गला अवरुद्ध हो गया.

"अभी अभी तुमने कहा है कि मैं एक आदर्शवादी लेखक हूं. मैं तुम्हें बता दूं कि मेरा आदर्श सिर्फ मेरी लेखनी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि कर्म से भी मैं आदर्शवादी हूं. तुमसे विवाह करने के बाद समाज मुझे क्या कहेगा और क्या नहीं, मुझे इसकी फिक्र नहीं है."

"लेकिन मुझे है." इस आवाज को सुनकर अवस्थी जी और शबाना के साथ साथ अन्य सभी लड़कियां भी चौंक पड़ी. शबाना ने पीछे पलट कर देखा गुलाब बाई खड़ी थी.

"अम्मा आप....!" शबाना के साथ साथ अवस्थी जी के मुंह से भी बेतहाशा निकल पड़ा. गुलाब बाई अवस्थी जी के सामने आकर खड़ी हो गयी.

"तुमने मुझे अम्मा कहा है इसलिए मैं भी तुम्हें बेटा मानती हुई तुम से विनती कर रही हूं. मैं अपनी एक बेटी खो चुकी हूं, मेरी दूसरी बेटी मुझसे मत छीनो." गुलाब बाई की आंखों में आंसू झिलमिलाने लगे.

"अम्मा आप ग़लत मत समझिए, मैं आपसे आपकी बेटी छीनने नहीं आया हूं, बल्कि किसी अहिल्या का उद्धार करने आया हूं." अवस्थी जी ने विनम्रतापूर्वक कहा.

"ये सब बकवास है. मैं  सारे मर्दों की फितरत को अच्छी तरह से समझती हूं. देखो बेटा मुझ पर दया करो और शबाना बेटी को मुझसे जुदा मत करो."

"गुलाब बाई." इस तीसरी आवाज को सुनकर गुलाब बाई और शबाना के साथ साथ अन्य लड़कियां भी उछल पड़ी. अवस्थी जी के पीछे कुंवर वीरेंद्र सिंह खड़े थे. वे थोड़ा उत्तेजित नजर आ रहे थे -"तुम्हें कितनी दौलत चाहिए बोलो, मैं देने के लिए तैयार हूं. मगर अवस्थी को निराश मत करो. जिस तरह से शबाना तुम्हारी बेटी है, उसी तरह से अवस्थी भी मेरा बेटा है. यह समाज  में एक मिसाल कायम करना चाहता है और तुम सिर्फ और सिर्फ दौलत के लिए किसी के सपने को कुचल देना चाहती हो." राजा जी का आक्रोशित चेहरा देखकर कुछ देर के लिए गुलाब बाई सकपका गयी फिर खुद को संभाल कर शान्त स्वर में बोली -

"हुजूर, आपकी तरह एक और दौलतमंद आए थे मेरे पास, मुझसे मेरी बेटी का सौदा करने, मगर मैं दौलत की भूखी नहीं हूं. बेशक मैं तवायफ हूं मगर बेगैरत नहीं. अगर बेचने पर आ जाऊं तो इन तमाम लड़कियों को बेच दूं और दौलत की ढ़ेर पर बैठ जाऊं. मैं एक बेटी को खो चुकी हूं हुजूर मेरी दूसरी बेटी को मत छीनिए."

"हमलोग, तुम्हारी शबाना बेटी को तुम से छीनने नहीं आए हैं गुलाब बाई बल्कि मांगने आए हैं. क्या तुम नहीं चाहती कि तुम्हारी इस बेटी की जिन्दगी संवर जाए." इस बार कुंवर जी संजिदा होते हुए बोले.

"बचपन से मैंने शबाना को पाला है हुजूर, इसे कभी मैंने गैर नहीं समझा. इसने भी मुझे अम्मा समझकर मुझे मान सम्मान दिया. एक बेटी तो मुझे छोड़ कर चली गयी, अब इसे अपने से जुदा कैसे कर दूं.?" गुलाब बाई की आंखों से आंसू बहने लगे.

"वैसे ही कर दो, जैसे मां-बाप बेटियों को विदा कर देते हैं. एक भलाई का काम कर लो गुलाब बाई. आज के युग में उपेन्द्र नाथ अवस्थी जैसा युवक कहां मिलता है. भगवान ने इससे इसका पूरा परिवार छीन लिया, फिर भी यह विचलित नहीं हुआ. जितनी इसे शबाना की जरूरत है, उतनी ही शबाना को भी इसकी जरूरत है. जरा इन दोनों की आंखों में झांक कर देखो गुलाब बाई, एक दूसरे के लिए कैसी तड़प है." कहते कहते राजाजी इतने भावुक हो गये कि उनकी पलकें भींग गयी.

अब सब की नजरें गुलाब बाई पर जाकर स्थिर हो गयी. कुछ पल वहां तीखी खामोशी छाई रही फिर इस खामोशी को भंग करती हुई गुलाब बाई की आवाज उभरी -

"जाओ बेटी अपनी नयी दुनिया बसा लो. अब मेरा क्या है, अपनी जिन्दगी जी चुकी हूं. कुछ दिनों तक और इंतजार कर लेती हूं, श्वेता अगर आ गयी तो ठीक, वरना मैं संन्यास लेकर साध्वी बन जाऊंगी."

", नहीं अम्मा ऐसा मत कहो" शबाना बेतहाशा गुलाब से लिपट गयी. उसकी आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. गुलाब बाई भी रोने लगी. फिर 

शबाना बारी बारी से अपनी सभी सहेलियों से विदा लेकर अवस्थी जी के सामने खड़ी हो गयी.

"रूको बेटी." गुलाब बाई उसकी कलाई थामती हुई बोली -

"अपनी मां के घर से ऐसे ही चली जाओगी." फिर वह अवस्थी जी और राजा जी की ओर देखती हुई विनम्रता  से बोली -"आप लोग  तनिक देर रूक जाइए शबाना को लेकर थोड़ी देर में मैं आ जाती हूं." शबाना को खींचती हुई वह सीढ़ियों की ओर बढ़ गयी. तभी राजा जी की आवाज उसके कानों में पड़ी -

"गुलाब बाई अपनी बेटी का कन्यादान तुम्हें ही करना है, इसलिए तुम भी तैयार होकर आना.

"जी, हुजूर."

गुलाब बाई ने नर्गिस को अपने साथ चलने का इशारा कर दिया. नर्गिस भी उनके पीछे-पीछे चल दी.

उन तीनों के जाने के बाद कुंवर साहब उपेन्द्र नाथ अवस्थी से बोले -

"बेटा, मैं तब तक नीचे गाड़ी में बैठता हूं तुम गुलाब बाई और शबाना को लेकर आ जाओ."

"जी पिताजी"

राजाजी नीचे वाली सीढ़ी की ओर बढ़ गये. 

कुछ देर बाद जब शबाना गुलाब बाई के साथ नीचे आयी तब वह दुल्हन लग रही थी. अवस्थी जी की आंखें चौंधिया गयी.

"क्या अब हमलोग नीचे चलें?" अवस्थी जी ने गुलाब बाई की ओर देखते हुए पूछा.

"हां....!" संक्षिप्त सा उत्तर देकर वे दोनों अवस्थी जी के साथ नीचे वाली सीढ़ी की ओर बढ़ गयी.

                *****

गाड़ी के आगे की सीट पर कुंवर वीरेंद्र सिंह बैठे थे. उपेन्द्रनाथ अवस्थी शबाना और गुलाब बाई के साथ पीछे की सीट पर बैठ गये.

गाड़ी स्टार्ट करते हुए ड्राइवर ने पूछा -"कहां चलूं हुजूर.?"

"चन्द्रिका देवी मंदिर, कठबाड़ा चलो." कुंवर जी ने कहा.

"ठीक है." गाड़ी शहर से निकल कर गोमती के किनारे किनारे कठबाड़ा की ओर दौड़ने लगी.

देवी चन्द्रिका के मंदिर में राजा जी ने उन दोनों के विवाह की पूरी व्यवस्था कर रखी थी. उन्होंने अपने कुछ परिचितों को भी आमंत्रित किया था. जहां दुल्हे के पिता की भूमिका कुंवर साहब निभा रहे थे, वहीं दुल्हन की मां गुलाब बाई थी. यह अनोखा विवाह समाज के लिए एक संदेश था. कुंवर साहब ने इस आदर्श विवाह को पूरी दुनिया में फ्लैश करने के लिए इलेक्ट्रीक मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक को आमंत्रित किया था. पूरे विधि-विधान के साथ विवाह सम्पन्न हुआ. इस सुअवसर पर राजाजी की ओर एक छोटी सी पार्टी का भी आयोजन किया गया था। सब कुछ करते-करते रात्रि के दस बज गये. तभी अवस्थी जी का मोबाइल बजने लगा. कुछ देर तक मोबाइल पर बातें करने के पश्चात अवस्थी जी कुंवर साहब से बोले - 

"पिता जी, मुझे शबाना और अम्मा को लेकर एक  एक जगह जाना होगा."

"इतनी रात को कहां जाओगे.?" राजाजी ने चकित भाव से पूछा 

"मैंने आप को बताया था न कि मेरी एक मुंह बोली बहन है. उन्हीं का फोन आया था, वहीं जाना है."

"ठीक है, तुम यहीं गाड़ी लेकर चले जाओ."

"जी....!"  

अवस्थी जी और शबाना कुंवर साहब का आशीर्वाद लेकर गुलाब बाई के साथ गाड़ी में बैठ गये. अब गाड़ी शारदा देवी के फार्म हाउस की ओर भागी जा रही थी.

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क्रमशः...........!

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