धारावाहिक उपन्यास
- राम बाबू नीरव
गुलाब बाई के कोठे से निराश और हताश होकर फार्महाउस में आने के बाद, संध्या के वियोग में राजीव पूर्णरूपेण देवदास बन चुका था. गोपाल के द्वारा उसने जबरदस्ती शराब की बोतलें मंगवा ली और अपने कमरे में कैद होकर शराब में डूबता चला गया. न तो उसे शेव करने की फ़िक्र थी न ही कपड़े बदलने की चिंता. उसकी भूख और प्यास तो जैसे मर ही चुकी थी. शराब के नशे में धुत, संध्या की तस्वीर को सीने से चिपकाए कभी वह हंसता तो कभी रोता. कभी कभी तो वह पूरे फार्म हाउस में पागल की तरह दौड़ते हुए "संध्या....संध्या" चिल्लाने लगता. उसकी इस दारुण व्यथा को देखकर शारदा देवी और शान्ति का कलेजा फटने लगता. राजीव की इस हालत की जिम्मेदार शारदा देवी स्वयं को मानने लगी थी. यदि उस दिन उन्होंने प्रभा देवी के जुल्म का प्रतिकार किया होता तो आज यह नौबत न आती. बर्बादी की तरफ बढ़ते जा रहे उसके कदम को रोकने की हिम्मत शारदा देवी में न थी. इसे सिर्फ संध्या ही संभाल सकती थी, मगर संध्या है कहां.? शारदा देवी गोपाल और दीपक के साथ लखनऊ शहर का चप्पा-चप्पा छान चुकी थी, यहां तक कि तवायफों के कोठों का भी वे चक्कर लगा चुकी थी, मगर पता नहीं उसे आसमान खा गया याकि धरती निगल गई, कहीं भी उसका सुराग न मिला. जो हालत शारदा देवी की हो रही थी लगभग वही हालत शान्ति की भी थी. उसने भी नहीं सोचा था कि संध्या के यहां से जाने के बाद ऐसी आफत आ जाएगी. उस दिन संध्या की सच्चाई जानने के बाद अन्य लोगों की तरह उसे भी गुस्सा तो आया था, परंतु जब एकांत में उसे संध्या के साथ बीताए गए पलों की स्मृति हुई तब वह व्याकुल हो उठी थी. भले ही संध्या एक तवायफ की बेटी थी, मगर उसमें जो अच्छे गुण थे, वैसे गुण क्या किसी बड़े घर की बहू बेटियों में हो सकते हैं. खुद सेठ जी की बेटी कितनी नकचढ़ी है.? अपने बाप के सामने भी सीना तान कर खड़ी रहती है. दुपट्टा और आंचल किस चिड़िया का नाम है, यह तो वह जानती ही नहीं. मगर संध्या तो शान्ति के पति माधव के सामने भी अपने सर पर से आंचल नहीं हटने देती थी. ऐसी सुलक्षणा के साथ इन लोगों ने कितना भारी अन्याय कर दिया. इस सब का जिम्मेदार सेठ जी का आवारा बेटा धनंजय है. उसी पापी ने देवी जैसी संध्या को यहां से निकलवाया है. उसके खुद का चरित्र कैसा है. रंडीबाज वह है शराबी वह है, और बदनाम उसने संध्या को करवाया. कीड़े पड़ेंगे उस नाशपीटे के मुंह में. शान्ति हजारों गालियां धनंजय को देने लगी. जैसे राजीव अपनी संध्या के वियोग में तड़प रहा था, ठीक उसी भांति शान भी तड़प रही थी. दीपक, माधव, गोपाल तथा अन्य लोगों को अब एहसास हुआ कि संध्या क्या चीज़ थी. उसके जाने के बाद यहां ऐसी वीरानी छा गयी कि इस वसंत ऋतु में भी यहां का मौसम पतझड़ जैसा हो गया. कलियां फूल बनने से पहले ही मुरझाने लगी. पेड़ पौधों की हरियाली गायब हो गयी. मजदूरों के वे बच्चें जिन्हें संध्या लोरियां गा गाकर हंसाया करती थी वे बच्चे अब एकांत में बैठकर आंसू बहाया करते हैं.
कई दिनों से राजीव ने भोजन नहीं किया था. शारदा देवी स्वयं उसके कमरे में भोजन लेकर गयीं, मगर रोती-बिलखती हुई वापस आ गयी. शान्ति तथा अन्य नौकर भी प्रयास कर करके थक गये, मगर कोई फायदा न हुआ.
एक दिन सेठ द्वारिका दास अपने मित्र डा०
के० एन० गुप्ता के साथ फार्म हाउस पहुंचे और अपने बेटे की हालत देखकर तड़प उठे. जब उन्हें यह बताया गया कि राजीव ने तीन दिनों से मुंह में एक दाना भी नहीं रखा है तब वे किसी मासूम बच्चे की भांति फूट फूटकर रोने लगे. शारदा देवी से उनकी यह हालत देखी न गयी. अपने मुंह में आंचल ठूंस कर रोती हुई नीचे चली गयी. डा० के० एन० गुप्ता अपने मित्र पर फब्ती कसते हुए बोले -"क्यों मगरमच्छी ऑंसू बहा रहे हो डी. के. जिस दिन तुम लोगों ने संध्या बेटी को इस हवेली से निकाला था, तब नहीं सोचा था कि उसके वियोग में तुम्हारे बेटे का क्या हाल होगा? यह कितने शर्म की बात है डी. के. कि जिस लड़की ने तुम्हारे बेटे की जिन्दगी वापस लाने के लिए अपनी जान तक की बाजी लगा दी, उसके साथ तुम लोगों ने ऐसा सलूक किया."
"गुप्ता, उस लड़की ने भी तो अपनी सच्चाई छुपाकर हमारे साथ धोखा किया.!"
"कौन कहता है कि उसने धोखा किया. उस लड़की ने मुझसे अपनी सारी सच्चाई बता दी थी."
"क्या....तुम उसके बारे में जानते थे.?" सेठ द्वारिका दास हैरत से डा० गुप्ता को घूरने लगे.
"हां, सब कुछ जानता था मैं."
"तो फिर तुमने मुझे बताया क्यों नहीं."
"श्वेता ने मुझे कसम दे दी थी कि जब तक राजीव बाबू ठीक नहीं हो जाते, मेरी सच्चाई किसी को भी न बताएं. एक दो दिनों में मैं, तुम लोगों को सबकुछ बताने ही वाला था, तभी तुम लोगों ने यह कांड कर दिया.!"
"ओफ् हे भगवान यह कैसा पाप हो गया मुझसे. अब मैं क्या करूं गुप्ता." अपने बाल नोंचते हुए सेठ जी फिर से रोने लगे. इस बार डा० गुप्ता ने कुछ देर उन्हें रोने दिया. वहां उन दोनों के अलावा एक शख्स और था, जो छुप छुपाकर राजीव के कमरे से निकल कर एक पाए की ओट में छुप गया और उन दोनों की बातें सुनने लगा. उस शख्स ने अपने चेहरे को नक़ाब से ढंक रखा था. कुछ देर बाद गुप्ता जी द्वारिका दास को धीरज बंधाते हुए बोले -"तुम्हारे बेटे को अब दुनिया का कोई भी डाक्टर नहीं बचा सकता, यदि बचा सकती है तो सिर्फ संध्या."
"मगर गुप्ता संध्या मिलेगी कहां.?" हताश स्वर में पूछा सेठ द्वारिका दास ने.
"वहीं मिलेगी जहां से वह आई थी."
"मतलब.?"
"मतलब गुलाब बाई के कोठे पर."
"तो क्या मुझे गुलाब बाई के कोठे पर जाना होगा.?"
"यदि अपने बेटे की जिन्दगी चाहते हो तो जाना ही होगा."
"ठीक है, जाऊंगा. अपने बेटे की जिन्दगी की खातिर एक तवायफ से भीख भी मांगूंगा." वे दोनों सीढ़ियों की ओर बढ़ गये. उनके जाने के बाद वह नकाबपोश भी पीछे की बालकनी की ओर जाकर लॉन में कूद गया. धप् की एक आवाज हुई और गोधूली की उस वेला में पूरे फार्म हाउस में कोहराम मच गया.
*****
गुलाब बाई के कोठे पर महफ़िल पूरे शबाब पर थी. उस समय शबाना अपना मनमोहक नृत्य प्रस्तुत कर रही थी. उसकी हर एक अदा पर झूमते हुए रसिक लोग नोटों की बौछार कर रहे थे. अचानक शबाना के थिरक रहे पांव जहां के तहां थम गये. और इसके बाद महफ़िल में ऐसी खामोशी छा गई जैसे कोई अनहोनी घटना घट गयी हो. जिस शख्स ने कोठे पर कदम रखा था, उनका यहां आना ठीक वैसा ही था जैसे भगवान भास्कर का पूरब की बजाए पश्चिम दिशा से उदित होना.
"अरे ये तो लखनऊ के मशहूर हीरों के व्यापारी सेठ द्वारिका दास जी हैं." एक रसिक, जो सेठजी को पहचानता था, के मुंह से निकल पड़ा. फिर तो पूरी महफ़िल में चख चख होने लगी.
"सेठ द्वारिका दास और गुलाब बाई के कोठे पर! यह कैसा आश्चर्य है." कई लोगों के मुंह से फुसफुसाता हुआ सा स्वर निकला. गुलाब बाई, शबाना और उस्ताद अमजद अली खां साहब की आंखें हैरत से फटी की फटी रह गयी. इन सबों ने सेठ द्वारिका दास का नाम तो सुना था, मगर इन्हें देखा न था. ये लोग यह भी जानते थे कि सेठ द्वारिका दास जी धनंजय के पिता हैं. धनंजय ने तो तबसे ही यहां आना छोड़ दिया है, जबसे श्वेता गायब हुई है. आज उसके पिता यहां क्यों आए हैं.? यह एक ऐसी पहेली बन गयी कि जिसकी गुत्थी को कोई भी सुलझा नहीं पाया. सेठ द्वारिका दास थके थके कदमों से चलते हुए शबाना के सामने आकर खड़े हो गये. विमूढ़ सी खड़ी शबाना की तंद्रा भंग हो गयी और उसने बड़े अदब से उन्हें सलाम किया. उसके सलाम की अनदेखी करते हुए सेठ जी ने दर्द से सराबोर मगर स्नेहिल स्वर में पूछा -
"बेटी यहां गुलाब बाई कौन है?" उनकी मधुर आवाज में जो वात्सल्य छुपा था उसकी अनुभूति से सभी अचंभित रह गये. शबाना तो इतनी आत्म विभोर हो उठी कि उसकी इच्छा हुई इनके चरण छू लूं, मगर ऐसा कर न पाई. आजतक इस कोठे पर आनेवाले किसी भी सज्जन ने उसे बेटी कहकर नहीं पुकारा था. जो युवा हैं, उनकी तो खैर कोई बात ही नहीं, मगर जो पिता तुल्य होते हैं वे भी उसे कामुक नज़रों से ही निहारा करते हैं. सेठ द्वारिका दास जी की आंखों में कितना वात्सल्य छुपा है. उस्ताद अमजद अली खां को ऐसा लगा जैसे आसमान से कोई फरिश्ता उतर कर इस कोठे पर आ गया हो. उनके बगल में बैठी गुलाब बाई भाव-विह्वल हो उठी और एक झटके में ही उठकर खड़ी हो गयी. फिर सेठ द्वारिका दास को भरपूर सम्मान देती हुई शालीनता से बोली -"इस कनीज़ को ही गुलाब बाई कहते हैं हुजूर, कहिए मैं आपकी क्या खिदमत करूं.?"
द्वारिका दास कुछ पल उसे निहारते रहे, फिर बेहद सर्द आवाज में बोले-
"यदि तुम बुरा न मानो तो मैं एकांत में तुम से कुछ बातें करना चाहता हूं."
"हुजूर की इजाजत हो तो मैं इन कद्रदानों को यहां से रुखसत कर दूं."
गुलाब बाई रसिकों की ओर इशारा करती हुई बोली.
"नहीं.... नहीं." द्वारिका दास तेजी से बोल पड़े -"मैं इन भद्रजनों के आनंद में विघ्न डालना नहीं चाहता. यदि यहां कोई ऐसी जगह हो जहां हमलोग कुछ गुफ्तगू कर सकें."
"हां....हां, है न हुजूर आइए मेरे साथ. गुलाब बाई सीढ़ी की ओर बढ़ गयी. उसके पीछे-पीछे सेठजी भी बढ़ गये. सभी रसिक लोग अपने अपने मन में तरह तरह के कयास लगाते हुए उन्हें घूरने जा रहे थे.
****
सेठजी को लेकर गुलाब बाई अपने कमरे में आ गयी. फिर औपचारिकता निभाती हुई बोली - "हुजूर के लिए क्या मंगवाऊं. ढंडा या गर्म."
"नहीं, कुछ नहीं." मना करने के बाद, द्वारिका दास जी ने मौन धारण कर लिया. उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे अपनी बात की शुरुआत कैसे करें.? उन्हें मौन देखकर गुलाब बाई उनसे आग्रह करती हुई बोली -"तशरीफ़ रखिए हुजूर."
"नहीं.... नहीं मैं ऐसे ही ठीक हूं. गुलाब बाई मैं तुम से एक विनती करने आया हूं."
"जी.....!" गुलाब बाई चौंक पड़ी -"यह मेरी खुशकिस्मती होगी, जो मैं आपके किसी काम आ पाऊंगी. कहिए क्या कहना चाहते हैं आप ?"
"मेरी इस झोली में तुम अपनी बेटी को डाल दो गुलाब बाई. बदले में तुम जो चाहो, तुम्हें देने के लिए तैयार हूं." अपने कुर्ता को झोली की तरह गुलाब बाई के सामने फैलाते हुए एकदम से भिखारी लगने लगे सेठ द्वारिका दास. और उधर गुलाब बाई का सर चकरा कर रह गया. उसकी समझ में न आया कि हर कोई उसकी बेटी को मांगने क्यों आ रहा है यहां, जबकि सच्चाई यह है कि उसकी बेटी यहां है ही नहीं. कल एक राजीव नाम का पागल आया था और आज ये सेठ द्वारिका दास शायद अपने आवारा बेटा धनंजय के लिए उसकी बेटी को मांगने आए हैं. मगर मैं कहां से लाकर दूं इनको अपनी बेटी.
"गुलाब बाई तुम चुप क्यों हो, यदि तुमने अपनी बेटी संध्या को मुझे नहीं दिया तो मेरा बेटा राजीव उसके वियोग में तड़प तड़प कर मर जाएगा." सेठजी की आंखों से बेशुमार आंसू बहने लगे. इधर गुलाब बाई राजीव का नाम सुनकर बुरी तरह से चौंक पड़ी. उसे पूरा माजरा समझ में आ गया. इसका मतलब ये हुआ कि राजीव बाबू भी इनके ही बेटे हैं. फिर भी उसने सेठजी से पूछा -
"क्या नाम बताया आपने.... राजीव."
"हां राजीव. मैं उसी अभागे का बदनसीब बाप हूं. विगत एक वर्ष तक मेरा बेटा कोमा में था. जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा था. बड़ी मुश्किल से उसे नयी जिन्दगी मिली थी. और जानती हो मेरे बेटे को नयी जिन्दगी किसने दी, तुम्हारी बेटी संध्या ने. मगर हम लोगों ने देवी के समान तुम्हारी बेटी संध्या के साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया, जिसकी सजा हम-सब को मिल रही है." फिर सेठ द्वारिका दास ने एक ब्लैंक चेक अपनी जेब से निकाल कर गुलाब बाई को थमा दिया -"यह ब्लैंक चेक लो गुलाब बाई, इस पर जितनी रकम लिखना चाहो लिख सकती हो, बदले में मुझे मेरे खानदान की बहू दे दो." अब सेठ द्वारिक दास हिचकियां ले लेकर रोने लगे. उनके करुण क्रंदन से गुलाब बाई का भी कलेजा फटने लगा. मगर वह अपने कलेजे को पत्थर से भी अधिक मजबूत बनाकर उस चेक के टुकड़े टुकड़े करके फेंकती हुई बोली -"सेठ जी मेरी बेटी की कीमत लगा कर आपने मेरे मुंह पर तमाचा मारा है, मेरी गैरत को ललकारा है. बेशक मैं एक तवायफ हूं, वेश्या हूं और अपनी बेटी से भी मैं यही धंधा करवाना चाहती थी. मगर जिस दिन मुझे यह पता चला कि उसने एक मरणासन्न इंसान की जिन्दगी बचाई है, उस दिन से ही उसके प्रति मेरी धारणा बदल गयी. आपलोगों ने एक वेश्या की बेटी को देवी बना दिया. मेरा तो इहलोक और परलोक दोनों सुधर गया. मगर मैं आप लोगों को कैसे यकीन दिलाऊं कि मेरी बेटी श्वेता यहां नहीं आयी है."
"मगर श्वेता.....!" सेठ द्वारिका दास चकरा कर रह गये.
"जिसे आप लोग संध्या कह रहे हैं, वहीं मेरी बेटी श्वेता है."
"ओह....!" सेठ जी के मुंह नि:श्वास निकल पड़ा.
"श्वेता को ढ़ूंढते हुए राजीव बाबू भी यहां आए थे, मगर उन्हें भी निराशा ही हाथ लगी थी." गुलाब बाई की आंखों से भी आंसुओं की झड़ी लग गयी.
"क्या कहा तुमने, राजीव भी यहां आया था.?"
"जी.....!"
"तो फिर संध्या कहां चली गयी.?"
"यही तो समझ में नहीं आ रहा है हुजूर....कि आखिर मेरी बेटी गुम कहां हो गयी?."
"अब भगवान ही मेरे बेटे को बचाएंगे." वे हताश होकर कमरे से बाहर निकल गये. गुलाब बाई वहां बैठकर अपनी बेटी के वियोग में ढाढें मार मार कर रोने लगी. हॉल में अभी भी शबाना का ही कार्यक्रम चल रहा था. सेठ द्वारिका दास, गुमसुम से लोगों की नजरों से खुद को बचाते हुए द्वार की ओर जाने लगे, मगर शबाना ने उन्हें देख ही लिया. वह अपना नृत्य बीच में ही रोक कर व्याकुल भाव से उन्हें पुकारती हुई बोली -"बाबूजी, तनिक रुकिए." शबाना के आग्रह को सुनकर सेठजी को रूक जाना पड़ा. शबाना लपकती हुई उनके सामने आकर खड़ी हो गयी. उनकी आंखों से बह रहे बेशुमार ऑंसू को देखकर वह तड़प उठी.
"मैं नहीं जानती कि आप यहां क्या लेने आए थे, मगर बेटी कहकर आपने मुझे जो मान दिया है, उसके लिए यदि मैं आपके चरण धोकर भी पी जाऊं तो मेरे लिए कम होगा." इतना कहकर वह उनके चरणों में झुक गयी.
"उठो बेटी." वे उसकी बांहें थामते हुए बोले -"जो इंसान स्त्रियों की इज्जत न करता हो, वह इंसान हो ही नहीं सकता. स्त्रियां चाहे जिस रूप में भी हो वह देवी होती हैं, पूज्यनीय होती है. यही हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति है."
"आप जितने बड़े हैं, आपके विचार उससे भी ऊंचे हैं बाबू जी. क्या मैं जान सकती हूं कि आप यहां क्यों आए थे.?"
"ये राजीव बाबू के पिताजी हैं शबाना." तभी सेठजी के पीछे से गुलाब बाई की आवाज आयी.
"बाबू जी." अब तो शबाना भी अपने हृदय के उद्वेग को रोक नहीं पाई.
-" आप यहां से खाली हाथ जा रहे हैं, यह जान कर मुझे कितनी तकलीफ़ हो रही है मैं बयान नहीं कर सकती. मगर मेरा दिल कहता है कि एक न एक दिन संध्या राजीव बाबू को मिलेगी जरूर."
"तब तक तो बहुत देर हो जायेगी बेटी."
"नहीं होगी देर. दो प्रेमियों के दिल की तड़प को भगवान भी समझते हैं." शबाना के सांत्वना भरे इन शब्दों ने सेठ द्वारिका दास के विदग्ध हृदय को राहत तो पहुंचाई, मगर उनकी आंखों के सामने छाया हुआ अंधकार अब भी दूर न हुआ. वे कुछ बोले नहीं चुपचाप द्वार की ओर बढ़ गये. गुलाब बाई और शबाना अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखती रही जब-तक कि वे सीढ़ियों से नीचे न उतर गये.∆∆∆∆∆
क्रमशः.......!
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