धारावाहिक पौराणिक उपन्यास द्वितीय खंड 

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वेदवती का श्राप

- राम बाबू नीरव

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गंधमादन पर्वत पर तपस्या कर रही ऋषि कुशध्वज जी की पुत्री वेदवती की तपस्या अब तक पूर्ण नहीं हुई थी. धरती अपनी धूरी पर चलती रही. दिन पर दिन बीतते चले गए. माह वर्ष में, वर्ष दशक में और दशक शताब्दियों में परिवर्तित होते रहे, परंतु वेदवती अपनी साधना में लीन रही. अनंतकाल तक तपस्यारत रहते हुए भी वेदवती के‌ शारीरिक सौष्ठव, मनोहरता, सौंदर्य तथा आयु में तनिक भी परिवर्तन न हुआ. बल्कि उसके सौंदर्य में और भी ‌निखार आ चुका था. 

उसी गंधमादन पर्वत पर हिमराज हिमालय तथा देवी मैना की पुत्री  पार्वती भी भगवान भोलेनाथ को पति रूप में प्राप्त करने हेतु तपस्या कर रही थी. उनसे वेदवती का साक्षात्कार तथा वार्तालाप भी हो चुका था. युग बदलने से पूर्व ही पार्वती जी की मनोकामना पूर्ण हो गयी और वे भगवान भोलेशंकर की अर्द्धांगिनी बन गयी. यही नहीं बल्कि वे दो पुत्र - कार्तिकेय जी और गणेश जी के साथ साथ एक पुत्री अशोक सुन्दरी की मां भी बन चुकी थी. परंतु वेदवती को उसका मनोवांछित फल अब तक प्राप्त न हुआ था. वैसे श्री हरि जी (भगवान विष्णु) अपनी प्राण प्रिया देवी लक्ष्मी जी के साथ प्रकट होकर उसे आश्वासन दे चुके थे कि शीघ्र ही वे मनुष्य रूप में पृथ्वी पर अवतार लेंगे. उस समय तुम्हारा भी मेरी अर्द्धांगिनी लक्ष्मी के रूप में अवतरण होगा, तब तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो जाएगी." वेदवती को स्नेहाशीष प्रदान कर भगवान विष्णु अन्तर्ध्यान हो गये. तब से अब तक पुनः वेदवती अपनी तपस्या में लीन थी.

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उधर लंका में लंकेश रावण की महत्वाकांक्षा दिनों दिन बढ़ती जा रही थी. स्वर्ण नगरी लंका, कुबेर के खजाना और पुष्पक विमान को पाकर उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी थी. वह अभिमानी के साथ साथ कुकर्मी भी बनता चला गया. सुन्दर स्त्रियों को अपनी भोग्या बनाना उसकी लिप्सा बन गई. उसके रनिवास में पट्टरानी मंदोदरी तथा अन्य रानियों के साथ साथ अनेकों सुन्दर स्त्रियां थीं, जिनके साथ वह रमण किया करता था, फिर भी उसकी लिप्सा शान्त न होती और वह अपनी काम पिपासा शांत करने हेतु यत्र-तत्र भटका करता. उसकी इस लिप्सा को देखकर मंदोदरी तथा अन्य रानियां क्षुब्ध रहा करती परंतु व्यभिचारी रावण को इसकी परवाह न थी. पट्टरानी मंदोदरी उसे समझाने का प्रयास करती, परंतु वह उसकी बातों को इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देती.

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   एक दिन रावण अपने पुष्पक विमान पर सवार होकर भ्रमण के लिए निकला. चक्कर लगाते लगाते उसका विमान गंधमादन पर्वत के उस क्षेत्र में आ गया जहां वेदवती तपस्या में लीन थी. पुष्पक विमान पर बैठा हुआ रावण उस रमणिक क्षेत्र का अवलोकन करता जा रहा था. अचानक उसकी दृष्टि तपस्यारत वेदवती पर पड़ आकर स्थिर हो गयी. वेदवती का अनुपम सौंदर्य कुंदन की भांति दमक रहा था. उसका शारीरिक सौष्ठव सुदृढ़ था. वह देवलोक की अप्सरा जैसी लग रही थी. उसकी एक ही झलक पाकर रावण उस पर मोहित हो गया. अपने विमान को उनसे वेदवती की साधना स्थली से कुछ हटकर उतारा और वह स्वयं वेदवती के समकक्ष आकर  किसी अभ्यागत की तरह खड़ा हो गया. वह अपलक उस अद्भुत सुन्दरी के अनुपम सौंदर्य का रसास्वादन करने के पश्चात अपनी भारी-भरकम आवाज में बोला -

"आंखें खोलो सुन्दरी और देखो तुम्हारे समक्ष कौन खड़ा है. ?" परंतु वेदवती की आंखें न खुली. 

"सुन्दरी....!" इस बार ऐसा लगा जैसे शेर की दहाड़ पूरे पर्वतीय क्षेत्र में गूंज उठी हो. -"आंखें खोलो." फिर भी वेदवती टस से मस तक न हुई. रावण बौखला गया. उसकी क्रोधाग्नि भड़क उठी. उसने अपने म्यान से तलवार खींच लिया और दूसरे हाथ से वेदवती के सुनहरे बाल को पकड़ कर घसीटते हुए उस शिला से नीचे ले आया, जिस पर वेदवती तपस्या कर रही थी. फिर वह गला फाड़कर कर चिल्लाते हुए बोला -"अंतिम बार तुम्हें चेतावनी दे रहा हूं, यदि इस बार तुमने अपनी आंखें नहीं खोली तो निश्चित रूप से तुम्हारा वध कर डालूंगा." वेदवती की सुप्त पड़ी चेतना जाग्रत हो गई और वह पीड़ा से तड़प उठी. उसने अपनी आंखें खोल दी. अपने समक्ष एक विशालकाय राक्षस को देखकर वह अचंभित रह गई. उसका हृदय क्षोभ और रोष से भर उठा. वह मन ही मन कुपित होकर बड़बड़ाने लगी -"इस दुष्ट राक्षस ने मेरी तपस्या भंग कर दी. मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह दुष्ट अचानक इस निर्जन पर्वत पर आकर मेरी साधना में विघ्न डाल देगा?" वह रावण को कोसती हुई आग्नेय नेत्रों से उसे घूरने लगी. उसे इस तरह अपनी ओर घूरते देख कर रावण पुनः दहाड़ उठा -

"तुम इस तरह से मुझे घूर क्यों रही हो सुन्दरी.?"

"क्योंकि तुम दुष्ट हो. तुमने मेरी तपस्या भंग कर दी है. तुमने मेरे बाल पकड़ कर खींचा है. मुझे असह्य पीड़ा हो रही है." बड़े ही भोलेपन से बोली वेदवती. उसका यह भोलापन रावण को अच्छा लगा. वह अपने स्वर में नम्रता लाने का प्रयास करते हुए बोला -

"यह मेरी प्रवृत्ति है सुन्दरी. मैं रक्षपति रावण हूं.... लंकेश हूं. मैं आधी से अधिक पृथ्वी को विजित कर चुका हूं, अब पूरी  वसुंधरा को विजित करूंगा. हर सुन्दर स्त्रियों पर मेरा अधिकार है. चाहे वह देवकन्या हो, मानव कुल की हो अथवा दानव कुल की. मैं तुम्हें पर सम्मोहित हो चुका हूं. तुम मेरे साथ लंका चलो. अपने सोने के राजमहल में तुम्हें रानी बनाकर रखूंगा."

"मेरे सामने से हटो दुष्ट रावण. न तो मुझे तुम्हारी पत्नी बनना है और न ही लंका की रानी. मैं तो श्रीहरि अर्थात भगवान विष्णु को अपना पति मान चुकी हूं और उन्हें अपने पति के रूप में प्राप्त करने हेतु तपस्या कर रही थी, परंतु तुमने आकर मेरी कामनाओं पर पानी फेर दिया." वेदवती की बातें सुनकर रावण ने पुनः अट्टहास लगाया फिर अपना नाक-भौं सिकोड़ते हुए बोला -

"सुन्दरी तू उस विष्णु को भूल जा. वह छलिया है. छल और कपट से हम राक्षसों का संहार करता है और कायर की तरह क्षीरसागर में जाकर छुप जाता है. मैं शक्तिशाली हूं, विराट हूं. मुझमें पुरुषार्थ है. मैं स्त्रियों पर अनुग्रह करता हूं. इसलिए स्त्रियां मुझ से प्रसन्न ‌रहा करती हैं. तुम मेरा कहना मान लो मैं तुम्हें भी प्रसन्न कर दूंगा."

"चुप राक्षस.....! " इतनी जोर से चिल्लाइ वेदवती कि वह पूरा पर्वत क्षेत्र गूंज उठा. -

"न तो तू शक्तिशाली है‌ और न ही विराट! तू स्वयं को पुरुषार्थी कहता है, परंतु मैं कहती हूं कि तुम अधम और महापातकी हो. कुमारी कन्याओं और परायी स्त्रियों पर कुदृष्टि रखने वाला मनुष्य पुरुषार्थी कैसे हो सकता है.? जिस पुरुष को अपनी शक्ति और संप्रभुता का अहंकार हो, वह सबसे निकृष्ट प्राणी होता है, वह चाहे राक्षस कुल का हो, देव कुल अथवा मनुष्य कुल का."

"देखो सुन्दरी मैं तुम्हें अंतिम बार कह रहा हूं, उस विष्णु को भूल जा और मुझे पति रूप में स्वीकार कर ले, तुम्हारा जीवन सुखमय बीतेगा."

"कदापि नहीं. मैं ब्रह्मर्षि कुशध्वज जी की पुत्री हूं. किसी राक्षस को अपना यह पवित्र शरीर स्पर्श नहीं करने दे सकती. " रावण की कामुकता को भांप कर वेदवती की शताब्दियों क तपस्या का तेज अंदर ही अंदर दहकने लगा. 

"अब तो तुम्हारे साथ मुझे बल प्रयोग करना ही होगा." रावण वेदवती के काले और लम्बे बालों को पकड़ कर पुनः घसीटने लगा. अपने तेजस्विता के बल पर वेदवती ने अपने बालों को छुड़ा लिया और प्रज्वलित आंखों से उसकी ओर देखती हुई चीख पड़ी -

"दुष्ट रावण, तुमने तपस्यारत एक कुमारी कन्या का तप भंग करने का घोरतम पाप किया है. मैं, ब्रह्मर्षि कुशध्वज जी की पुत्री वेदवती अपने इष्टदेव को साक्षी मानकर तुम्हें श्राप देती हूं अगले जन्म में मैं तुम्हारी पुत्री के रूप में जन्म लूंगी और तुम्हारे साथ साथ समस्त राक्षसों के सर्वनाश का कारण बनूंगी." इतना कहकर वेदवती अपनी आंखें बंद करके इष्ट देव का स्मरण करने लगी. उसके अंदर का तेज अग्नि की ज्वाला के रूप में प्रस्फुटित हुआ और उस प्रचंड अग्नि में जल कर वह भस्म हो गयी. रावण विस्तारित नेत्रों से इस अद्भुत चमत्कार को देखता है गया. 

   कुछ देर तक वह वहां खड़ा वह इस अद्भुत दृश्य को देखता रहा, फिर लपकते हुए अपने पुष्पक विमान की ओर बढ़ गया.

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क्रमशः........!

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