वर्तमान में भारतीय संवैधानिक विनिमय मुद्रा को ‘रुपया’ ही कहा जाता है, जो ऐतिहासिक तौर पर चाँदी पर आधारित विनिमय संबंधित एक महत्वपूर्ण मुद्रा हुआ करता था । ‘रुपया’ का नाम संस्कृत शब्द ‘रुप्यकम्’ से लिया गया है, जिसका अर्थ, 'गढ़ा हुआ, चाँदी का सिक्का या टुकड़ा’ होता है । चाँदी को संस्कृत में ‘रूपा’ भी कहा जाता है । इसी ‘रूपा’ से निर्मित मुद्रा होने के कारण, इसका सम्बोधन सूचक नाम ‘रुपया’ है, जो कालांतर में भारतीय विनिमय मुद्रा (नोटों) के लिए भी पर्याय बन गया है ।
‘रुपया’ की कहानी, आज से लगभग 3,0000 वर्ष पहले प्रागैतिहासिक काल में ‘मुद्रा’ के रूप प्रारंभ होती है, जब मानव को अपनी जरूरत की वस्तुओं का विनिमय या खरीद-बिक्री की आवश्यकता जान पड़ी थी । प्राचीन काल में, चुकी लोगों की आबादी बहुत कम थी, लोग अपनी जरूरत की अधिकांश वस्तुएँ, या तो स्वयं पैदा कर लिया करते थे, या फिर आस-पड़ोस के सहयोग पर निर्भर रहा करते थे, अथवा उनकी जरूरतें, प्राप्त वस्तुओं के अनुकूल ही सीमित थीं । लेकिन परवर्तित काल में आबादी के बढ़ने के साथ ही साथ, उनकी जरूरत की वस्तुओं की माँग भी उसी अनुपात में बढ़ने लगी । तब लोग प्रारंभ में अल्प मात्रा में ही मिट्टी, पकाई गई मिट्टी, सीप (कौड़ी), प्राप्त धातु के गढ़े-अनगढ़े स्वरूप (मुद्रा) का और घरेलू कुछ पशुओं का प्रयोग, वस्तु विनिमय की इकाई के रूप में करने लगे थे । वस्तु-विनिमय संबंधित उन विविध मुद्राओं के स्वरूप-आकार, कालांतर में प्राप्य धातु की सहजता, रख-रखाव की सरलता, कहीं ले जाने में सुगमता, सबके द्वारा मान्य आदि को लक्ष्य कर समयानुसार बदलते रहें । धीरे-धीरे उन मुद्राओं का स्वरूप, उपलब्ध विभिन्न धातुओं के ठोस स्वरूप, जैसे धातु के सिक्कों के रूप से होते हुए कागजी (नोट) के स्वरूप में विकसित हुए । अब, आज तो, डिजिटल मुद्राएँ, विश्व स्तर पर वस्तुओं के विनिमय के क्षेत्र में अपना एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ रही हैं ।
प्राचीन काल में मुद्राओं की सबसे छोटी इकाई के रूप में ‘फूटी कौड़ी’ का उपयोग होता रहा था । उसके ऊपर की ओर उनका मूल्यांकन, इस प्रकार से किया जाता था; 3 फूटी कौड़ी = 1 कौड़ी; 4 कौड़ी = 1 गंडा; 5 गंडा = 1 बुदिया; 4 बुदिया = 1 पना; 16 पना = 1 कहान; और 10 कहान; = 1 टंका या रुपया । इसी तरह से 10 कौड़ी; = 1 दमड़ी; 2 दमड़ी; = 1 धेला; 2 धेला; = 1 पैसा; 4 पैसे; = 1 आना, फिर 16 आना या 64 पैसा; = 1 रुपया हुआ करता था । इस प्रकार, वे प्राचीन काल की सभी मुद्राएँ एक-दूसरे से परस्पर आनुपातिक रूप में जुड़ी हुई थीं ।
(प्राचीन काल की आधातु-धातु की मुद्राएँ)
प्राचीन भारत, वस्तु-विनिमय के क्षेत्र में दुनिया में सिक्के जारी करने वाले शुरुआती देशों में से एक था । प्रथम भारतीय सिक्के छठी शताब्दी ईसा पूर्व में महाजनपदों (प्राचीन भारत के गणतांत्रिक राज्य) द्वारा ढाले गए थे, जिन्हें ‘पुराण’, ‘कार्षापण’ या ‘पण’ के नामों से जाना जाता था । प्राचीन भारत में ही विभिन्न प्रकार की आधातु-धातु की मुद्राएँ प्रचलित थीं, जैसे कि कौड़ी (सीपी), सोने के सिक्के, चाँदी के सिक्के, ताँबे के सिक्के आदि । वैदिक साहित्य में सिक्कों के लिए ‘निस्क’, ‘सतमान’, ‘कृष्णल’, ‘हिरण्यपिंड’ जैसे विशेष शब्दों का उल्लेख हुआ मिलता है, जिनका उपयोग वस्तु विनिमय के लिए मुद्रा के रूप में किया जाता था । भारत का प्राचीनतम सिक्का ‘पंचमार्क’ (निश्चित आयतन के सोने या चाँदी के टुकड़ों पर ‘पंच’ या आघात कर चिन्हित विशेष आकृति) को माना गया है, जिन्हें ‘आहत’ और ‘धरण’ के नाम से भी जाना जाता था । इनका उल्लेख ‘मनुस्मृति’ में भी मिलता है । मौर्य काल में भी चाँदी के ‘पंचमार्क’ (आघात) चिह्नित सिक्कों का ही मुख्य रूप से प्रयोग हुआ करता था, जिन्हें ‘पण’ कहा जाता था ।
चाणक्य द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र’ में भी चाँदी के ‘पंचमार्क’ (आघात) चिह्नित सिक्कों का उल्लेख हुआ है, जो मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के प्रमुख आमात्य (प्रधानमंत्री) थे । ‘पंचमार्क’ सिक्कों का वजन लगभग 3/4 तोला होता था । उनपर सूर्य, चंद्रमा, पीपल, मयूर, बैल, सर्प आदि के चित्र अंकित हुआ करते थे । उन्होंने मौर्य कालीन सोने के सिक्कों को ‘सुवर्णरूप’, सीसे के सिक्कों को ‘सीसरूप’, ताँबे के सिक्कों को ‘ताम्ररूप’ और चाँदी के सिक्कों को ‘रूप्य’ कहा था । मौर्यकालीन सिक्के एक ही मानक वजन और आकार के बने होते थे । उनकी वैधता सुनिश्चित करने के लिए मौर्य सिक्कों पर शाही मानक चिन्ह भी अंकित किया जाता था । मौर्यकालीन सोने के सिक्कों को ‘निष्क’ या ‘सुवर्ण’ और ताँबे के सिक्कों को ‘माषक’ या ‘काकणी’ भी कहा जाता था । लेकिन मौर्यकाल में ही अलग-अलग स्थानों और समय के अनुरूप विभिन्न आकार वाले और विभिन्न आकृति व चिह्न वाले अन्य सिक्के भी वस्तु विनिमय के क्षेत्र में प्रचलित थे ।
(मौर्यकालीन चाँदी के सिक्के)
(अशोक कालीन पंचित सिक्के) (मौर्यकालीन सोने के सिक्के)
भारत में गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त प्रथम ने सोने के सिक्कों की एक विशेष श्रृंखला के साथ सिक्का निर्माण की शुरुआत की थी । सोने के सिक्कों को ‘दीनार’ और चाँदी सिक्कों को ‘रूपक’ कहा जाता था । गुप्त कालीन सिक्कों पर उनके राजाओं की विभिन्न गतिविधियों, उनके शौक, उनके आचरण, उनकी विभिन्न मुद्राओं और विशेषताओं को दर्शाया जाता था, जैसे कि राजा के हाथ में तलवार, युद्ध-कुल्हाड़ी, धनुष, भाला, वीणा, गरुड़-ध्वज आदि के चित्र । उन्हीं सिक्कों से संबंधित विशेषताओं को उनके परवर्तित काल-वंशों तथा क्षेत्रीय राज-वंशों ने भी अपनाया । हलाकी, वस्तुओं के विनिमय हेतु प्रयोग में लाए जा रहे, मुद्राओं के स्वरूप समयानुसार उनके निर्माताओं के विचारानुकूल बदलते ही रहे थे । मौर्यकालीन और गुप्तकालीन सिक्कों पर कलात्मक और धार्मिक प्रतीकों का भी उपयोग किया जाता था । 5 वीं और 6 वीं शताब्दी ईस्वी में भी सोने और चाँदी के दोनों सिक्के वस्तु विनिमय के क्षेत्र में बहु प्रचलित थे ।
(गुप्तकालीन सोने के सिक्के)
(गुप्तकालीन चाँदी और ताँबे के सिक्के) (गुप्तकालीन सोने के सिक्के)
लगभग 600 ईसा पूर्व में, लिडिया (आधुनिक तुर्की) में पहली बार धातु के सिक्के ढाले जाने के प्रमाण मिलते हैं । इसी तरह 9 वीं शताब्दी में चीन में कागजी मुद्राओं का आविष्कार हुआ, जो बहुत ही हल्के और कागजी स्वरूप होने के कारण, रखने और कहीं भी ले जाने में, धातु के सिक्कों की तुलना में अधिक सुविधाजनक और सरल थी । कालांतर में कागजी मुद्राएँ ही विश्व भर में विनिमय के प्रमुख साधन बनीं । ग्रेट ब्रिटिश पाउंड (GBP) दुनिया की सबसे पुरानी मुद्रा है, जो आज भी प्रचलन में है । इसे 'स्टर्लिंग' के नाम से भी जाना जाता है । इसका इतिहास साढ़े बारह सौ वर्षों से भी पुराना है । यह यूनाइटेड किंगडम (यूके) की आधिकारिक मुद्रा है, जो इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड देशों में आज भी प्रचलन में है ।
फिर भारत में बारी आती है, तुर्क-अफगानों की । दिल्ली के तुर्क-सुल्तानों ने बारहवीं शताब्दी ईस्वी तक पूर्ववर्ती भारतीय राजाओं के ही सिक्कों के शाही प्रारूप को ही इस्लामीकरण कर, उन्हें अपनाया । दिल्ली सल्तनत के दौरान, ‘जीतल’ नामक चाँदी के सिक्के और सोने-चाँदी धातु की कमी के कारण ताँबे की ‘टंका’ मुद्रा प्रचलन में आई, जो प्राचीन और मध्यकाल में एशिया, यूरोप और अफ्रीका को जोड़ने वाले व्यापारिक सिल्क मार्गों में वस्तु विनिमय का प्रमुख मुद्रा-साधन हुआ करता था । इल्तुतमिश ने सिक्कों के मानकीकरण किया और उसपर टकसाल के नाम लिखने की परंपरा शुरू की । ‘टंका’ का वजन एक तोला 96 रत्ती (11.2 ग्राम) का होता था । उन पर उनके मानक को क्षेत्रीय कई भाषाओं में लिखा हुआ करता था, जिनमें संस्कृत, अरबी, फ़ारसी, हिंदुस्तानी, बंगाली, नेपाली, तिब्बती, मंदारिन आदि शामिल हैं । बहुत बाद के मुगल साम्राज्य के तहत भी क्षेत्रीय मुद्राओं को भी टंका / टंगका / टका के रूप में संकेतित किया जाता था ।
16 वीं शताब्दी के मध्य में, शेरशाह सूरी ने ‘रुपया’ नाम से चाँदी का सिक्का जारी किया था, जिसे आधुनिक भारतीय रुपयों का पूर्वज माना जाता है । शेरशाह का ‘रुपया’ 178 ग्रेन (लगभग 11.534 ग्राम) वजन का चाँदी का सिक्का हुआ करता था । इसके अतिरिक्त उन्होंने 169 ग्रेन वजन का सोने का सिक्का चलाया, जिसे ‘मोहर’ और 380 ग्रेन वजन का ताँबे का सिक्का भी चलाया, जिसे ‘दाम’ कहा जाता था । शेरशाह ने उन सिक्कों के लिए मानक वजन और माप भी निर्धारित किया था । चुकी ‘रुपया’ शब्द का प्रयोग शेरशाह के शासनकाल में एक विशिष्ट चाँदी के सिक्के के लिए किया जाता रहा था । उसी के अनुरूप भारतीय विनिमय मुद्रा को ‘रुपया’ ही कहा जाता है ।
(शेरशाह के रुपया सिक्के)
(मुगलकालीन चाँदी का सिक्का)
(मुगलकालीन सिक्के)
परवर्तित विशाल मुगल साम्राज्य में बड़े पैमाने पर अर्थव्यवस्था की सुगमता के लिए पूरे साम्राज्य में मुद्रा प्रणाली को एकीकृत किया गया । साम्राज्य भर में वस्तुओं के विनिमय के लिए धातु मानक मुद्राओं के प्रयोग को सरल किया गया । मुगल मुद्रा का नाम ‘रुपया’ (रूपा या रुपैया) ही रखा गया था । लोग उसे ‘रुपया’ या ‘टंका’ या ‘टका’ भी कहते थे । मुगल साम्राज्य में ढाका, मुर्शिदाबाद, पटना, आर्कोट, बनारस, कूचबिहार, लखनऊ, मद्रास, सूरत आदि में रुपया-मुद्रा निर्माण टकसाल स्थापित किए गए, जहाँ मानक वजन और शुद्धता के अनुसार सिक्के ढालने के लिए श्रॉफ द्वारा सोने-चाँदी के टुकड़े या पुराने सिक्के लाए जाते थे । परवर्तित मुगल काल में सोने की अपेक्षा चाँदी की मुद्राएँ (सिक्के) ही अधिक प्रचलन में आईं । ‘रुपया’ सिक्के मुगल काल से होते हुए मराठा काल और फिर ब्रिटिश काल में भी भारत में उपयोग होते रहे थे । अंग्रेजों ने व्यापारिक लेन-देन के संचालन को देखते हुए एक काल्पनिक सिक्का तय किया, जो एक दक्षमासा, (रुपये से दस प्रतिशत कम) का प्रचलन किया था । सन् 1756 से, अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी को कलकत्ता में अपने लिए सिक्का ढालने का अधिकार भी प्राप्त हो गया था ।
(ईस्ट इंडिया कंपनी के सिक्के या मुद्राएँ)
तत्पश्चात, ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में कुछ धातु मुद्राओं के साथ कागजी मुद्राओं का भी प्रचलन तेजी से हुआ, जिसमें कुछ प्रशासकीय बदलाव कर स्वतंत्र भारत ने अपनी राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में स्वीकार कर लिया है ।
भारत में ब्रिटिश काल में ही पहली बार 18 वीं शताब्दी में कागजी मुद्रा जारी किया । कागज की मुद्रा (रुपये) को जारी करने वाले बैंकों में बैंक ऑफ हिन्दुस्तान (1770-1832), द जनरल बैंक ऑफ बंगाल एंड बिहार (1773-75, वारेन हास्टिग्स द्वारा स्थापित) और द बंगाल बैंक (1784-91) आदि प्रमुख थे । सन् 1857 की क्रांति के बाद, अंग्रेजों ने रुपये को ब्रिटिश औपनिवेशिक भारत की आधिकारिक मुद्रा बना दिया, जिसमें किंग जॉर्ज VI के प्रमुख ने नोटों और सिक्कों के ही आधार पर देशी नोटों के डिजाइनों को बदल दिया । 1861 के ‘पेपर करेंसी एक्ट’ के अंतर्गत सरकार ने नोटों को छापने का एकाधिकार ‘मिंट मास्टर्स, महालेखाकारो’ और ‘मुद्रा नियंत्रक’ को सौंपा दिया था । मुद्रा नियंत्रक की सलाह पर ही ब्रिटिश भारत सरकार ने सोने और चाँदी के सिक्कों के बदले में, बिना किसी सीमा के कागजी नोट जनता को बड़ी संख्या में जारी कर दी । 1861 में शाही संप्रभु रानी विक्टोरिया के नाम पर विनियमित और पूरी तरह से गारंटीकृत कागजी मुद्रा प्रणाली प्रारंभ की गई थी, जिसके अंतर्गत 10, 20, 50, 100, 500, 1000, 5000 और 10,000 रुपये के मूल्यवर्ग में कागजी मुद्रा (रुपये) जारी किए गए थे । बाद में लेन-देन की सर्व सुविधा के लिए 1891 में 5 रुपये का नोट भी शुरू किया गया था ।
(ब्रिटिशकालीन भारतीय रुपये)
प्रारंभ में बैंक ऑफ बंगाल द्वारा जारी किए गए कागज के रुपयों पर केवल एक तरफ ही छपाई होता था । उसमें सोने की एक मोहर बनी होती थी । बाद के रुपयों पर दोनों ओर छपे होते थे । फिर कागजी रुपयों पर एक बेलबूटा बना था, जो एक कामकाजी महिला की आकृति के माध्यम से व्यापार का मानवीकरण को दर्शाता था । उन पर एक तरफ तीन लिपिओं, उर्दू, बंगाली और देवनागरी मे उनके मानक और संबंधित संदेश छपे होते थे, जबकि उनकी दूसरी तरफ में उसे जारीकर्ता बैंक की छाप हुआ करती थी । 18 वीं सदी के अंत तक रुपयों के मूलभाव ब्रितानी हो गए और जाली बनने से रोकने के लिए उनमें अन्य कई विशेष लक्षण जोड़े गए थे ।
सन् 1923 में जॉर्ज पंचम के चित्र वाली कागजी मुद्रा की एक श्रृंखला शुरू की गई थी । भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 के प्रावधानों के अनुसार 1 अप्रैल, 1935 को ‘भारतीय रिजर्ब बैंक’ की स्थापना कोलकाता (कलकत्ता) में हुई । इसका उद्घाटन ब्रिटिश बैंकर सर ऑसबोर्न स्मिथ ने किया था । भारतीय रिजर्व बैंक ने 1938 में जॉर्ज VI के चित्र वाला 5 रुपये का पहला नोट जारी किया था । बाद में फरवरी, 1936 में 10 रुपये का, मार्च में 100 रुपये और जून 1938 में 1,000 रुपये और 10,000 रुपये के नोट जारी किए गए थे । बाद में 1940 में 1 रुपये के नोट भी जारी हुए और फिर 1943 में 2 रुपये के कागजी नोट भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी किये गये । प्रारंभ में भारतीय रिजर्व बैंक की मुद्राओं (रुपयों) पर दूसरे गवर्नर सर जेम्स टेलर का हस्ताक्षर हुआ करता था । समय-समय पर भारतीय रिजर्व बैंक अपने रुपयों की शक्ल-और-सूरत में आवश्यक बदलाव करते रहा ।
1947 में देश की स्वतंत्रता प्राप्त हुई । पर मुद्रा के क्षेत्र में तत्काल कोई परिवर्तन न हो पाने के कारण देश में ब्रिटिश शासन के दौरान जारी किए गए शाही सिक्कों और नोटों को वस्तु-विनिमय के लिए मान्य रखा गया, जिन पर किंग जॉर्ज VI की तस्वीर छपी थी । उस समय भारत का मुद्रा तंत्र ब्रिटिश प्रणाली, अर्थात पाउंड, आना, पैसा आदि पर आधारित था । पूर्व के आधा पैसा और पाई जैसे कम मूल्यवर्ग के सिक्कों को बंद कर दिए गया । भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की स्थापना 1935 में हो चुकी थी, वह 1 जुलाई, 1949 को पूरी तरह से स्वतंत्र भारत सरकार के अधीन में आ गई । देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर चिन्तामणि द्वारकानाथ देशमुख थे । उन्होंने ही स्वतंत्र भारत की पहली मुद्रा 1949 में जारी की, जिसमें पहली बार ब्रिटिश शाही प्रतीक के स्थान पर ‘अशोक के शेर स्तंभ’ के चिन्ह को शामिल किया गया । फिर 15 अगस्त, 1950 में, स्वतंत्र भारत ने भारतीय रिजर्व बैंक के माध्यम से वस्तु विनिमय के लिए नए स्वरूप में 1 पैसे, 1/2, 1 और 2 आने, 1/4, 1/2 और 1 रुपया के नए सिक्के जारी किए, जिन पर मकई का एक पूलावाला (बाली) अंकित रहता था । इसी क्रम में 1 रुपये का नया नोट भी जारी किया गया, जिस पर ब्रिटिश शाही प्रतीक के स्थान पर ‘अशोक के शेर-स्तम्भ’ की आकृति रही थी । 1953 में सभी नोटों पर हिन्दी को प्रमुखता से प्रदर्शित किया गया ।
सन् 1955 का भारतीय सिक्का (संशोधन) अधिनियम, जो 1 अप्रैल 1957 से लागू हुआ, जिसके आधार पर भारतीय रिजर्व बैंक ने दशमलव प्रणाली को स्वीकार करते हुए, । रुपया को 16 आने या 64 पैसे के स्थान पर 100 पैसे में विभाजित कर दिया । ‘नया पैसा’ शब्द का प्रयोग शुरू हुआ, ताकि जनता को मुद्रा के अंतर्गत हुए बदलाव समझने में आसानी हो सके । उसके बाद ही 1,2,3,5 और 10 नए पैसे के सिक्के भी जारी हुए ।
बीसवीं सदी में फारस के खाड़ी देशों में तथा अरब के कई देशों में भारतीय रुपये ही उनकी मुद्रा के रूप में प्रचलित थे । फिर सोने की तस्करी को रोकने तथा भारतीय मुद्रा के बाहर में प्रयोग से हो रही उनके अवमूल्यन को रोकने के लिए, मई 1959 में भारतीय रिज़र्व बैंक ने खाड़ी रुपया का भारतीय व्यापरिक विपणन पर रोक लगा दिया । 1961 में कुवैत ने अपनी आजादी प्राप्ति के बाद अपनी स्वयं की मुद्रा ‘कुवैती दिनार’ प्रयोग में लाई । 1966 में भारतीय रुपये में हुए अवमूल्यन से निज को बचाने के लिए कतर ने भी अपनी मुद्रा ‘कतरी रियाल’ शुरु कर दी । 1971 में बहरीन ने भी अपनी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपनी ख़ुद की मुद्रा ‘बहरीन दिनार’ को प्रयोग में लाने लगा ।
सन् 1960 के दशक के अंत में, नोटों के आकार को पहले की अपेक्षा छोटा कर दिया गया । सन् 1978 में, 10,000 रुपये जैसे उच्च मूल्यवर्ग के नोटों को बाजार में सरलता से न आदान-प्रदान होने के कारण और जमाखोरी को रोकने के लिए बंद कर दिया गया । सन् 1996 में, महात्मा गाँधी श्रृंखला के नोट जारी किए गए, जिनमें सुरक्षा संबंधित कई विशेषताएँ रही थीं, जैसे कि वॉटरमार्क, सुरक्षा धागा और गुप्त छवि आदि ।
1980 में विज्ञान और तकनीक के विकास को दर्शाते हुए 2 रुपये के नए नोट पर आर्यभट्, 1 रुपये पर तेल रिंग और 5 रुपये पर कृषि संपन्नता का प्रतीक स्वरूप मशीनीकरण ट्रैक्टर को छापा गया । 10 रुपये और 20 रुपये की कागजी मुद्राओं पर भारतीय कला स्वरूपों, जैसे कोणार्क पहिया, मोर आदि बनाए गए । इनके साथ ही उन सभी रुपयों पर अशोक के शेर वाला स्तम्भ मौजूद रहा ।
1996 में ‘अशोक स्तम्भ’ के स्थान पर महात्मा गाँधी के चित्र के साथ 10 रुपये और 500 रुपये की श्रृंखला जारी किए गए । इस सीरीज ने पहले से चले आ रहे ‘अशोक के शेर-स्तम्भ’ की शृंखला के सभी नोटों को बदल दिया । इसके साथ ही दृष्टिहीन विकलांगों के लिए एक बदला हुआ वॉटरमार्क, विंडोड सिक्योरिटी थ्रेड, लेटेंट इमेज और इंटैग्लियो फीचर युक्त कुछ नई विशेषताओं को उनमें जोड़ा गया । 15 जुलाई, 2010 को भारतीय मुद्रा के लिए एक आधिकारिक प्रतीक-चिह्न '₹' चुन लिया गया है, जिसे आईआईटी, गुवाहाटी के प्रोफेसर डी. उदय कुमार ने डिज़ाइन किया है । अमेरिकी डॉलर, ब्रिटिश पाउण्ड, जापानी येन और यूरोपीय संघ के यूरो के बाद भारतीय रुपया, विश्व का पाँचवी ऐसी मुद्रा बन गया है, जिसे अब उसके प्रतीक-चिह्न '₹' से पहचाना जा रहा है । उसके साथ ही 50 पैसे के सिक्कों और 1 रुपये, 2 रुपये, 5 रुपये और 10 रुपये के सिक्कों तथा कागजी मुद्राओं रुपयों, दोनों की नई श्रृंखला पेश की गई । 2011 में, 25 पैसे के सिक्के और उसके नीचे के सभी पैसे के सिक्कों का विमुद्रीकरण कर दिया गया ।
8 नवंबर 2016 को केंद्र सरकार ने रुपयों की जमाखोरी को रोकने के उद्देश्य से पहले से चलते आ रहे 500 रुपये और 1,000 रुपये के नोटों की कानूनी मान्यता रद्द कर दी और उसके स्थान पर लाल किला पर तिरंगा फहरते हुए 500 रुपये तथा विज्ञान और तकनीकी को प्रदर्शित करता 2000 रुपये के नए नोट जारी किए । इसी के साथ सरकार ने देश के इतिहास में पहली बार 200 रुपये का नोट भी छापा है । इसके अलावा 5 रुपये, 10 रुपये, 20 रुपये, 50 रुपये और 100 रुपये के नए नोटों (रुपयों) की शृंखला भी जारी किए गए, जो सभी वर्तमान में चलायमान रहे हैं ।
(वर्तमान भारतीय मुद्राएँ)
भारतीय रुपयों की कालाबाजारी, नकल और जाली नोटों के मुद्रण को रोकने के लिए भारत सरकार द्वारा समय-समय पर कई ठोस उठाए जाते रहे हैं । उनके नकल को रोकने के लिए भारतीय रुपयों पर वाटरमार्क, सुरक्षा धागा, अप्रकट छवि, सूक्ष्म- लेखन, उत्कीर्णन, पहचान चिह्न, प्रतिदीप्ति, प्रकाश में परिवर्तनीय स्याही, अंकन की सूक्ष्मता आदि विशेषताओं को जोड़ा गया है । इसके अतिरिक्त भारतीय रुपयों के नकल, अर्थात जाली नोटों का मुद्रण और उसका परिचालन, भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं 489 ए से 489 इ के अंतर्गत संगीन अपराध निश्चित किया गया है । इससे संबंधित किसी भी अपराधी को किसी विधिक न्यायालय द्वारा आर्थिक दण्ड, अथवा कारावास, या फिर दोनों के रूप में ही दंडित किया जा सकता है ।
2016 में ही भारत में डिजिटल भुगतान (UPI, PhonePe, Paytm आदि) का भी बहुत ही तेज़ी से विकास हुआ है, जो बहुत ही कम समय में ही वस्तु-विनिमय के प्रमुख साधन बन गए हैं । आज भारत, UPI के माध्यम से लेन-देन में विश्व में अग्रणी बन गया है । 2023 में ₹ 2000 के नए नोटों को चरणबद्ध तरीके से विनिमय के क्षेत्र से चलन से बाहर किया गया है । भारतीय रिजर्व बैंक ने डिजिटल रुपये (e-₹ - Central Bank Digital Currency) की शुरुआत की है, जिससे भविष्य में डिजिटल मुद्रा को और भी अधिक बढ़ावा मिलेगा ।
डिजिटल रुपया (e₹) से भौतिक नकदी की आवश्यकता कम होती जा रही है । व्यापारियों और उपभोक्ताओं को अब मोबाइल या डिजिटल वॉलेट के माध्यम से भुगतान करना सरल हो गया है । त्वरित (तुरंत) लेन-देन की सुविधा प्राप्त हो रहा है । इससे नकदी मुद्रा प्रबंधन की लागत में कमी आई है । फलतः मुद्राओं (रुपयों) की जीवंतता में वृद्धि हुई है । ATM, नकदी ढुलाई आदि पर खर्च घटा है । रुपयों के खो जाने या चोरी या छिनटाई हो जाने जैसी घटनाओं पर भी लगाम कस गया है । डिजिटल लेन-देन में सभी डाटा का रिकॉर्ड उपलब्ध रहता है, जिससे काले धन पर नियंत्रण, कर संग्रह में वृद्धि, भ्रष्टाचार में कमी संभव हुई है । दूर-दराज़ इलाकों में, जहाँ बैंकिंग सुविधाएँ अत्यंत ही सीमित हैं, वहाँ अब मोबाइल के जरिए, डिजिटल रुपया लोगों को प्राप्त हो जा रहा है और उन्हें विनिमय की स्वतंत्रता और सुरक्षा प्राप्त हो रहा है । इससे गरीब और ग्रामीण वर्ग भी राष्ट्रीय डिजिटल अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में शामिल हो रहे हैं ।
(डिजिटल रुपये)
भारत में मुद्रा (रुपये) की विकास यात्रा, प्राचीन काल में कौड़ियों से प्रारंभ होकर वर्तमान में डिजिटल विनिमय भुगतान और डिजिटल रुपये तक की एक लंबी और विकासशील मार्ग पर तय हुई है । समयानुसार मुद्रा (रुपये) के क्षेत्र में हो रहे परिवर्तन, भारत के केवल आर्थिक बदलाव को ही नहीं, बल्कि भारत की आर्थिक संप्रभुता, आत्मनिर्भरता और तकनीकी उन्नति को भी संकेतित करते हैं । हलाकी भारतीय विनिमय मुद्रा (रुपये) की यह विकास यात्रा, विश्व के अन्य देशों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हुए, अभी भी गतिशील है । इसके अनगिनत भावी स्वरूप अभी भी भविष्य के गर्भ छिपे हुए हैं, जो समयानुसार हमें अवलोकित होते ही रहेंगे ।
श्रीराम पुकार शर्मा,
अध्यापक व स्वतंत्र लेखक,
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