79 वर्षों पहले मिली स्वतंत्रता केवल एक तारीख या घटना नहीं, बल्कि करोड़ों सपनों की जीत थी। आज भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र और पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। पर अब सवाल है — क्या हम विश्व की सबसे मज़बूत, सम्मानित और मार्गदर्शक शक्ति बन सकते हैं? इसके लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता, तकनीकी नेतृत्व, पर्यावरणीय जिम्मेदारी, सामाजिक एकता और नैतिक वैश्विक भूमिका अनिवार्य हैं। भारत की सभ्यतागत बुद्धि और युवा ऊर्जा मिलकर 21वीं सदी को आकार दे सकती है। तिरंगे की हर लहर हमें याद दिलाती है — प्रगति एक सतत यात्रा है, ठहराव नहीं।


---डॉ. सत्यवान सौरभ

आज से उनहत्तर वर्ष पहले जब आधी रात का समय आया, इतिहास ने करवट ली। अंधकार के गर्भ से एक नए युग का जन्म हुआ। गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा यह देश अचानक स्वतंत्रता की धूप में नहा गया। तिरंगा केवल लाल किले की प्राचीर पर ही नहीं, बल्कि करोड़ों दिलों में लहराया। वह दिन केवल राजनीतिक स्वतंत्रता का उद्घोष नहीं था, बल्कि आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास की पुनर्स्थापना का भी आरंभ था। परंतु आज, जब भारत अपनी स्वतंत्रता के उनहत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर चुका है, हमें यह प्रश्न करना होगा — क्या हमने उस स्वतंत्रता को केवल स्मृति के रूप में सहेजा है या उसे विश्व की सबसे मज़बूत शक्ति में बदलने का संकल्प लिया है?

स्वतंत्रता का मूल्य केवल इतिहास की किताबों में नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के जीवन में मापा जाता है। जब कोई किसान अपने खेत में बीज बोते समय यह विश्वास रखता है कि उसकी मेहनत का फल उसे मिलेगा, जब कोई छात्र अपने विद्यालय में यह सपना देखता है कि वह विज्ञान, साहित्य, कला या खेल में नयी ऊँचाइयाँ छू सकता है, जब कोई महिला निर्भय होकर अपने घर से बाहर कदम रखती है — तभी स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ साकार होता है।

भारत आज विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जिसकी जनसंख्या एक सौ चालीस करोड़ से अधिक है। यह संख्या केवल एक आँकड़ा नहीं, बल्कि एक जीवंत ऊर्जा है। यह ऊर्जा, यदि सही दिशा और दृष्टि मिले, तो हमें विश्व का सबसे मज़बूत और सम्मानित राष्ट्र बना सकती है। हम पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं, और हमारे पास विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष अनुसंधान और सांस्कृतिक विरासत में अद्वितीय सामर्थ्य है। फिर भी, यह मान लेना कि हम पहले ही विश्व-नेतृत्व की स्थिति पर पहुँच चुके हैं, हमारी प्रगति के लिए सबसे बड़ा अवरोध होगा।

आज की शक्ति का अर्थ केवल युद्धक्षेत्र में जीतना नहीं है। सच्ची शक्ति उस राष्ट्र की होती है, जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो, तकनीकी नवाचार में अग्रणी हो, पर्यावरण संरक्षण में उदाहरण बने और अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़कर विश्व को नई दिशा दे। भारत को आने वाले वर्षों में यह सिद्ध करना होगा कि वह केवल अपनी सीमाओं की रक्षा ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए संतुलन और शांति का केंद्र बन सकता है।

हमारी प्राथमिकताओं में सबसे पहले शिक्षा आनी चाहिए। केवल साक्षरता से आगे बढ़कर हमें ज्ञान, कौशल और शोध का ऐसा तंत्र बनाना होगा जो हमारे युवाओं को विश्व के किसी भी कोने में प्रतिस्पर्धा के योग्य बना सके। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में नवाचार और अनुसंधान की संस्कृति को प्रोत्साहित करना आवश्यक है।

दूसरा, हमें कृषि और उद्योग दोनों में आत्मनिर्भरता को नई परिभाषा देनी होगी। ‘आत्मनिर्भर भारत’ केवल एक नारा नहीं, बल्कि एक ठोस नीति होनी चाहिए जिसमें ग्रामीण विकास, शहरी तकनीक और पर्यावरणीय संतुलन एक साथ शामिल हों। हमारे किसान को आधुनिक उपकरण, वैज्ञानिक खेती के तरीके और बाजार में उचित मूल्य की गारंटी मिले, तभी देश का आधार मज़बूत होगा।

तीसरा, रक्षा क्षेत्र में हमें विदेशी तकनीक के आयातक से आगे बढ़कर स्वदेशी हथियारों और प्रणालियों के निर्माण में अग्रणी बनना होगा। इससे न केवल हमारी सुरक्षा सुनिश्चित होगी, बल्कि हमें रक्षा उद्योग में निर्यातक राष्ट्र के रूप में पहचान मिलेगी।

चौथा, ऊर्जा के क्षेत्र में हमें जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता घटाकर सौर, पवन और जैव ऊर्जा में अग्रणी बनना होगा। स्वच्छ ऊर्जा में नेतृत्व न केवल हमारे पर्यावरण को बचाएगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित भविष्य देगा।

पाँचवाँ और सबसे महत्वपूर्ण, हमें सामाजिक एकता को अक्षुण्ण रखना होगा। धर्म, भाषा, जाति या क्षेत्र के आधार पर होने वाले विभाजन हमारी सबसे बड़ी कमजोरी बन सकते हैं। एक राष्ट्र तभी मज़बूत बनता है, जब उसके नागरिक विविधता में एकता की भावना को केवल पुस्तकों में नहीं, बल्कि अपने व्यवहार और निर्णयों में जीते हैं।

भारत के पास एक विशिष्ट सभ्यतागत पूँजी है — सहिष्णुता, करुणा और सहयोग की भावना। यदि हम इन मूल्यों को अपनी नीतियों और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में केंद्र में रखें, तो हम एक ऐसे वैश्विक नेतृत्व की स्थापना कर सकते हैं जो बल से नहीं, बल्कि विश्वास और प्रेरणा से संचालित हो।

79 वर्षों की यह यात्रा हमें यह सिखाती है कि प्रगति कोई क्षणिक उपलब्धि नहीं, बल्कि सतत प्रयास है। अशोक चक्र के 24 आरे हमें यह याद दिलाते हैं कि राष्ट्र की गति कभी रुकनी नहीं चाहिए। आज का भारत विज्ञान में मंगल और चंद्रमा को छू रहा है, खेलों में विश्व मंच पर झंडा बुलंद कर रहा है, और कला-संस्कृति में दुनिया को अपनी ओर खींच रहा है। लेकिन इन सफलताओं को स्थायी और व्यापक बनाने के लिए हमें दीर्घकालिक दृष्टि और अटूट इच्छाशक्ति चाहिए।

79वें स्वतंत्रता दिवस पर हमें अपने पूर्वजों के बलिदानों को केवल श्रद्धांजलि देने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उस बलिदान को अपने कर्म और संकल्प से सार्थक करना होगा। हमें यह तय करना होगा कि आने वाले 21वीं सदी के शेष वर्षों में भारत केवल विश्व का एक हिस्सा नहीं रहेगा, बल्कि वह शक्ति बनेगा जो इस सदी की दिशा तय करेगी।

जब हम तिरंगे को लहराते हैं, तो उसका केसरिया रंग हमें साहस का संदेश देता है — साहस केवल युद्ध के मैदान में नहीं, बल्कि सही निर्णय लेने, कठिन सुधार लागू करने और अन्याय के खिलाफ खड़े होने में भी चाहिए। सफ़ेद रंग हमें सत्य और पारदर्शिता की याद दिलाता है, जो लोकतंत्र की आत्मा है। हरा रंग हमें सतत विकास की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है, और अशोक चक्र हमें सतत गतिशील बने रहने का संदेश देता है।

यह समय है जब भारत अपने अतीत से प्रेरणा लेकर, वर्तमान की चुनौतियों को स्वीकारते हुए, भविष्य को आकार देने का संकल्प ले। हमें यह विश्वास रखना होगा कि यह केवल एक राष्ट्र का विकास नहीं, बल्कि मानवता के लिए एक नई दिशा का निर्माण है। 79 वर्षों की इस यात्रा से हम विश्व-नेतृत्व की दहलीज़ पर पहुँच चुके हैं — अब हमें केवल उस कदम को आगे बढ़ाना है। भारत का समय अब है।

— डॉ. सत्यवान सौरभ

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