जो लोग नब्बे के दशक तक गाँव में रहे हैं उस समय की की शादी का सक्षिप्त वर्णन करने जा रहा हूँ शायद आप एक बार अवश्य अपने उस स्वर्णिम काल में वापस चले जाएगें। छोटी बहन सरूली अठारह साल की हो गई थी पिताजी के अलावा रिश्तेदार और गाँव वालों को भी सरुली की शादी की चिंता होने लगी थी।अपने कुलपरोहित के माध्यम से रिश्ता हो गया। सरुली के होने वाले ससुर आए रात के खाने के बाद रिश्ते पर बात हुई लड़का दिल्ली में सरकारी नौकरी पर है बोले तो किस पद पर है कितनी तनख्वाह है किसी ने नहीं पूछा हां मंगसीर का महीना था पिताजी ने आनाज के बारे में जरूर पूछा कितना हुआ तो उन्होंने बताया कि मंडुवा बीस दूंण,झुंगोरा बारह दूण और धान पच्चीस दूण, गैथ मास पूरे साल की दाल हो जाएगी।बस और क्या चाहिए रिश्ता मंजूर। फाल्गुन में शादी बोलकर चले गए।तब लड़की लडका दिखाई मात्र फारमुलटी था। पिताजी ने तीन महीने में सभी सामान जुटा लिया।लकड़ी फाडने के दिन से शादी का माहौल शुरू हो गया। सारे गाँव के लोग दूर जंगल में लकड़ी फाड़ कर आगए गाँव की महिलाओं ने सब लकड़ी लाकर एक जगह कठा कर दिया गुड़ की सिरणी बांटी गई सब सिरणी लेकर खाना खा कर अपने घर चले गए।बीच में सरुली के ससुर आए थे कूटने पीसने का दिन सुनाने। सारे गाँव में एक एक नाली गेहूं पीसने को दे दिया गया एक हफ्ते में सबने पीस कर आटा घर पर भेज दिया। दो दूण धान भी सुखा दिए अगले हफ्ते सामूहिक रुप से सबने धान भी कूट लिए। उड़द , मिर्च धनिया सब सुखा दिए थे। बीस दिन पहले ऋषिकेश जाना तय हुआ गाँव के समझदार मुंशी बाडा और और एक और काका बाजार गए और जरुरत का सामान ले कर आगए। (तब शादी के सामान लेने साथ में गाँव वाले ही जाते थे आज की तरह शाला या साढू नहीं उनकी दखलंदाजी गाँव में चलती ही नहीं थी)सामान आने के बाद दरजी, लोहार,औजी,पोरी सबको सूचित कर दिया।रिश्तेदारी में न्योता देने गाँव से दो तीन आदमी चले गए। शादी के दो दिन पहले गाँव के सबसे और सबके भरोसे वाले गुंदरु काका सामान चैक कर चले गए वही सबकी शादी में स्टोर संभालने का काम करते हैं। अगले दिन झीमा बूबा जी भी मालू पता लेकर आगए और पतल लगानी शुरू करदी।रात को अरसे भी बन गए। अब आगया शादी का दिन सुबह सुबह पंडित जी पंहुच गए उसके बाद औजी झाबा दादा पहुंचे और सुंदर बढई बजाकर बैठ गया।दो तीन महिला तिमले के पात भी ले आई पंडित जी ने पुडके लगाने शुरू किए।दो तीन बच्चों की ड्युटी पंडित जी के साथ जो भी जरूरत पडे पूरी करना। अंदर गणेश पूजा चल रही है चौक गाय के गोबर से लीप लिया है। बांदे शुरू।
माँगलो की मधुर सुरीली और खुद से भरी भौंण (आवाज) से सरूली को बांद देने वाली हर महिला के आंखों में खुद यानी कि (याद) के आंसू थे। सरूली की आंखों से झर झर बहते आँसू और माँगल गीतों की धुन मानो दोनों एक साथ निकल रही हों !!
कुछ दूरी पर बैठे बुजुर्ग माले के पत्तों से पुड़खे ( दोने) और पत्तलों को दुरुस्त कर रहे थे !! शाम को बरात आने से पहले खाना बनाने में पूरा गाँव जुटा हुआ था। जगतु काका जोकि कल्यो सूजी बनाने के मास्टर थे वो अपनी भरपूर ऊर्जा से इस काम मे लगे थे !!
सरूली का छोटा भुल्ला दीपू अपने दोस्तों के साथ आटे की लेयी बनाकर पतंगों से चौक आंगन को सजा रहा था !!! गाँव का पुरण सिंह जोकि पँचलेट रूपी गैस पर मेंटल फिट कर रहा था । पूरा गाँव अपनी अपनी हिस्से की जिम्मेदारी दिल से निभाकर सरूली की शादी में व्यस्त था !!!
सांझ ढल गयी थी । उस समय सांझ ढलते ही आजकल की तरह कॉकटेल रूपी झांझ का चलन नही था !! सब लोग जिम्मेदारी लेकर उसमे डूबकर काम करते थे !! दूर कहीं ढोल की थाप सुनते ही गाँव के लड़के बरात के स्वागत के लिए दौड़ पड़े थे ।उनके हाथ मे रोशनी के नाम पर मशालें और एक दो पँचलेट थी । फिर जोश से गाँव के लड़कों ने बरात का स्वागत किया --- आये हुए बरातियों का स्वागत करो ..( स्वागत श्रीवर स्वागत गुरुवर स्वागत हो स्वीकार) वर बधू की जोड़ी अमर आज का दिन अमर रहे जय जय की आवाज से गाँव की महिलाएं ब्योला (वर नारायण) को देखने के लिए अपनी नियत जगह बना चुकी थी !!!
सब ब्योला का चेहरा देखने के लिए उत्सुक हुए जाते थे !!! स्वागत के बाद ,जलपान और कई कई किलोमीटर से थके हारे बरातियों के लिए बीड़ी ,सिगरेट ,सौंप ,सुपारी की व्यवस्था थी !!सिर्फ बीड़ी की चोरी कभी कभी हो जाती थी। उधर धल्यार्ग चल रहा है इधर चाय पानी और शिष्टाचार मात्र एक रुपए। और इधर
तभी गाँव की महिलाओं ने बरात पक्ष को दी जाने वाली मीठी गालियों के लिए मोर्चा खोल दिया था , मल्ली खोल्ला की पार्वती काकी , मुल्ली खोल्ला की जगदीश्वरी , कमला ,बिमला सब इन गालियों को बनाने की एक्सपर्ट थी ....
हमारा गौं मा ... सोने की चादर !!ब्योला का बूबा ते लीजि ग्ये बांदर !!!
हमारा गौं मा ... सट्टी अर कोणी ... ब्योला का भैना ते लीजि ग्ये गौणी !!!!
हमरा गौं मा पाकी पकौड़ा , ब्योला का मामा तें भैर खकोडा !!!
इस तरह की मीठी व बरात पक्ष को चिढ़ाने वाली गालियों से खिखताट मच जाता !! सब ठहाके लगाकर हँसते !!! रात को नीचे बैठकर खाने की व्यवस्था बाल मंगल दल खाने खिलाने में मस्त और व्यस्त। रात को गोत्राचार सभी चाचा चाची ताई ताऊ बैठे रहे। कुल से बेटी का दान हो रहा है। साढू शाली मौसी का कोई काम नहीं आज उनके विना अधूरा। सुबह गाय दान में मामा की भूमिका और
फिर सरूली की बरात की विदाई का समय था , डोला सज चुका था , सरूली के मामा ने उसे अपनी गोद मे उठाया और चौक में रखे डोले में उसे रख दिया !! सरूली जोर जोर से रो रही थी , उसकी नथुली उसके नाक से झूल रही थी , उसके आँसू उसके गालों से बहते ही जा रहे थे !!! गाँव की सारी औरतें भी सुबुक सुबुक कर सरूली को विदा कर रही थी !! डोले के बगल में खडा सरूली का छोटा भुल्ला दिप्पू भी अपनी बहन को विदा करते हुए मायूस हो रहा ,टप टप आंसू बहा रहा था !! सरूली की माँ का तो रो रो कर बुरा हाल था !!! कहते हैं मर्द कभी नही रोते पर एक बेटी की विदाई पर शायद ही कोई मर्द हो जिसकी पलकें गीली न होती हों !!! धीरे धीरे बरात विदा हो गयी थी !! शादी में जहाँ ,लड़के पक्ष के यहाँ बरात दुल्हन लेकर लौटती है ,वहाँ के खुशनुमा माहौल और दुल्हन के घर का विदाई के बाद का माहौल इस बात का धोतक हैं कि बेटी की विदाई उसके घर वालों के लिए आसान नही होती !!! पंदूण में लगभग दस ही आदमी गए।पदूण पहुचते ही सरुली गाँव के रास्ते में पदूण खाने आई।
इधर धीरे धीरे मेहमान जाने लगे । सरूली की माँ सबके लिए कुट्यारी ,बुज्याडे में अरसे रोटने बांधने लगी !!!
कुछ ही दिनों बाद सरूली की माँ अपनी पुरानी गृहस्थी में लौट आयी ,फिर से वही गाय ,भैंस ,घास न्यार !! जब खेतो में जाती तो सरूली की बहुत याद आती !! सरूली कैसे फटाफट अपनी माँ के साथ घास के पुले बांधती थी ?? कैसे वो बड़े बड़े भीमल के पेड़ों में चढ़कर घास काटती थी ?? अपनी माँ के कहने से पहले ही वो सबकुछ कर लेती थी !!! भैंस ने कुछ दिनों से दूध भी कम कर दिया था ,क्योंकि सरूली ही उससे दूध निकालती थी , वो एक हथ्या हो गयी थी !!!
सरूली की माँ को सरूली की बहुत खुद लगती थी !!
रात को जब सरूली की माँ चूल्हे पर रोटी पकाती , बगल पर दिप्पू बैठा किताब बांच रहा होता ,और सरूली के पिताजी रेडियो सुन रहे होते तो अचानक आग भभड़ाने लगती ... तो माँ रुंवासी होकर कहती ... अरे म्येरी सरूली होली याद कन्नी !!! तभी रेडियो पर आकाशवाणी नजीबाबाद से गढ़वाली गाना सुनाई पड़ता..... घुघुती घुराण लगी मेरा मैत की .... बौडी बौडी एगी ऋतु ऋतु चैत की !!!!
ये गाना सुनते ही माँ की आंखों से टप टप करके अश्रुधारा बहकर गूंथे हुए आटे में जा गिरती !!!
दीपू को भी ये देखकर दीदी की खुद लगने लगती !!! दीपू की कॉपी किताबो पर जिल्द लगाने से लेकर उसको पढ़ाने तक का सारा काम सरूली करती !!! यहाँ तक कि बाजार से पिताजी के लिए सत्ताईस बीड़ी का बंडल भी वही लाती थी !!!
इधर सरूली अब अपने नए घर मे थी !!! सास और बहू कभी दोस्त नही हो सकती , इसका सबसे बड़ा कारण है कि सास हमेशा अपना साम्राज्य कायम रखना चाहती है , उसके अंदर एक भय भी रहता है कि मेरे बेटे की मालकिन अब सिर्फ मैं ही नही कोई और भी है !!! दूसरा बहु भी अपने मायके का साम्राज्य छोड़कर आती है तो ऐंठ दोनों तरफ से बराबर ही रहती है !! और इन दोनों की ऐंठ में सबसे ज्यादा ऐंठन में रहता है राजकुमार !!!
खैर । पुराने जमाने की सासें बेहद क्रूर सम्रागी हुआ करती थी !! अब ऐसा कम है ,क्योंकि अब बहुएं भी किसी तीखी छुरी से कम नही होती !!
सरूली तो बहुत सगोरदार बहु थी फिर भी सास अपने मीन मेख निकालने का फर्ज जरूर पूरा करती थी , बिना मीन मेख निकाले उसको छपछपि नही पड़ती थी !!!
सरूली को भी अपने मायके की बहुत खुद लगती !!! भैंस का दूध निकालते हुए उसको बडुली लगी तो ... रुंवासी हो उठी , उसको माँ दिप्पू और पिताजी की बहुत याद आ रही थी .... और अश्रुधारा उसके गालों से लुढ़कते हुए दूध के बर्तन में गिरने ही वाली थी कि उसने पोंछ ली !!!
सरूली जब घास के लिए जंगल जाती तो जंगल की धार से दूर उसके मायके का पहाड़ दिखाई पड़ता था !! वहाँ बैठकर एकटक उस पहाड़ को निहारती रहती !!
जंगल आते समय वो सास की नजरों से बचाते हुए, शादी में बचे कुछ अरसे भी अपनी धोती की गांठ में बांधकर ले आयी थी !! उसने धार में बैठे बैठे अरसे का एक टुकड़ा मुँह में डाला तो ,उसको और भी ज्यादा खुद लगने लगी थी , वो रोने लगी और अरसे का एक टुकड़ा उसके गले मे ही फँस गया !! बड़ी मुश्किल से वो उसको निगल पाई थी !!!
उसे सबसे अच्छा लगता था ,जंगल की इस धार में आकर बैठना क्योंकि यहाँ से उसका मुल्क दिखता था !!
ससुराल में गाँव के और भी एक दो रिश्तेदार थे , उनके यहाँ अगर कभी कोई आ जाता तो माँ उनके पास अपनी सरूली के लिए कुछ न कुछ भेज देती थी !! मायके का कोई भी दिख जाए तो उसके प्रति आत्मीयता और भी उमड़ जाती थी !!!
एक दिन सरूली जंगल से आ रही थी , दूर धार में उसे कोई आता दिखाई दिया , एक झोला टांके एक छोटा सा लड़का पसीने से लथपथ था .. वो पहचान गयी ..ये तो उसका छोटा भुल्ला दीपू है !! उसने घास की भारी वहीं पर छोड़ी और दौड़कर दिप्पू को अपने सीने से चिपका दिया , दिप्पू ने भी कसकर अपनी दीदी को भेंटने लगा !! दोनों की आंखों से खुशी व मिलन के आँसू चू कर एक दूसरे के गालों को भिगोने लगे !!! अहा क्या वात्सल्यमयी प्रेम था !! एक भाई बहन जो महीनों से एक दूसरे की खुद में थे , उनका ये बेहद सुखद मिलन था !!! अपने दोनों हाथों से सरूली ने दीपू के आँसू पोंछे और माँ बाबा का हाल पूछा !! सरूली ने घास की भारी उठायी तो उसे आज ये घास की भारी किसी फूल की तरह हल्की लग रही थी , दोनों घर गाँव की बाते करते करते जा रहे थे !!!
अब अगले ही दिन दीपू के साथ सरूली मायके के लिए रवाना हो चुकी थी , कई कई किलोमीटर का सफर दोनों ने चंद समय मे ही पार कर लिया था !!
माँ ने भात,हरि भुज्जी और प्लयो बनाकर रखा था !! कुछ ही समय बाद सरूली अपने चौक में थी , माँ ने भी अपनी सरूली को खूब भेंटा ,गले लगाया !! मायके में आकर सरूली इतनी आजादी महसूस कर रही थी कि शब्दो मे बयाँ करना मुश्किल है । ये आजादी वो हर विवाहित लड़की महसूस कर सकती है , जिसके भाई की अभी तक शादी न हुई हो !!!
दिन कब गुजर गए पता ही न चला !! अगली सुबह सरूली को जाना था , माँ ने सारी तैयारी कर ली थी !! उस रात दोनों मॉ बेटी सो न पाए थे ,दोनों देर रात तक गप्पे मारते रहे !! अभी से सरूली को खुद लगने लगी थी !! उसके आंखों से वो खुदग्योर आँसू लगातार चू कर बिस्तर पर गिरते जा रहे थे !!
अगली सुबह सरूली ससुराल के लिए चल दी थी , दूर जंगल तक माँ भी साथ साथ चल रही थी !! फिर एक धार में दोनों एक दूसरे की खुद में रोने लगे !! माँ धार में सरूली को तब तक देखती रही जब तक वो आखों से ओझल न हो गयी हो !! सरूली भी चल तो आगे की तरफ रही थी पर उसकी गर्दन मुड़ मुड़ कर माँ को ही देख रही थी !!!
वक्त एक दूसरे की खुद में यूँ ही बीतता चला गया , और फिर आया मोबाइल क्रांति का दौर !!! आज दोनों एक दूसरे से फ़ोन पर खूब बातें करती हैं । मोबाइल आने से अब दोनो की खुद भी खो गयी है !! अब तो क्या खाया ?? क्या पकाया ?? से लेकर इसकी ब्वारी ऐसी ,उसकी ब्वारी वैसी ...तक की सारी बातें फ़ोन पर करने में दोनों निपुण हो गयी हैं ।।
सरूली अब जब भी मायके आती है ,दीपू भी मोबाइल में व्यस्त रहता है !! दोनों माँ बेटी की रातें अब मीठी मीठी गप्पों की बजाय टीवी सीरियलों में खो गयी है ।
संचार क्रांति ने शायद उस खुद, प्रेम , स्नेह व वात्सल्य का हरण कर लिया है !!! रिश्ते तो सब यूँ ही बरकरार हैं पर इनके बीच संचार क्रांति एक लक्ष्मण रेखा खींच गई है !!
- गणेश नौटियाल
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