धारावाहिक उपन्यास 


(अंतिम किस्त)

- राम बाबू नीरव 

धनंजय फिर चार दिनों तक नजर नहीं आया. संध्या की उन तीखी बातों का उस पर क्या प्रभाव पड़ा, इससे संध्या अनभिज्ञ थी. वैसे वह उसके बारे में सोचना भी नहीं चाहती थी. वह जिस पथ पर चल पड़ी थी वह वैराग्य तो नहीं था, परंतु इस मार्ग पर चलते हुए किसी भी पुरुष के बारे में सोचना उचित भी नहीं था. इसलिए उसके मन में न तो  धनंजय था और न ही राजीव. अभी वह केसरिया साड़ी  पहनी हुई पूजा वेदी पर बैठी थी. उसके सामने रूपा, रघुवीर तथा अन्य नौकर बैठे थे. वह रामचरित मानस का पाठ कर रही थी. वहां का पूरा वातावरण राममय हो चुका था. उसके कंठ से निकल रहे सुमधुर स्वर लहरी को सुनकर सभी मुग्ध थे -

"कह प्रभु लक्ष्मण यों बाता,

पहचानत पट भूषण ताता ।

हाथ जोरि लक्ष्मण

इमि बोले,

रघुनायक सौ वचन अमोले।।

पग भूषण मैं सकल चिन्हारी, 

ऊपर कबहु न सीय निहारी।"

इस चौपाई का भावार्थ यह है कि मां सीता का दुष्ट रावण ने हरण कर लिया था. श्री राम और लक्ष्मण विकल होकर उन्हें जंगल में ढूंढ रहे थे. अपनी प्राण-प्रिया के वियोग में श्री राम जी इतने विकल हो चुके थे कि वे अपना सुध-बुध खो चुके थे. माता सीता ने अपने जो आभूषण फेंके थे वे सब उनके ऊपरी अंगों के थे. प्रभु श्रीराम जी उन आभूषणों को दिखाते हुए पूछते हैं कि प्रिय अनुज बताओ क्या ये सभी आभूषण सीता के ही हैं न.?" तब लक्ष्मण जी कहते हैं कि हे तात ! मैंने तो उनके चरण छोड़कर कभी उनका मुखमंडल देखा ही नहीं, इसलिए कैसे कहूं कि ये आभूषण भाभी के ही हैं." संध्या के मुंह से रामचरित मानस के इस प्रसंग को सुनकर सभी भावुक हो उठे और उनकी आंखें गिली हो गयी. रूपा तो सिसकियां ले लेकर रोने लगी. बाहर एक और शख्स रो रहा था, परंतु कोई समझ नहीं पाया कि बाहर रोने वाला शख्स है कौन ?

तभी आंधी तूफान की तरह विक्षिप्त की सी हालत में धनंजय भीतर प्रविष्ट हुआ और संध्या की कलाई पकड़कर उसे पूजा वेदी पर से उठाते हुए बोला -"चलो यहां से."

"कहां....?" नर्वस होती हुई संध्या ने पूछा.

"जहां मैं तुम्हें ले जाना चाहता हूं."

"धनंजय तुम." संध्या कसमसाने लगी.

"बस, अब मैं तुम्हारी एक भी बात नहीं सुनूंगा. तुम्हें जितना उपदेश देना था, दे चुकी. अब मैं जो कुछ भी करने जा रहा हूं वह मेरा अंतिम फैसला है."

संध्या कुछ भी न बोली. वह स्वयं को असहाय महसूस करने लगी. धनंजय उसे लगभग घसीटते हुए कमरे से बाहर निकल गया. उसकी इस धृष्टता को देखकर रघुवीर और रूपा का खून खौल उठा, मगर वे दोनों भी क्या करते, उसके गुलाम जो ठहरे.

    रंगमहल के प्रांगण में धनंजय की गाड़ी खड़ी थी.  जब धनंजय ने उसके लिए पीछे का दरवाजा खोला तब संध्या चौंक पड़ी. मगर कुछ बोली नहीं, चुपचाप पिछे की सीट पर जाकर बैठ गयी. उस समय रात्रि के दस बज चुके थे. माघ का महीना था.  ठंड तो थी ही कुहासा भी भयंकर रूप धारण कर चुका था. उस अंधेरी रात में धनंजय की गाड़ी तीव्र गति से भागी जा रही थी. कुहासा के कारण संध्या समझ नहीं पायी कि धनंजय आखिर उसे कहां लिये जा रहा है. लगभग बीस मिनट के बाद ही एक हिचकोले के साथ गाड़ी रुक गयी. धनंजय ने नीचे उतर कर पीछे वाला दरवाजा खोल दिया. जब वह गाड़ी से बाहर निकली‌ तब उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा. धनंजय उसे फार्म हाउस में ले आया था. संध्या का दिल तेजी से धड़क उठा. आखिर इस आदमी की मंशा क्या है? मैं इसे बता चुकी हूं कि राजीव मेरा पति है फिर भी यह दुष्ट अपनी घिनौनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है. फार्म हाउस का बंगला घुप अंधकार में डूबा हुई था. हालांकि हर जगह बल्ब और भेपर लाइट जल रहे थे मगर धुंध ने उनकी रौशनी छीन ली थी. संध्या की समझ में ‌न आया कि धनंजय उसे अपने रंगमहल से निकाल कर फार्म हाउस में क्यों ले आया है.? राजीव भी यहां नहीं है और बुआ जी तथा शान्ति के साथ साथ फार्म हाउस के सारे नौकर उससे नफ़रत करते हैं, ऐसे माहौल में वह कैसे रह पाएगी? तभी धनंजय जोर जोर से गाड़ी का हार्न बजाने लगा. अंधेरे में डूबे फार्म हाउस की सारी बत्तियां जल उठी फिर कुछ देर बाद कंबल से अपने पूरे शरीर को लेपेटे हुए एक व्यक्ति बाहर निकला और धनंजय के सामने आकर खड़ा हो गया. एकाएक संध्या के मुंह से हर्षित स्वर निकल पड़ा -

"माधव भइया." संध्या की चिरपरिचित मृदुल आवाज सुनकर माधव खुशी से उछलते हुए हलक फाड़कर चीख पड़ा -

"बुआ जी, शान्ति.....जल्दी नीचे आओ. शान्ति आ गयी." माधव के प्रसन्नता के इस उद्वेग को देखकर संध्या समझ गयी कि उसकी अनुपस्थिति में इस फार्म हाउस में बहुत कुछ घटित हो चुका है, बुआ जी शान्ति और माधव के मन में उसके प्रति जो कलुषित भाव थे, वे दूर हो चुके हैं. उसका अंग अंग पुलक उठा, अब धनंजय इस फार्म हाउस में उसे चाहे जैसे भी रखना चाहे वह रह लेगी. कुछ देर बाद ही बंगला रौशनी से जगमगा उठा. धनंजय के साथ संध्या ने हॉल में कदम रखा. उसकी नजर अनायास ही ऊपर राजीव के कमरे की ओर चली गयी. वह कमरा अंधकार में डूबा हुआ था. संध्या का दिल कसक उठा. वह मन ही मन सोचने लगी -"काश आज यहां राजीव होता, तो यह दुष्ट धनंजय अपनी मनमानी तो न करता." 

तब-तक शारदा देवी और शान्ति भी हॉल में आ गयी. इस आधी रात्रि में पूरे बंगला में चहल-पहल होने लगी. हरिहरन और उसकी पत्नी भी वहां आ चुकी थी. सभी हैरान नजरों से संध्या को घूरे जा रहे थे. उनकी हैरानी की वजह थी संध्या का साध्वी के वेश में होना. उसे इस वेश में देखकर शारदा देवी के दिल को धक्का लगा. संध्या लपकती हुई उनके करीब आयी और उनके कदमों में झुक गयी. उन्होंने झट से उसे थाम लिया. परंतु संध्या से‌ नजरें मिलाने की उनमें हिम्मत न थी. ग्लानि से उनकी नजरें झुक गयी. बुआ जी क्या आप अब भी मुझसे नाराज़ हैं. संध्या की बात सुनकर शारदा देवी तड़प उठी और‌ उनकी पलकें भींग गयी. भावावेश में आकर उन्होंने उसे अपनी आगोश में भींच लिया. 

"तुम्हारे यहां से जाने के बाद मुझ पर क्या बीती मैं तुम्हें कैसे बताऊं. संध्या बेटी मुझे माफ कर दो, मुझसे बहुत भारी गलती हो गयी. 

"बुआ जी यदि आप ऐसी बातें करेंगी तो मैं फिर यहां से चली जाऊंगी." 

"थप्पड़ मारुंगी मैं." खुशी से उछलती हुई शान्ति बोल पड़ी -"बहुत तड़पाया है तुमने हम सबों को." शान्ति अपनी खुशी के उद्वेग को रोक नहीं पायी. और उसकी आंखों से आंसू बहने लगे. तभी बाहर एक और गाड़ी के रूकने की आवाज आई. 

"इतनी रात को अब और आ कौन आ गया." शारदा देवी ने आश्चर्य से माधव की ओर देखते हुए पूछा.

"मैं बाहर जाकर देखता हूं बुआ जी." 

"नहीं तुम्हें बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है, वे लोग जो भी हैं, स्वयंमेव अन्दर आ जाएंगे. धनंजय माधव को रोकते हुए बोला. माधव रूक गया. अब सभी की निगाहें धनंजय पर टिक गयी. 

"तुम घूंघट काढ़ लो." धनंजय ने संध्या की ओर देखते हुए कहा. उसकी बात सुनकर संध्या के साथ साथ सभी लोगों का सर चकरा गया. वहीं संध्या के मुंह से अस्फुट सा स्वर निकला -"घूंघट....?"

"हां घूंघट.मगर क्यों?"

"क्योंकि तुम आज से सेठ द्वारिका दास के खानदान की बहू हो."

"क्या.....?" अवाक रह गयी संध्या. उसकी समझ में नहीं आया कि वह हंसे याकि रोए. लगभग उसकी जैसी हालत ही वहां उपस्थित सभी लोगों की हो गयी. बाहर से आ रहे पदचापों को सुनकर धनंजय चिल्ला कर बोला -

"जल्दी करो, घूंघट काढ़ कर सोफे पर बैठ जाओ." मजबूर हो गयी संध्या. उसने झट से अपने आंचल से घूंघट काढ़ा और सोफे पर बैठ गयी. 

कुछ ही देर में ‌वहां सेठ द्वारिका दास के साथ उनकी पत्नी प्रभा देवी, पुत्री सुमन तथा  डा० के० एन० गुप्ता ने कदम रखा. दुल्हन बनी संध्या मन ही मन धनंजय को हजारों गालियां देने लगी. "इस मक्कार इंसान ने आखिरकार उसकी जिंदगी बर्बाद कर ही दी."

तभी उसके कानों में सेठ द्वारिका दास की आवाज पड़ी -"धनंजय इस आधी रात को तुम हमलोगों को कौन सा तोहफा देने वाले हो?"

"आपके  खानदान की बहू." धनंजय ने मुस्कुराते हुए कहा.

"क्या.....!" सिर्फ सेठ द्वारिका दास ही नहीं बल्कि प्रभा देवी और उनके साथ आए डॉ० के० एन० गुप्ता के साथ साथ वहां उपस्थित सारे के सारे लोग भौंचक रह गये. द्वारिका दास और प्रभा देवी को तो ‌ऐसा लगा जैसे उनके पांव के नीचे कोई शक्तिशाली बम फटता हो. सभी विस्फारित आंखों से घूंघट काढ़ कर बैठी हुई संध्या की ओर देखने लगे. 

"आप लोग इतने ‌हैरान क्यों हो रहे हैं." धनंजय मुस्कुराते हुए बोला -"आपके खानदान की बहू कौन है पहले यह तो देख लीजिए. सुमन अपनी भाभी का घूंघट उलट दो."

अपनी भाभी की सूरत देखने के लिए सुमन तो पहले से ही उतावली हो रही थी. वह तेजी से आगे बढ़ी और एक ही झटके में उसने संध्या का घूंघट उलट दिया. सभी हैरान रह गये. सेठ द्वारिका दास और डा० गुप्ता के मुंह से एक साथ निकल पड़ा -"संध्या."

"देखा डी. के. कभी कभी खोटा सिक्का भी कैसा कमाल कर जाता है.?" डा० के एन० गुप्ता धनंजय की पीठ थपथपाते हुए बोले.

उधर लज्जा के मारे संध्या की आंखें मूंद गयी. 

"भाभी, अब तुम आंखें खोलो." धनंजय के मुंह से भाभी सुनकर संध्या को ऐसा लगा जैसे चारों ओर शहनाइयां सी बजने लगी हो. धनंजय की ओर देखती हुई वह भाव-विभोर होकर बोली -"धनंजय तुमने मुझे भाभी कहां.?"

"भाभी न कहूं तो और क्या कहूं. आपने ही कहा था न कि आप मेरे राजीव भईया की परिणीता हैं. फिर मैं इतना निकृष्ट तो नहीं हूं कि अपनी भाभी पर बुरी नजर डालूं. वैसे मैं लक्ष्मण तो नहीं हूं भाभी.... मुझसे जो ख़ता हुई उसे माफ कर देना." धनंजय की आंखों से अविरल आंसू बहने लगे.

"नहीं धनंजय तुमने जो खुशी मुझे दी है, ऐसी खुशी तो सीता मैया भी अपने देवर लक्ष्मण को नहीं दे पाती."

"हे मेरे रामजी यह कैसी बहू है जो अपने सास श्वसुर के चरण भी नहीं छूती." तभी शान्ति चहकती हुई बोल पड़ी. उसकी बात सुनकर संध्या लजा गयी और सर पल्लू डालकर सर्वप्रथम सेठ द्वारिका दास जी के कदमों में झुक गयी. उनकी आंखों से चंद बूंद आंसू टपक कर संध्या के माथे पर गिर पड़े. यही उनका आशीर्वाद था. फिर उसने डा० गुप्ता का आशीर्वाद लिया. जब वह प्रभा देवी के चरणों में झुकी तब प्रभा देवी ने उसे बीच में ही थाम लिया और उसके ललाट को चुमती हुई बोली -"मैं नहीं जानती थी कि कीचड़ में ही कमल खिलते हैं. आज प्रत्यक्ष अपनी आंखों से देख रही हूं. मैंने तुम्हारे साथ जो अन्याय किया उसके लिए मुझे माफ़ कर दो बेटी." प्रभा देवी ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिये. 

"यह क्या कर रही हैं मांजी, यदि आप ऐसा करेंगी तो दुनिया मुझ पर थूकेगी न."

"काश, संसार की सारी बहुएं तुम्हारी जैसी हो जाती." खुशी के मारे प्रभा देवी की आंखों से आंसू झड़ने लगे. अब संध्या अपनी ननद सुमन के सामने खड़ी थी.

-"इस भारतीय परिधान में कितनी प्यारी लग रही है मेरी ननद." 

"भाभी.....!" सुमन बेतहाशा संध्या से लिपट गयी.

"वाह....वाह !" तभी तालियों के साथ-साथ अवस्थी जी की आवाज सुनकर सभी चौंक पड़े. अवस्थी जी के पीछे खड़ी थी गुलाब बाई और नयी नवेली दुल्हन शबाना.

यहां श्वेता (संध्या) को देखकर गुलाब बाई और शबाना की तो जैसे बांछे ही खिल उठी. उन दोनों ने एक साथ आगे बढ़कर श्वेता को अपनी आगोश में भींच लिया.

"श्वेता." अवस्थी जी की आवाज सुनकर सभी चौंक पड़े. श्वेता हर्षित भाव से उनकी ओर देखने लगी.

"मेरी "पश्यन्ती" पूर्ण हो चुकी है, यह लो." उन्होंने अपनी जेब से पश्यन्ती उपन्यास की एक प्रति निकाल कर श्वेता को थमा दिया. किताब के आवरण पर जैसे ही उसकी नजर पड़ी कि उसके मुंह से निकल पड़ा -"यह तो मैं हूं."

"हां, पश्यन्ती भी तुम ही हो."

"धन्यवाद गुरुजी."

"भाभी क्या भैया से नहीं मिलोगी."

"क्या कहा भैया, यानी राजीव आ चुका है." संध्या एकदम से उछल पड़ी.

"वे तो कब के आये हुए हैं और आपके वियोग में देवदास बने चुके हैं."

"कहां हैं मेरा राजीव..!"

"ऊपर अपने कमरे में."

"राजीव.... मेरे राजीव." आंधी तूफान की तरह संध्या सीढ़ियों की ओर दौड़ पड़ी.

                 ****

शराब में डूब कर राजीव इतना मदहोश हो चुका था कि नीचे हॉल में कितना कुछ घट गया इसका रत्ती भर भी आभास उसे न हो पाया. एक तो संध्या की विरह वेदना और दूसरे शराब की मदहोशी. एक हाथ में शराब से भरा जाम और दूसरे में उसकी प्रियतमा की तस्वीर. आंखों से निकल रही आंसुओं की धारा और दिल में मचल रही बेचैनी का तूफान. अपने प्रियतम की इस दारुण दशा को देखकर संध्या के कलेजे से एक हूक निकल पड़ी. वह ठिठक कर द्वार पर ही कुछ पल तक खड़ी उसे निहारती रही, फिर उसके मुंह से दर्द से सराबोर स्वर निकल पड़ा -

-"राजीव....!" मदहोशी की अवस्था में भी राजीव अपनी प्रियतमा की स्वर लहरी को पहचान गया. ऐसी मधुर  झंकार उसकी संध्या की ही हो सकती है. अपनी पलकें उठाकर उसकी ओर देखने लगा. संध्या ही थी. उसका रोम रोम पुलक उठा. नस नस में हर्ष की लहर दौड़ गयी. आंखों से मदहोशी गायब हो गयी और उसका स्थान ले लिया आह्लाद ने.

उसके मुंह से निकला -"संध्या, मेरी संध्या.!"

"यह कैसी हालत बना ली है अपनी.?" संध्या उसे अपनी बांहों में समेटकर भाव-विह्वल स्वर में बोली. 

"तुम चली गयी.... क्यों चली गयी मुझे छोड़कर.?" वह मासूम बालक की तरह बिलखने लगा. 

"क्या तुम मेरी थोड़ी सी भी जुदाई नहीं सह सकते ?" संध्या उसके आंसू पोंछती हुई बोली.

"नहीं मैं एक पल भी तुम्हारी जुदाई नहीं सह सकता." फटउसने संध्या को अपनी ओर बांहों में जकड़ लिया.

"तुमने शराब क्यों पी?" संध्या ने तुनकते हुए पूछा.

"तुम मुझे छोड़कर क्यों चली गयी...?"

"खाओ कसम कि आज के बाद शराब न पिओगे."

"तुम्हारी कसम, आज के बाद से शराब को हाथ भी न लगाऊंगा. " 

"झनाक." की एक आवाज हुई और संध्या स्तब्ध रह गयी. शराब की बोतल चकनाचूर हो कर बिखर चुकी थी.

"देखो मैंने शराब की बोतल तोड़ दी." टूटे हुए बोतल की ओर इशारा करते हुए मासूमियत से बोला राजीव. संध्या हंस पड़ी मुक्त  भाव से और उसने भी राजीव को कसकर अपनी बाहों में जकड़ा लिया. 

नीचे तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूंज रहा था और ऊपर इस कक्ष में दो अतृप्त आत्माएं एकाकार होकर आनंद के अनंत सागर में गोते लगाने लगी थी.

          

     *समाप्त*

निवेदन : पाठक कृपया बताएं कि इस उपन्यास का वास्तविक नायक और महानायक कौन है.?

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