- महिमा सामंत


जहाँ स्नेह होता है, वहाँ संबंध जन्म लेते हैं। रिश्ते खून से नहीं, भावनाओं से बनते हैं — और जब सास बहू को बेटी की तरह अपना लेती है, तो वह रिश्ता सिर्फ एक औपचारिक बंधन नहीं रहता, बल्कि आत्मीयता की डोर बन जाता है। परिवार वह स्थान है जहाँ केवल दीवारें नहीं, दिल भी साथ रहते हैं।  

परंपरा और परिवर्तन के बीच एक नई सोच

सदियों से सास-बहू का रिश्ता अक्सर टकराव और तनाव का प्रतीक माना जाता रहा है। टेलीविज़न धारावाहि, लोककथाओं और कहावतों ने इसे प्रतिद्वंद्विता के रूप में उभारा। लेकिन बदलते समय में, जब महिलाएं अधिक शिक्षित, आत्मनिर्भर और संवेदनशील हो रही हैं, तब इस रिश्ते को प्रतिस्पर्धा से सहभागिता में बदलना समय की माँग है। 

बहू को बेटी मानना क्यों आवश्यक है? 

1. स्वीकार्यता और सुरक्षा का भाव:

जब बहू को यह महसूस हो कि वह परखी नहीं, अपनाई गई है, तो उसका मन न केवल आश्वस्त होता है, बल्कि वह परिवार के लिए अपना सर्वस्व देने को तत्पर हो जाती है।

2. संवाद की पारदर्शिता:

माँ-बेटी के बीच जैसा खुला संवाद अगर सास और बहू के बीच भी हो, तो अधिकांश गलतफहमियाँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं।

3. संस्कारों की साझेदारी:

जब सास, माँ के समान मार्गदर्शन देती है, तो बहू उन मूल्यों को सहजता से अपनाती है और अगली पीढ़ी तक पहुँचाती है।

सास को याद रखना चाहिए

सास को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि वह भी पहले किसी की बेटी थीं, फिर किसी की बहू बनीं। जिस दिन उन्होंने ससुराल की देहरी पर कदम रखा था, उस दिन उनके मन में भी कई भावनाएँ थीं — संकोच, डर, आशाएँ और सपने। यदि उस समय उन्होंने किसी प्रकार का अपमान, उपेक्षा या तिरस्कार सहा था — तो आज जब वह स्वयं सास बनी हैं, तो उन्हें यह सोचना चाहिए कि जो दर्द उन्होंने सहा, वह उनकी बहू को न सहना पड़े। क्योंकि अनुभव का सबसे बड़ा उद्देश्य है — दूसरों को वही गलती या पीड़ा दोहराने से बचाना। बहू कोई बाहरी नहीं, किसी की लाड़ली बेटी होती है — जैसे वे स्वयं थीं। अगर उन्हें कभी अपनापन न मिला हो, तो अब वे खुद वह अपनापन देने वाली बनें। अगर उन्हें कभी माँ जैसा प्यार न मिला, तो वे आज अपनी बहू की सास नहीं, माँ बनें। जो सास अपने अतीत को समझकर वर्तमान में संवेदनशील निर्णय लेती है, वही घर को प्रेम, सम्मान और सामंजस्य से भर देती है। तभी तो कहा जाता है — अनुभव जब करुणा से जुड़ता है, तब रिश्तों में मधुरता आती है।

एक वाक्य जिसने बहू का दिल जीत लिया 

मेरी एक रिश्तेदार की बहू जब पहली बार उनके घर आई, तो उन्होंने उसे पहली रात ही कहा — "अब तुम मेरी बेटी हो, जैसे मेरी सगी बेटी होती।" उस एक वाक्य ने बहू के मन से संकोच और डर को मिटा दिया। कुछ महीनों में ही बहू ने घर की सारी ज़िम्मेदारियाँ ऐसे निभाईं जैसे वह वहीं की पली-बढ़ी हो। जब उनकी तबीयत बिगड़ी, तो बहू रात-दिन सेवा में लगी रही। खास बात यह थी कि वह बहू भी अपनी सास को माँ जैसा मानने लगी। वह हर छोटी-बड़ी बात उनसे साझा करती, सलाह लेती, और उन्हें अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा मानती थी। दोनों के बीच ऐसा स्नेह और विश्वास था कि कोई भी उन्हें देखकर कहता — "ये तो सचमुच माँ-बेटी हैं।" जब मोहल्ले की महिलाएँ प्रशंसा करतीं, तो वह मुस्कुराकर कहतीं, ये तो मेरी बेटी है। यह केवल एक कहानी नहीं, बल्कि यह दर्शाता है कि रिश्ते भाव से बनते हैं, अधिकार से नहीं — और जब दोनों ओर से प्रेम हो, तो घर स्वर्ग बन ही जाता है।

जब दिल मिलते हैं — घर बनता है स्वर्ग

जब बहू को यह एहसास होता है कि उसकी सास केवल एक पारंपरिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि माँ जैसी आत्मीयता से भरी महिला हैं, तो उसका मन अपने आप जुड़ जाता है। वह घर को अपनाती है, जिम्मेदारियाँ उठाती है, और सास की सेवा में प्रेमपूर्वक जुट जाती है। यह तब होता है जब सास-बहू का रिश्ता केवल निभाने योग्य नहीं, बल्कि जीवन को सुंदर बनाने वाला अनुभव बन जाता है। न कोई दीवारें ऊँची रहती हैं, न दिलों में दूरी — बस एक मधुर संगीत गूंजता है, जिसे हम 'घर' कहते हैं।

सास-बहू का रिश्ता यदि सम्मान, संवाद और स्नेह से भरा हो, तो वह केवल एक संबंध नहीं, संस्कारों की परंपरा बन जाता है। जब बहू को बेटी और सास को माँ माना जाए — तभी घर सिर्फ ईंट-पत्थर का ढांचा नहीं, बल्कि प्रेम, सह-अस्तित्व और समरसता का मंदिर बन सकता है। ऐसे रिश्ते जहां सास और बहू के बीच मां-बेटी का भाव हो, वहां न तो दीवारें ऊँची होती हैं, न दिलों में दूरी — होता है तो बस एक मधुर संगीत, जिसे हम 'घर' कहते हैं।


लेखिका परिचय

महिमा सामंत एक इंजीनियरिंग कॉलेज में रसायन शास्त्र की प्राध्यापिका हैं, जिनकी गहरी रुचि मूल्य-आधारित शिक्षा और छात्र विकास में है। उन्होंने कई समीक्षात्मक शोध-पत्र प्रकाशित किए हैं और  Water resources management (Springer) तथा American Chemical Society के अंतर्गत आने वाले प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं की समीक्षक भी हैं। उनके लेखन में शिक्षा के अदृश्य भावनात्मक एवं नैतिक पहलुओं में उनकी आस्था स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। उनकी रचना "एक मौन मार्गदर्शक" साहित्य कुंज में प्रकाशित हो चुकी है।

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