सरकारी दफ़्तर-सा था... नहीं-नहीं, सरकारी दफ़्तर ही था... अब आप कहेंगे, कौन-सा दफ़्तर? भई, मुझे तो सब दफ़्तर एक जैसे ही नज़र आते हैं। दफ़्तरों की शक्ल एक जैसी, वहाँ कुर्सी पर बैठे अधिकारियों की शक्ल बिल्कुल एक जैसी... जैसे माँ-जाए भाई या बहन हों। सरकारी नाम आते ही एक चिर-परिचित छवि आपके मन में बन ही गई होगी... बननी ही चाहिए... क्योंकि मेरी तरह आप सभी का भी नित-प्रतिदिन इन सरकारी दफ़्तरों से पाला पड़ता ही है।
बस ऐसे ही किसी दफ़्तर के बरामदे में पड़ी टूटी बेंच पर मैं पड़ा हुआ हूँ। क्योंकि मुझे बुलाया नहीं गया था, अपनी मनमर्ज़ी से मुँह उठाए यहाँ चला आता हूँ, इसलिए घर के बाहर गली के कुत्ते की तरह मालिक की रहमो-करम की नज़रों की इनायत हो जाए, बस यही इंतज़ार कर रहा हूँ।
एक लफ़ड़ा हो गया... न जाने मुझे क्या सूझी कि खुद का एक निजी अस्पताल खोलने का कीड़ा लग गया। जैसे ही सरकार को पता लगा कि मुझे अस्पताल खोलने के कीड़े ने काट लिया है, सरकार की नींद हराम हो गई। सत्ता में भूचाल आ गया। शायद जैसे 1975 में तत्कालीन सरकार को आपातकाल लागू करना पड़ा था, कुछ वैसी ही सरकार की मजबूरी आन पड़ी।
न जाने कितने दफ़्तरों के अफसरों की जेब में रखे फ़ोन झनझना उठे—"गर्ग का बच्चा अस्पताल खोल रहा है, जितनी भी आपत्तियाँ दर्ज हो सकती हैं, उन संबंधित विभागों को अलर्ट कर दो। सभी विभाग नोटिस भेज दें कि अस्पताल खोलने से पहले हमारे विभाग से अनापत्ति प्रमाण पत्र (एन॰ओ॰सी॰) जारी करवाएं।"
बस ऐसे ही एक विभाग की एन॰ओ॰सी॰ बनवाने आया हूँ।
इस देश में एक तरफ तो 'मेक इन इंडिया' को बढ़ावा देने को कहा जा रहा है—"नौकरियों के पीछे मत भागो, अपना खुद का धंधा करो"—और दूसरी तरफ सरकार की दस आपत्तियाँ होती हैं। उसके लिए दस आपत्ति विभाग खोल रखे हैं, जहाँ से आपको अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना है।
बाप रे! क्या करें... सरकार के बहकावे में आकर खुद का धंधा खोलकर देश निर्माण के भुलावे में आ गए, अब भुगतो... बस वही भुगत रहा हूँ।
इंतज़ार में बेसब्री से अपनी टाँगों को एक-दूसरे के ऊपर पटककर बोरियत मिटा रहा हूँ। एक मोटा चूहा पैरों के ऊपर से गुज़रा, कसम से उछल ही गया। पास में चपरासी खिसिया कर मेरी हालत पर हँसा, "क्या साहब, चूहों से इतना डरते हो?" उसका मतलब चूहे जैसी मेरी हालत... शायद उसे मैं चूहे की बिरादरी का ही लग रहा था।
मैंने कहा, "हाँ, डर लगता है।"
बोला, "साहब, यहाँ तो चूहे ही चूहे हैं। ऑफिस की दीवारें, अलमारियाँ, कुर्सियाँ, खिड़कियाँ—सब जगह इन्होंने क़ब्ज़ा कर रखा है।"
"इनसे छुटकारा पाने का कुछ इंतज़ाम क्यों नहीं करते?"
"क्या करें साहब, ऊपर के अधिकारियों को कई बार संज्ञान भेजा है, रिपोर्ट बनाई है, चूहों को मारने की दवाइयों का टेंडर भी निकाला, दवाई मँगवा भी ली थी, दवाई रखी... लेकिन साहब, ये चूहे ज़िद्दी हैं, सरकारी ज़हर से मरते ही नहीं हैं।"
मैंने कहा—"पिंजरा रखवाते न!"
"पिंजरा भी सरकार ने दिलवाया था साहब। पिंजरे ऐसे कि इधर चूहे घुसते, उधर पिंजरों में बड़ा छेद था—सब निकल जाते हैं। चूहों ने कुनबा बढ़ा लिया साहब, यहाँ ज़मीन, दीवार—सब जगह बिल बना दिए हैं।"
मुझे उसकी चूहाबाज़ी बकवास से अब डर सा लगने लग गया था। देश के किसी भी कोने में फैले आतंकवाद से ज़्यादा मुझे ये चूहों का आतंक लग रहा था। लेकिन शायद उसका काम यही था—हम जैसे "चूहों" का टाइमपास करना।
आख़िरकार नंबर आ ही गया। अंदर गया तो बड़ी-सी टेबल के पीछे अधिकारी जी—उनकी फूली हुई तोंद—कुछ वैसी ही जैसे किराने के व्यापारी के घर पल रहे मुस्टंडे चूहे की होती है। फाइलों का ढेर आगे लगा हुआ था। बड़े अधिकारी की पहचान उसके आगे लगे फाइलों के ढेर से ही की जा सकती है।
पीछे अलमारियों में भी फाइलों का ढेर बाहर निकल रहा था, जैसे कोई अंग-प्रदर्शन चल रहा हो। फाइलों ने भी अपने आपको कुतरवा रखा था—बिल्कुल जैसे आजकल जींस कुतरी जाती है। नया फैशन का ज़माना है साहब... फाइलों को भी तो हक़ बनता है—ज़माने के हिसाब से चलना... मुझे चूहों का सब माजरा समझ में आ गया।
अधिकारी जी बोले, "आओ डॉक्टर साहब, कैसे हैं आप... क्या हाल है आपके?"
इस बीच कुछ चूहे फाइलों के ढेर के चारों ओर चक्कर लगाते हुए गुज़रे, जैसे किसी देव मंदिर में परिक्रमा चल रही हो।
अधिकारी की बगल में खड़ा चपरासी अब अपने आवंटित कार्य में लग गया था और अपने हस्तप्रहार से एक-दो चूहे का छापामार पद्धति से शिकार करने के मूड में था।
अधिकारी इस "चूहा-दौड़" के खेल को बड़ी रंजमयता से देख रहे थे।
"देखो गर्ग साहब, ऑफिस की क्या हालत कर रखी है चूहों ने—फाइलें कुतरने में लगे हैं। इन्हें चाहिए कुछ न कुछ खाने को। अब आप ही बताओ, ये हमसे एक्सपेक्ट करें कि हम इनको गुड़-चना रखें खाने के लिए? चलो रख भी दें... लेकिन अब इन्हें गुड़-चना भाता नहीं है। इन्हें फाइलों का चस्का लग गया है। इन्हें फाइल ही खानी है। वो तो कुछ आप जैसे हमारे खास लोगों की फाइलें हम बचा कर रखते हैं—घर ले जाते हैं, वहीं देख लेते हैं, मार्क कर लेते हैं। ऑफिस का भरोसा नहीं होता ना!"
मैं सोच रहा था—ऑफिस में वास्तव में चूहों की भरमार हो गई है। इन चूहों को फाइलों के खून का स्वाद लग गया है। आपकी फाइल छोड़ेंगे नहीं—बशर्ते आप फाइल की जगह उन्हें कुछ और खाने को न देंगे... मसलन गुड़ और चने की भरपूर सप्लाई।
–डॉ मुकेश असीमित
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