धारावाहिक पौराणिक उपन्यास 

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 - रामबाबू नीरव

(प्रथम आख्यान)

ऋषि कन्या वेदवती - 1


(द्रष्टव्य : यह मां सीता के पूर्व जन्म की कथा है. उनके पूर्व जन्म की कथा बाल्मीकि रामायण तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण में देखने को मिलता है. बाल्मीकि रामायण में वर्णित कथा के आधार पर ही मैंने इस कथा की रचना अपनी भाषा और शैली में की है. पाठकों से निवेदन है कि मेरी इस कृति को किसी भी रामायण या अन्य किसी ग्रंथ की अनुकृति न समझें. विभिन्न रामायणों के आधार पर मैंने मां सीता की सम्पूर्ण कथा को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. मुझे विश्वास है कि यह कथा आप सुधि पाठकों को अवश्य पसंद आएगी.)

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   छोटी छोटी पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य अवस्थित वह उपत्यका मनमोहक कानन से आच्छादित थी. उस कानन में तरह तरह के पुष्पों के साथ पेड़ों पर चतर रहे रंग-बिरंगे पुष्प लताओं की शोभा निराली थी. इसी उपवन में अवस्थित था ब्रह्मर्षि कुशध्वज* का आश्रम. ब्रह्मर्षि कुशध्वज ने कठिन तपस्या करके ब्रह्मत्व प्राप्त किया था, इसलिए वे ब्रह्मर्षि कहलाए. इसके साथ ही उन्होंने सभी वेदों और उपनिषदों का भी गहनता पूर्वक अध्ययन किया था. इससे उनकी प्रतिष्ठा काफी बढ़ गयी थी. उनकी धर्मपत्नी का नाम था मालावती. मालावती भी तेजस्विनी साध्वी थी. उन्होंने एक कन्या को जन्म दिया. जन्म लेते समय उस कन्या के मुख से क्रंदन के बदले ऋग्वेद की ऋचाएं निकली. इस अलौकिक चमत्कार को देखकर ब्रह्मर्षि कुशध्वज एवं उनकी पत्नी मालावती के साथ साथ आश्रम के अन्य ऋषिगण चमत्कृत रह गये. ऋषि कुशध्वज ने अपनी उस अद्भुत कन्या का नाम रखा वेदवती.

ऋषि कुशध्वज के आश्रम के ईर्द-गिर्द अन्य ऋषि-मुनियों के भी आश्रम थे. एक तरह से इस उपत्यका में ऋषियों का एक ग्राम ही बसा हुआ था. इस छोटे से ग्राम में वैदिक होम-जाप के साथ खेती भी होती थी और गो पालन भी. यहां मात्र ऋषि कुमार ही नहीं, बल्कि ऋषि कन्याएं भी वेदों तथा उपनिषदों की शिक्षा लिया करती थी. प्रत्येक दिन उषाकाल में  वैदिक मंत्रोच्चार के साथ ईश वंदना और होम हुआ करते थे, जिससे यहां का वातावरण सुवासित रहा करता था. इस उपत्यका के उत्तरी छोर पर कल कल निनाद करती हुई एक सरिता वह रही थी, जो गंगोत्री से निकलती थी. ऋषि कुशध्वज के आश्रम में दूर-दूर के राजकुमार भी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे. यानी ऋषि कुशध्वज की ख्याति पूरे आर्यावर्त में फैली हुई थी.

   जैसे जैसे कुशध्वज जी की पुत्री वेदवती सयानी होती जा रही थी, वैसे वैसे उसके ज्ञान के साथ साथ सौंदर्य में भी निखार आता जा रहा था. जब वह पूर्ण यौवनावस्था को प्राप्त हुई, तब वह न सिर्फ चारों वेदों में पारंगत हो गई, बल्कि उसका अनुपम सौंदर्य भी पूनम के चांद की भांति निखिल उठा. शीघ्र ही उसकी विद्वता तथा अनुपम सौंदर्य की ख्याति चारों दिशाओं में फैल गयी. वेदवती अपने बाल्यकाल से ही भगवान विष्णु की उपासिका थी. यदा-कदा वह इस उपत्यका के ऊपर स्थित निर्जन पहाड़ी पर जाकर अपने आराध्य श्री हरि (भगवान विष्णु) की साधना में लीन हो जाया करती. धीरे धीरे उसकी श्रद्धा और भक्ति प्रेम में परिवर्तित होती चली गयी और अब वह भगवान विष्णु को पति रूप में प्राप्त करने की इच्छा अपने मन में पालने लगी. उसके पिता ऋषि कुशध्वज जी की भी यही इच्छा थी कि उनकी पुत्री को भगवान विष्णु जी ही पति रूप में प्राप्त हों. 

आर्यावर्त के अनेको राजा और राजकुमार वेदवती के अनुपम सौंदर्य तथा विद्वता पर सम्मोहित थे. और उसे पत्नी रूप में प्राप्त करने का दिवा स्वप्न देखने लगे थे. कई राजा ऋषि कुशध्वज के समक्ष उनकी पुत्री के साथ विवाह करने का प्रस्ताव लेकर आए परन्तु ऋषि कुशध्वज ने बड़ी विनम्रता पूर्वक उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. वेदवती को पत्नी रूप में प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले राजाओं में से एक शंभू नाम का  राजा भी था. वह अति अभिमानी और क्रूर था. उसकी  राजधानी इस उपत्यका से पांच योजना दूर सुन्दर नगर में थी. एक दिन वह अपने कुछ सैनिकों के साथ आ धमका. उस दुष्ट राजा तथा उसके सैनिकों को देखकर आश्रम में कोहराम मंच गया. आश्रम की स्त्रियां यत्र-तत्र छुप गयी. सारे ऋषि और ऋषिकुमार जड़वत होकर रह गये. परंतु सौम्य और शान्त प्रकृति के ऋषि कुशध्वज तनिक भी विचलित न हुए. राजा शंभू ऋषि कुशध्वज का निरादर करते हुए अपमानजनक स्वर में चिल्लाते हुए बोला -

"ऋषि कुशध्वज, मैं सुन्दर नगर का राजा शंभू हूं और मैं वीर योद्धा के साथ साथ अजेय भी हूं. मैंने तुम्हारी पुत्री वेदवती की अनुपम छवि को अपने हृदय-पट पर अंकित कर रखा है. साथ ही मैंने उसे अपने महल की रानी भी बनाने का संकल्प लिया हुआ है. अतः बिना किसी प्रतिवाद के तुम अपनी कन्या मुझे सौंप दो, अन्यथा यहां जो भी रक्तपात होगा उसके जिम्मेदार तुम स्वयं होओगे."

"क्षमा करें राजन्." उच्छृंखलता पूर्वक राजा शंभू द्वारा कही गई बातों को धैर्य पूर्वक सुनने के पश्चात ऋषि कुशध्वज विनम्र स्वर में उसके प्रस्ताव  को अस्वीकार करते हुए बोले -"मैं आपकी यह अभिलाषा पूर्ण नहीं कर सकता." इतना सुनते ही दुष्ट राजा शंभू की क्रोधाग्नि भड़क उठी -

"क्यों, क्यों हमारी अभिलाषा पूर्ण नहीं कर सकते तुम.?"

"क्योंकि मेरी पुत्री वेदवती भगवान विष्णु की आराधिका है और मन ही मन उन्हें ही अपना पति मान चुकी है." ऋषि कुशध्वज का स्वर पूर्ववत शांत था. 

"उसके मानने से क्या होता है?" राजा शंभू की आंखों से ज्वाला निकलने लगी -"मैं भी वेदवती को अपनी पत्नी मान चुका हूं. वह मेरी है, किसी और की नहीं हो सकती." राजा शंभू की पल-प्रतिपल बढ़ते जा रहे क्रोध को देखकर समस्त आश्रमवासी भय से कांपने लगे. परंतु ऋषि कुशध्वज अब भी निर्भीक और निश्चल खड़े थे. उन्होंने निर्भीकता पूर्वक अपना अंतिम निर्णय सुना दिया -

" फिर भी असंभव है राजन्. मेरी पुत्री आपके राजमहल की रानी कदापि नहीं बन सकती !"

"सावधान दुष्ट ऋषि कुशध्वज.! आज तक शक्तिशाली राजा शंभू की आज्ञा न मानने का दुस्साहस किसी ने भी नहीं की, चाहे वह देव हो या दानव ! मैं अंतिम बार कह रहा हूं तुम अपनी पुत्री मुझे सौंप दो अन्यथा....!"

"नहीं कदापि नहीं, मेरी पुत्री किसी दुष्ट और अभिमानी राजा की पत्नी नहीं बन सकती." ऋषि कुशध्वज अपने निर्णय पर अटल रहे. राजा शंभू की क्रोधाग्नि पुनः भड़क उठी. उसने अपने म्यान से तलवार खींच लिया और एक ही वार में ऋषि कुशध्वज का सर धड़ से अलग कर दिया. ऋषि का सर एक ओर गिरा और धड़ दूसरी ओर. रक्त का फौवारा फूट पड़ा. आश्रम की महिलाएं क्रंदन करती हुई कंदराओं में छुप गयी. ऋषि-मुनि इस हृदयविदारक दृश्य को देखकर स्तब्ध रह गये. वहां उपस्थित युवाओं को तो जैसे सांप ही सूंघ गया था. किसी की भी समझ में न आ रहा था कि अचानक यह क्या हो गया.? तभी झोपड़ी से बिलखती हुई वेदवती की मां मालावती बाहर आयी और आते के साथ दुष्ट राजा शंभू की छाती पर मुक्कों से प्रहार करती और विलखती हुई बोली -"अरे पापी तूने यह क्या किया, एक ऋषि की हत्या कर दी. मेरा सुहाग उजाड़ दिया." उस ऋषिहंता दुराचारी राजा शंभू को साध्वी मालावती पर भी दया न आयी. अपनी तलवार के एक ही वार से उसने उनका भी  शिरोच्छेद कर डाला. अब तो वहां कुंभाराम मंच गया. वह दुष्ट राजा शंभू और उसके सैनिक आश्रम के प्रत्येक झोपड़ियों में घुस-घुस कर वेदवती को तलाशने लगे. परंतु वेदवती आश्रम में थी कहां जो उन्हें मिलती. वह तो पर्वत के एकांत स्थल पर तपस्या में लीन थी. वेदवती के नहीं मिलने पर वह दुराचारी राजा शंभू हाथ मलता हुआ अपने सैनिकों के साथ वहां से प्रस्थान कर गया.

   कुछ ऋषि कन्याएं छाती पीटती हुई उस पर्वत की ओर भागी, जहां वेदवती तपस्या में लीन थी. उन ऋषि कन्याओं की चीत्कार सुनकर वेदवती की तंद्रा भंग हो गयी. वह अपनी सहेलियों की ओर देखती हुई पूछ बैठी -

"क्या हुआ सखियों, तुमलोग इस तरह से विलाप क्यों कर रही हो?"

"अनर्थ हो गया वेदवती." उन कन्याओं में से एक करुण विलाप करती हुई बोली. परंतु आगे कुछ भी कहने की उसकी हिम्मत नहीं हुई. उसे चुप देखकर वेदवती झुंझलातीं हुई पुनः पूछ बैठी -

"मगर हुआ क्या है.?"

"वह सुन्दरपुर का दुराचारी राजा शंभू तुमसे विवाह करने की इच्छा लेकर आश्रम में आया था, परंतु ऋषिवर ने अस्वीकार कर दिया. इस पर कुपित होकर उस क्रूर राजा ने तुम्हारे माता-पिता की नृशंसता पूर्वक हत्या कर दी. 

"क्या....?" ऐसा लगा जैसे वेदवती के ऊपर बज्रपात हो गया हो. 

"हां वेदवती तुम्हारे माता-पिता अब इस संसार में नहीं रहे."

"नहींऽऽऽऽ" वेदवती के मुंह से एक हृदयविदारक चीख निकली. उसकी चीख से पहाड़ी प्रांत गूंज उठा और वह मूर्छित होकर गिर पड़ी. बड़ी मुश्किल से उसकी सहेलियों ने उसे संभाला और सहारा देती हुई आश्रम की ओर ले गयी.

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क्रमशः.........!

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*मिथिला नरेश महाराज सीरध्वज जनक के अनुज का भी नाम कुशध्वज था.

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