(एक)
मैं ख़ुद को जितना रोता जा रहा हूँ
कमाल-ए-ज़ब्त होता जा रहा हूँ
मुझे दरकार था सैलाब मेरा
जहाँ कुछ है डुबोता जा रहा हूँ
कोई फिर मेरा अपना हो रहा है
किसी से हाथ धोता जा रहा हूँ
भरा है ख़्वाहिशों की पोटली से
बदन का बोझ ढोता जा रहा हूँ
तक़ाज़ा है सँभलने का मुझे और
मैं अपना होश खोता जा रहा हूँ
उड़ेगी फ़स्ल हर इक सम्त मेरी
हवा में ख़ुद को बोता जा रहा हूँ
(दो)
बज़ाहिर तो ज़रूरत भर है मेरा
मगर बातिन बड़ा दफ़्तर है मेरा
मैं कबसे मुंतज़िर हूँ तेरा ऐ धूप
कहाँ है तू?बरहना सर है मेरा
उठाऊँगा तो ढ़ह जाएगा सारा
तिरी बुनियाद में पत्थर है मेरा
ख़ुदा होने से बिल्कुल मावरा है
अक़ीदा औरों से बेहतर है मेरा
अँधेरों पर मुसल्लत हो रहा हूँ
मुसलसल रौशनी लश्कर है मेरा
(तीन)
अब चराग़ों में तिरी याद जलाता हुआ मैं
हिज्र को वस्ल की ता'बीर बनाता हुआ मैं
इक उदासी के जज़ीरे पे चला जाता हूँ
इक तबस्सुम को कहीं हाथ लगाता हुआ मैं
रंग-ए-इम्काँ की ग़ज़ब शक्ल में ढल जाता हूँ
अपनी मिट्टी के लिए चाक घुमाता हुआ मैं
हादसे टालने से क्यों नहीं टलते हैं यहाँ
ख़ुद से टकरा गया हूँ आँख बचाता हुआ मैं
सब को इक हाथ से ख़ैरात दिए जाता हूँ
दूसरे हाथ में कश्कोल उठाता हुआ मैं
- बलवान सिंह आज़र




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