रीता जी एक बैंक में कैशियर के पद पर कार्यरत थीं। पति एक मल्टीनेशनल कंपनी में जनरल मैनेजर और दो बच्चे – बेटा बीटेक के फाइनल ईयर में, बेटी एमबीए करने के बाद एक कंपनी में एचआर एक्जीक्यूटिव।

जीवन बाहर से तो सुंदर दिखता था, लेकिन रीता के भीतर एक खालीपन था।

कल उनका पचासवाँ जन्मदिन था। बच्चों और पति ने हँसते हुए पूछा –

“बोलो मम्मी, इस बार क्या गिफ्ट चाहिए?”

रीता ने धीमे स्वर में कहा –

“बस उस दिन तुम सबका थोड़ा सा समय चाहिए।”

बेटे ने हँसकर कहा –

“अरे मम्मी, आप भी न… समय भी कोई गिफ्ट होता है? हम सब आपके पास ही तो रहते हैं।”

बेटी ने भी मजाक में कहा –

“मम्मी, आप तो हर बात में फिलॉसफी झाड़ देती हैं।”

पतिदेव चुप रहे। भीतर कहीं उन्हें भी चुभन हुई, क्योंकि वे जानते थे कि ऑफिस की व्यस्तताओं के कारण वे रीता को समय नहीं दे पाते थे।

रीता मुस्कराई, मगर उनकी आँखों में एक हल्की नमी उतर आई।

“पास रहते हो, पर साथ कहाँ मिल पाता है? आज के समय में किसी को दिया हुआ समय ही सबसे बड़ा तोहफ़ा होता है।”

यह कहकर वे उठ गईं और अपनी दिनचर्या में लग गईं।

अगली सुबह  रीता उम्मीद से थोड़ी जल्दी उठीं। चाय बना ली, कप सजाकर रख दिए और इंतज़ार करने लगीं। घड़ी की सुइयाँ धीरे-धीरे आगे बढ़ती रहीं।

उन्होंने सोचा – “शायद बेटे को याद होगा… शायद बेटी आ जाएगी…”

लेकिन कमरों में खामोशी पसरी रही।

घड़ी ने साढ़े छह बजाए, फिर सात भी बज गए।

रीता की आँखों में नमी तैर गई।

उन्हें बच्चों के बचपन के दिन याद आए –

कैसे वे सुबह दौड़ते हुए रसोई में पहुँचते थे, कहते –

“मम्मी, पहले मुझे चाय दो!”

वो नन्ही-नन्ही हँसी आज उनके कानों में गूँज उठी।

अब वे बालकनी में अकेली बैठीं, अपनी पसंदीदा पुदीना-अदरक और गुड़ वाली चाय पीते हुए।

मन में गहरी पीड़ा थी, पर चेहरे पर हल्की मुस्कान।

आईने में जाकर खुद को देखा और बोलीं –

“हैपी बर्थडे टू मी।”

उसी क्षण उन्होंने निश्चय कर लिया –

अब से वे अपनी खुशियाँ किसी और की मोहताज नहीं रहने देंगी।

ऑफिस जाते वक्त  रीता ने अच्छे से तैयार होकर दर्पण में खुद को देखा।

झुर्रियों में भी एक नई चमक थी।

वो बोलीं – “आज से मैं अपनी सबसे अच्छी सहेली खुद बनूँगी।”

शाम को घर पहुँचीं तो सबने मिलकर “हैप्पी बर्थडे” कहा। पति केक लाए थे।

रीता ने मुस्कराकर काटा, सबने मिलकर खाया।

बेटी ने कहा –

“चलो मम्मी, बाहर डिनर करते हैं।”

रीता बोलीं –

“आज घर पर ही खाना खाएँगे। मैंने बना लिया है।”

सबने मिलकर खाना खाया। बाहर से सब सामान्य था, लेकिन भीतर से रीता अब बिल्कुल बदल चुकी थीं।

अगले दिन  सुबह-सुबह पति ने खुद चाय बनाई और रीता के पास लाकर रख दी।

थोड़ी ही देर में बेटे और बेटी भी अपने-अपने कप लेकर आ बैठे।

आज बिना कहे, बिना याद दिलाए सब उनके साथ चाय पी रहे थे।

रीता की आँखों से आँसू छलक पड़े।

ये आँसू ग़म के नहीं थे… यह उस संतोष के थे कि उन्होंने जीवन का सबसे बड़ा रहस्य जान लिया था –

अपनी खुशियों के लिए किसी के मोहताज मत बनो। जब आप खुद से खुश रहना सीख लेते हैं, तो खुशियाँ खुद चलकर आपके पास आती हैं। रीता मुस्कराईं और मन ही मन बोलीं –

“सच में… अब मैंने जीना सीख लिया है।” आज मेरी तलाश पूरी हुई |

अब उन्होंने   जान लिया था की खुशियाँ पाने के लिए दूसरों से उम्मीद मत रखो।

खुद के भीतर खुशियाँ पैदा करो, और देखो – पूरी दुनिया अपने आप बदल जाएगी।

- प्रज्ञा पांडेय मनु 

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