 ललित गर्ग  
‘सबका साथ, सबका विकास’ वर्तमान सरकार का नारा है, यह नारा जितना लुभावना है उतना ही भ्रामक एवं विडम्बनापूर्ण भी है। यह सही है कि आम आदमी की जरूरतें चरम अवस्था में पहुंच चुकी हैं। हम उन जरूरतों को पूरा करने के लिए विकास की कीमत पर्यावरण के विनाश से चुकाने जा रहे हैं। पर्यावरण का बढ़ता संकट कितना गंभीर हो सकता है, इसको नजरअंदाज करते हुए सरकार राजनीतिक लाभ के लिये कोरे विकास की बात कर रही है, जिसमें विनाश की आशंकाएं ज्यादा हैं ।  

विकास और पर्यावरण साथ-साथ चलने चाहिएं लेकिन यह चल ही नहीं रहे हैं, इसमें सरकारों के नकारापन के ही संकेत दिखाई देते हैं। विकास के वैसे तो अलग-अलग पैमाने हो सकते हैं, लेकिन जब विकास का रास्ता आगे चलकर विनाश पैदा करे तो ऐसे विकास की कितनी जरूरत सरकार को होनी चाहिए? खासकर तब, जब मामला लोगों की जिंदगियों से जुड़ा हुआ हो। ऐसे में लोगों की जिंदगी पर कितना असर पड़ता है, यह बात सोचने पर जेहन में कई सवाल खड़े हो जाते हैं। 

औद्योगिक विकास की दिशा में फिलहाल अभी जो प्रयास सरकार कर रही है, उससे आर्थिक विकास होना लाजिमी है, किंतु सामाजिक विकास किस तरह ठहर सकता है, पर्यावरण असंतुलित हो सकता है, इस बारे में अब तक किसी ने सोचा नहीं है। जिस तरीके से देश को विकास की ऊंचाई पर खड़ा करने की बात कही जा रही है और इसके लिए औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे तो लगता है कि प्रकृति, प्राकृतिक संसाधनों एवं विविधतापूर्ण जीवन का अक्षयकोष कहलाने वाला देश भविष्य में राख का कटोरा बन जाएगा। हरियाली उजड़ती जा रही है और पहाड़ नग्न हो चुके हैं। 

नदियों का जल सूख रहा है, कृषि भूमि लोहे एवं सीमेन्ट, कंकरीट का जंगल बनता जा रहा है। महानगरों के इर्द-गिर्द बहुमंजिले इमारतों एवं शॉपिंग मॉल के अम्बार लग रहे हैं। उद्योगों को जमीन देने से कृषि भूमि लगातार घटती जा रही है। नये-नये उद्योगों की स्थापना से नदियों का जल दूषित हो रहा है, निर्धारित सीमा-रेखाओं का अतिक्रमण धरती पर जीवन के लिये घातक साबित हो रहा है। महानगरों का हश्र आप देख चुके हैं। अगर अनियोजित विकास ऐसे ही होता रहा तो दिल्ली, मुम्बई, कोलकता में सांस लेना जटिल हो जायेगा। 

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा जारी होने वाली नवीनतम रिपोर्ट जीईओ-5 में कहा गया है कि ऐसे विभिन्न तरह के बदलावों के सबसे खतरनाक स्तर से बचना बहुत जरूरी है क्योंकि इस सीमा के बाद धरती पर विविधतापूर्ण जीवन को पनपाने वाली स्थितियां सदा के लिये बदल सकती है। समुद्र के जीवन विहीन क्षेत्रों में हाल के वर्षों में चैकाने वाली वृद्धि हुई है। पर्यावरण का संकट भी गहरा रहा है। बहुत दिन नहीं हुए जब कलकल बहती स्वच्छ नदियां, हरे-भरे जंगल, उपजाऊ मिट्टी और मत्स्य संसाधनों से भरपूर तटीय इलाके भारत की शान थे। सदियों पहले भारतीय उपमहाद्वीप पर रहने वालों के लिए ये प्रकृति के उपहार थे। 

पिछली सदी की शुरुआत तक लगभग आधा उपमहाद्वीप घने वनों से आच्छादित था। उस समय अगर आप जमीन पर सौ बीज बिखेरते तो संभव है कि आधे से अधिक बीज जड़ पकड़ लेते, क्योंकि उस समय देश की मिट्टी उपजाऊ, जलवायु बढ़िया और जल संसाधन प्रचुर थे। उस समय हमारा सुंदर भारत चमगादड़ों, हाथियों और तरह-तरह के पशु-पक्षियों का साझा बसेरा था और वे ही यहां के बागबान भी थे। इसके तहत देश में यह परवाह किये बिना हजारों बांध बना डाले गये कि उनसे देश को वास्तव में कोई फायदा मिल भी रहा है या नहीं। 

अंधाधुंध खानें खोदी गयी। डीडीटी जैसे कीटनाशकों का इतना ज्यादा छिड़काव किया गया कि कीड़े-मकोड़े के साथ मनुष्य भी दम तोड़ने लगा। कई परमाणु बिजलीघर भी यह सोचे बगैर बना दिये गये कि इनसे निकलने वाला घातक अपशिष्ट कैसे ठिकाने लगाया जायेगा। इस देश में विकास के नाम पर वनवासियों, आदिवासियों के हितों की बलि देकर व्यावसायिक हितों को बढ़ावा दिया गया। खनन के नाम पर जगह-जगह आदिवासियों से जल, जंगल और जमीन को छीना गया। कौन नहीं जानता कि ओडिशा का नियमागिरी पर्वत उजाड़ने का प्रयास किया गया। आदिवासियों के प्रति सरकार तथा मुख्यधारा के समाज के लोगों का नजरिया कभी संतोषजनक नहीं रहा। आदिवासियों को सरकार द्वारा पुनर्वासित करने का प्रयास भी पूर्ण रूप से सार्थक नहीं रहा। आदिवासियों की स्थिति में बदलाव के लिए जरूरत है उनकी कुछ मूल समस्याओं के हल ढूंढना। 

भारत के जंगल समृद्ध हैं, आर्थिक रूप से और पर्यावरण की दृष्टि से भी। देश के जंगलों की कीमत खरबों रुपये आंकी गई है। ये भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से तो कम है लेकिन कनाडा, मेक्सिको और रूस जैसे देशों के सकल उत्पाद से ज्यादा है। इसके बावजूद यहां रहने वाले आदिवासियों के जीवन में आर्थिक दुश्वारियां मुंह बाये खड़ी रहती हैं। आदिवासियों की विडंबना यह है कि जंगलों के औद्योगिक इस्तेमाल से सरकार का खजाना तो भरता है लेकिन इस आमदनी के इस्तेमाल में स्थानीय आदिवासी समुदायों की भागीदारी को लेकर कोई प्रावधान नहीं है। जंगलों के बढ़ते औद्योगिक उपयोग ने आदिवासियों को जंगलों से दूर किया है। 

आर्थिक जरूरतों की वजह से आदिवासी जनजातियों के एक वर्ग को शहरों का रुख करना पड़ा है। विस्थापन और पलायन ने आदिवासी संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और संस्कार को बहुत हद तक प्रभावित किया है, इससे पर्यावरण एवं प्रकृति भी खतरे में जा रही है। गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के चलते आज का विस्थापित आदिवासी समाज, खासतौर पर उसकी नई पीढ़ी, अपनी संस्कृति से लगातार दूर होती जा रही है। आधुनिक शहरी संस्कृति के संपर्क ने आदिवासी युवाओं को एक ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है, जहां वे न तो अपनी संस्कृति बचा पा रहे हैं और न ही पूरी तरह मुख्यधारा में ही शामिल हो पा रहे हैं। 

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी अक्सर आदिवासी उत्थान और उन्नयन की चर्चाएं करते हैं और वे इस समुदाय के विकास के लिए तत्पर भी हैं। क्योंकि वे समझते हैं कि आदिवासियों का हित केवल आदिवासी समुदाय का हित नहीं है प्रत्युतः सम्पूर्ण देश, पर्यावरण व समाज के कल्याण का मुद्दा है जिस पर व्यवस्था से जुड़े तथा स्वतन्त्र नागरिकों को बहुत गम्भीरता से सोचना चाहिए। विकास के नाम पर कैसा विनाश का खेल खेला जा रहा है, उसका ज्वलंत उदाहरण है मुम्बई की आरे कालोनी। 

मुम्बई जिस क्षेत्र के कारण सांस लेती है, उसे ही तबाह किया जा रहा है। आरे कालोनी में कार शेड निर्माण क्षेत्र जैव विविधता के लिए खतरा उत्पन्न कर देगा। शिवसेना, कांग्रेस और अन्य दलों का आरोप है कि अधिकारियों ने मुख्यमंत्री को गुमराह किया है कि मिल्क कालोनी के क्षेत्र में केवल चूहे पाए जाते हैं। अक्सर पर्यावरण एवं प्रकृति के प्रश्नों पर सरकार को स्वार्थी लोग इसी तरह गुमराह करते हैं। विकास के लिये पर्यावरण की उपेक्षा गंभीर स्थिति है। सरकार की नीतियां एवं मनुष्य की वर्तमान जीवन-पद्धति के अनेक तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल रहे हैं कि वहां जीवन का अस्तित्व ही कठिन हो जायेगा। प्रकृति एवं पर्यावरण की तबाही को रोकने के लिये बुनियादी बदलाव जरूरी है और वह बदलाव सरकार की नीतियों के साथ जीवनशैली में भी आना जरूरी है।


60, मौसम विहार, तीसरा माला, डीएवी स्कूल के पास, दिल्ली-110051 
फोनः 22727486, 9811051133

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