भारत एक विविधताओं से भरा देश है जहाँ विभिन्न धर्म, जातियाँ, भाषाएँ और संस्कृतियाँ एक साथ अस्तित्व में हैं। इन सबके बीच सामाजिक एकता बनाए रखना न केवल एक चुनौती है, बल्कि आवश्यक भी। धार्मिक चिन्तन, जो आत्मा, सत्य, करुणा और समभाव जैसे मूल्यों पर आधारित होता हैसामाजिक एकता की स्थापना में एक सशक्त माध्यम बन सकता है।

धार्मिक चिन्तन का तात्पर्य: धार्मिक चिन्तन केवल पूजा-पद्धति या कर्मकाण्ड तक सीमित नहीं है। यह आत्मिक जागरूकता, दूसरों के प्रति सहिष्णुता, सेवा, प्रेम और सद्भाव की भावना को पोषित करता है। जब कोई व्यक्ति धार्मिक मूल्यों को अपने जीवन में अपनाता है, तो वह समाज के प्रति उत्तरदायी बनता है।

सामाजिक एकता का महत्व:
सामाजिक एकता से ही राष्ट्र की प्रगति संभव है। यदि समाज जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र के आधार पर बँटा रहेगा, तो संघर्ष, वैमनस्य और असमानता बढ़ेगी। एकजुट समाज ही एक सशक्त राष्ट्र की नींव बनाता है।

धार्मिक चिन्तन और सामाजिक एकता का संबंध 

 वसुधैव कुटुम्बकम् (संपूर्ण विश्व एक परिवार है) जैसे विचार हिन्दू धर्म में सामाजिक समरसता की भावना को बल देते हैं।

बौद्ध धर्म में करुणा और मैत्री भाव को सर्वोपरि माना गया है।

सिख धर्म ‘सरबत का भला’ की बात करता है, अर्थात् सभी का कल्याण।

इसके अलावा भी अगर कोई धर्म है तो वो भी यही बताता है

इन सभी धर्मों में यह स्पष्ट है कि धार्मिक चिन्तन का मूल उद्देश्य नफरत नहीं, बल्कि सामाजिक एकता, शांति और भाईचारे की स्थापना है।

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता:
आज जब समाज में धार्मिक कट्टरता, असहिष्णुता और हिंसा की घटनाएँ बढ़ रही हैं, तब धार्मिक चिन्तन का वास्तविक रूप समझना आवश्यक हो जाता है। धार्मिक शिक्षा का सही रूप अगर स्कूलों, परिवारों और समाज में दिया जाए तो सामाजिक विभाजन को रोका जा सकता है।


निष्कर्ष:
धार्मिक चिन्तन मानव जीवन को सही दिशा देने के साथ-साथ सामाजिक एकता का मार्ग प्रशस्त करता है। यदि सभी धर्मों की मूल भावना को आत्मसात किया जाए तो समाज में समरसता, शांति और भाईचारा स्थापित किया जा सकता है। अतः यह आवश्यक है कि हम धर्म के मूल भाव को समझें और अपने आचरण में लाकर समाज को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास करें।

कमलेश झा नगरपारा भागलपुर बिहार 

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