धारावाहिक उपन्यास 


 -रामबाबू नीरव 

जिस दिन से श्वेता गायब हुई थी, उस दिन से ही गुलाब बाई उसके शोक में सूखकर कांटा हो चुकी थी. उसका सुख-चैन तो छीन ही गया, उसकी भूख-प्यास भी मर गयी. यह सच था कि श्वेता के साथ उसका अपना स्वार्थ जुड़ा हुआ था. श्वेता उसका भविष्य थी. मगर इसके साथ साथ यह भी सच था कि वह अपनी बेटी को जान से ज्यादा चाहती थी. इस कोठे पर एक शबाना ही थी, जिसे उसकी चिंता रहा करती थी. बाकी लड़कियों को उसके सुख-दु:ख से कोई मतलब न था. शबाना भी श्वेता के गुम हो जाने से कम दुखी न थी. आखिर वह उसकी हमजोली जो बन चुकी थी. श्वेता की गुमशुदगी की रपट थाने में लिखवाने का भी कोई फायदा न हुआ. थानेदार उन दोनों को झूठी तसल्ली देने के सिवा और कर ही क्या सकता था. वैसे चारों तरफ से घूम कर शक की सूई बार बार अब्दुल्ला के नाम पर ही आकर रूक जाती. उसने  ही किसी नामुराद के कहने पर श्वेता का अपहरण किया और उसकी फूल सी बच्ची को उसके हवाले कर दिया. जैसे जैसे गुलाब बाई और शबाना का शक पुख्ता होता जा रहा था, वैसे वैसे अब्दुल्ला की बेचैनी भी बढ़ती है जा रही थी. उसे पुलिस पूछताछ के लिए तीन चार बार थाने पर भी ले जा चुकी थी. मगर वह इतना बड़ा घाघ निकला कि उसके मुंह से चूंऽऽऽ भी न निकल पाया. फिर एक दिन अब्दुल्ला भी आश्चर्यजनक रूप से गायब हो गया. अब तो गुलाब बाई और शबाना से लेकर पुलिस को भी पूरी तौर पर यकीन हो गया कि श्वेता का अपहरण अब्दुल्ला की रजामंदी से ही हुआ है. जिसने भी श्वेता का अपहरण करवाया होगा, वह बहुत ही शातिर दिमाग का है. पुलिस भी ऐसा मान चुकी थी. मगर बिना किसी पुख्ता सबूत के किसी सफ़ेदपोश पर हाथ भी नहीं डाला जा सकता था. गुलाब बाई और शबाना के जेहन में कुछ चेहरे उभरने लगे थे, जो श्वेता का अपहरण करवाने की कूवत रख सकता है. उस फेहरिस्त में पहला नाम राजा साहब का था. लेकिन शबाना का मानना था कि राजा साहब जैसे दिलेर इंसान ऐसी नीच हरकत नहीं करवा सकते. दूसरा चेहरा था विधायक तिवारी जी के बेटे रंजन का. उस लुच्चे के नाम पर शबाना की भी रजामंदी थी. मगर सिर्फ शक के आधार पर किसी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती थी न. वह भी इतने बड़े बड़े लोगों से पंगा लेना आसान न था. 

दोपहर का समय था. गुलाब बाई अपने कमरे में लेटी हुई श्वेता के बारे में ही सोच रही थी. सोचते सोचते कब उसकी आंखें लग गयी उसे पता ही नहीं चला. 

"अम्मा.... अम्मा!" शबाना की आवाज सुनकर उसकी आंखें खुल गयी. उसे लगा जैसे श्वेता आ गयी है और शबाना यह खुशखबरी सुनाने के लिए आयी है.

"क्या बात  है शबाना, श्वेता आ गयी क्या?" गुलाब बेचैनी से पहलू बदलती हुई पूछ बैठी.

"नहीं अम्मा, राजा जी और अवस्थी जी आए हैं."

"क्या....?" गुलाब बाई बुरी तरह से चौंक कर उछल पड़ी. इस दोपहर में राजाजी और अवस्थी जी का उसके कोठे पर आने का क्या तुक हो सकता है.? कहीं वे‌ दोनो श्वेता का कोई सुराग लेकर तो नहीं आए हैं? वह पलंग पर से उतरती हुई बोली -

"शबाना, बेटी तब तक तुम उनलोगों की  खिदमत करो मैं मुंह-हाथ धोकर आ रही हूं."

"ठीक है अम्मा, आप जल्दी आना." शबाना तेजी से बाहर निकल गयी.

           *****

  कुंवर वीरेंद्र सिंह के साथ उपेन्द्र नाथ अवस्थी जी मसंद के सहारे बैठे हुए बार-बार जीने की ओर देखने लग जाते. उन दोनों की बेचैनी अजीब सी थी. श्वेता के गायब होने के बाद वे‌ दोनों आज प्रथम बार गुलाब बाई के कोठे पर आये थे. इस बीच  में घटी घटनाओं की उन्हें रत्ती भर भी जानकारी न थी. मगर शबाना को अकेली आते देख उन दोनों के दिल को धक्का लगा. खासकर अवस्थी जी के चेहरे पर मायूसी छा गयी.

"हुजूर की खिदमत में क्या पेश करूं." उन दोनों महानुभावों के सामने बैठकर शबाना ने बड़े अदब से पूछा.

"माफ करना, अभी हमलोग मुजरा सुनने नहीं आए हैं " जवाब राजा जी के बदले अवस्थी जी ने दिया.

"तो फिर आपलोगों के आने का सबब क्या हो सकता है.?" यह सवाल  गुलाब ने पूछा था जो उसी समय बालकॉनी की सीढ़ियां उतर रही थी.

"आओ गुलाब बाई बैठो फिर पूरी बात बताता हूं." जवाब राजा जी ने दिया. और उनका जवाब सुनकर गुलाब बाई का दिल तेजी से धड़कने लगा. निश्चित ‌रूप से ये दोनो मेरी बेटी के बारे में ही खुशखबरी सुनाने आए हैं. गुलाब बाई उनके समक्ष आकर अदब  से कोर्निश करके बैठ गयी. बात की शुरुआत राजा जी ने की -"गुलाब बाई तुम इनको तो पहचानती ही हो.?" उनका इशारा अवस्थी जी की ओर था.

"हां हां क्यों नहीं पहचानूंगी? हमारे कोठे पर आने वाले ये खास मेहमान हैं."

"वो तो है ही, मगर इसके अलावा भी इनकी एक और खासियत है. ये हिन्दुस्तान के माने हुए कहानीकार हैं. इन दिनों ये एक उपन्यास लिख रहे हैं."

"अच्छा....!" यह जानकर गुलाब बाई की जगह शबाना खुशी से उछल पड़ी. और उसकी आंखों में चमक आ गयी. 

"हां....!" इस बार अवस्थी जी, शबाना की ओर देखते हुए बोल पड़े -"मैं जो उपन्यास लिख रहा हूं वह इस बदनाम कोठे की नर्तकियों की जिन्दगी पर आधारित है." अवस्थी जी कुछ देर के लिए ख़ामोश हो गये. उनकी बातें सुनकर जहां शबाना की उत्सुकता जग गयी वहीं गुलाब बाई अंदर ही अंदर झुंझला उठी. उसे उपन्यास कहानी में कोई दिलचस्पी नहीं थी. अवस्थी जी अपनी बात जारी रखते हुए शबाना से बोले -"तुम्हें याद होगा शबाना, श्वेता की मुंह दिखाई के दिन मैंने उसे एक कलम उपहार में दिया था."

"हां....हां याद है." 

"उस कलम को पाकर वह इतनी प्रसन्न हुई थी कि पान का बीड़ा उठाने के बहाने उसने मेरे पांव छू लिए थे और मेरे मुंह से निकल पड़ा था - पश्यन्ती."

"याद है, अच्छी तरह से याद है और आप - मिल गयी, मिल गयी मेरी नायिका मिल गयी" कहते हुए यहां से चले गये थे." शबाना की आंखों में चमक आ गई. वहीं गुलाब बाई अवस्थी जी की बातें सुनकर उबने लगी थी. अवस्थी जी बोले -

"बिल्कुल सही, मेरे उस उपन्यास की नायिका श्वेता ही है."

"अच्छा.....!" शबाना के मुंह से निकल पड़ा.

"मैं श्वेता से उसकी कुछ अंतरंग बातें जानने के लिए आया हूं. थोड़ी देर के लिए उसे यहां बुलवा दो." अवस्थी जी के इस आग्रह को सुनकर शबाना के साथ साथ गुलाब बाई को भी जैसे काठ मार गया. वे दोनों फटी फटी आंखों से उन्हें देखने लगी. उन दोनों की खामोशी राजाजी को खल गयी, वे अपने राजपूती रोआब में आ गये और थोड़ा रुखे स्वर में बोल पड़े -

 "तुम दोनों खामोश क्यों हो गयी गुलाब बाई."

"श्वेता नहीं आ सकती हुजूर." अपने दर्द को छुपाती हुए गुलाब बाई सपाट स्वर में बोली. उसके इस इंकार को सुनकर राजा जी के साथ साथ अवस्थी जी भी भौंचक रह गये. राजा जी ने इसे अपना अपमान समझा और वे चिल्ला पड़े . -

"क्यों, क्यों नहीं आ सकती तुम्हारी बेटी यहां.? भरे बाजार में मुजरा कर सकती है, मगर अवस्थी जी से दो-चार बातें करने के लिए नहीं आ सकती, तुम्हें यदि इसके एवज में रुपए चाहिए तो बोलो मुंहमांगी रकम दूंगा, मगर अवस्थी जी को निराश मत करो."

"गुलाब बाई इतनी गिरी हुई तवायफ नहीं है हुजूर. जो इस मामूली सी काम के लिए  आप लोगों से रकम वसूल करे. मैं अपने दिल के ज़ख्म को कैसे दिखाऊं आपलोगों को.?" गुलाब बाई अपने आंचल से मुंह ढांप कर रोने लगी. राजा जी और अवस्थी जी हैरान रह गये. उनकी समझ में नहीं आया कि आखिर माजरा क्या है. अवस्थी जी शबाना से पूछ बैठे -"शबाना तुम बताओ, आखिर बात क्या है?"

"श्वेता का अपहरण हो चुका है हुजूर." शबाना भी गुलाब बाई की तरह रोने लगी.

"क्या.....?" कुंवर वीरेंद्र सिंह और उपेन्द्रनाथ अवस्थी जी के मुंह से एक साथ निकल पड़ा. और वे दोनों अपने अपने कृत्य पर आत्मग्लानि से भर उठे. 

"मुझे माफ़ कर दो गुलाब बाई, अनजाने में मुझ से बहुत भारी अपराध हो गया." राजा जी क्षमा याचना करते हुए बोले -"ऐसी बात थी तो तुम्हें पहले बताना चाहिए था." 

"कैसे बताती हुजूर, आपने तो कुछ बताने का मौका ही नहीं दिया."

"मगर यह सब हुआ कैसे.?" शबाना  की ओर देखते हुए बेचैन स्वर में पूछा अवस्थी जी ने.

"वो पिछले रविवार को श्वेता की ज़िद पर हमलोग इमामबाड़ा गयीं थीं वहीं.....!" शबाना ने इमामबाड़ा में घटी पूरी घटना सुना दी .

"गुलाब बाई, तुम्हें किसी पर शक है?" राजा जी ने गुलाब बाई से पूछा.

"किस पर शक करूं हुजूर. यहां आनेवाले तो सभी मेरे अपने हैं. यदि सही जानकारी जो दे सकता था तो वो अब्दुल्ला था, मगर वह भी गायब है." 

"ओह मामला काफी पेचीदा हो चुका है, ठीक है गुलाब बाई." राजा जी अपनी जगह से उठते हुए बोले - "मैं भी अपने स्तर से श्वेता का पता लगाता हूं."

"यदि आपने मेरी बेटी को ढ़ूंढ़ दिया तो आपका यह उपकार आजीवन न भूलूंगी." गुलाब के साथ साथ शबाना भी उठकर खड़ी हो गई. जाते-जाते अवस्थी जी ने शबाना की कलाई थाम ली-

"बहुत दिनों से मैं तुमसे कुछ कहना चाह रहा था, मगर कह नहीं पाया आज कहता हूं, एक दिन मैं तुम्हें इस कोठे की जिन्दगी से आजाद करवाऊंगा. इंतजार करना." इतना कहकर अवस्थी जी तेजी से सीढ़ियों की ओर बढ़ गये. उनकी बातें न तो गुलाब बाई ने सुनी  और न ही राजा जी ने. वे दोनों सीढ़ी तक पहुंच चुके थे. शबाना कुछ पल हैरान नजरों से उनकी ओर देखती रही फिर अपनी उस कलाई को चुमने लगी जिसे अवस्थी जी ने थामा था. उसकी उमंगें सातवें आसमान को छूने लगी थी.

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क्रमशः.......!

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