धारावाहिक उपन्यास
-- राम बाबू नीरव
बड़ी मुश्किल से बुआजी ने संध्या को फार्म हाउस में घूमने की इजाजत दी थी. मगर इस शर्त पर कि वह शीघ्र ही बंगले में लौट आएगी. सैकड़ों एकड़ में फैले फ़ार्म हाउस की खुबसूरती को देखकर संध्या के मन ने कहा -"इस धरती पर स्वर्ग यदि है तो बुआ जी के इस फार्म हाउस में ही है. एक ओर हरे-भरे खेत लहलहा रहे थे, तो दूसरी ओर किस्म किस्म के फलों का बागीचा और तरह तरह फूलों से आच्छादित बाग मन को मोह रहे थे. लहलहाते खेतों और खुबसूरत बागों का अवलोकन करती हुई वह उस तालाब पर पहुंची जिसके तारीफ के पूल शान्ति ने बांधे थे. संध्या अपनी आंखों से इस तालाब की सुन्दरता को देखकर मुग्ध हो गयी. और उसके मुखारविंद से बरबस ही निकल पड़े ये शब्द -
"गलत नहीं कहा था शान्ति ने."
तालाब के चारों तट पर नारियल के गगन चुम्बी पेड़ तालाब के सौंदर्य में चार चांद लगा रहे थे. सबसे सुहावना तो लग रह था उन पेड़ों पर लटक रहे नारियलों के गुच्छे. वहीं तालाब का पानी पूर्णतः निर्मल और स्वच्छ था. चारों ओर पक्का घाट और तालाब में उतरने के लिए सीढ़ियां बनी थी. मिट्टी का तो कहीं दर्शन ही न था. तालाब के बीचोबीच शायद सखुआ की लकड़ी का काफी मोटा जाट गड़ा था. जाट के ऊपर पीतल का एक गुंबद था, जो सूर्य का प्रकाश पाकर इस उषाकाल में इन्द्रधनुषी छटा बिखेर रहा था. गुंबद के ऊपर बैठा एक राजहंस अपने पंख फरफरा रहा था, मानो वह उड़ने की चेष्टा कर रहा हो. पहली नजर में वह राजहंस संध्या को वास्तविक प्रतीत हुआ, मगर शीघ्र ही उसे अपने भ्रम पर हंसी आ गयी. असल में वह किसी सिद्धहस्त शिल्पकार की अनुपम कलाकृति थी. तालाब के स्वच्छ जल में यत्र-तत्र हंसों के जोड़े तैर रहे थे, कहीं कमल के फूल तो कहीं कमौदनी के फुल संध्या को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे. वह तालाब की अनुपम छटा को निहारती हुई नीचे आ गयी, जब उसने स्वच्छ जल में देखा तब उसे अपनी आकृति के साथ छोटी बड़ी मछलियां तैरती हुई नजर आयी. यदि बुआ जी ने उसे शीघ्र ही लौट आने का आदेश न दिया होता तो वह घंटों यहां बैठकर इस अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य का अवलोकन करती रहती. ऊपर आ गई. फ़ार्म हाउस में फैले ग्रामीण परिवेश को देखकर उसे आभास हुआ जैसे भारत का कोई एक सुन्दर सा गांव इस फार्म हाउस में आकर बस गया हो. तालाब के उत्तर पश्चिम दिशा में यहां के खेतों और बागों में काम करने वाले मजदूरों के घर थे और उससे सटे बंगले में काम करने वाले नौकरों के आवास थे. वहीं पूरब उत्तर दिशा में एक काफी खुबसूरत कॉटेज था, कॉटेज में के बाहर कुछ सशस्त्र सुरक्षाकर्मी पूरी मुस्तैदी से चहल कदमी कर रहे थे. उस कॉटेज की भव्यता बता रही थी कि वहां किसी अति विशिष्ट व्यक्ति का परिवार रहता होगा. परंतु वह अति विशिष्ट व्यक्ति हो कौन सकता है और बुआ जी के साथ उनका सम्बन्ध क्या हो सकता है ? कहीं वे सज्जन बुआ जी के भाई तो नहीं हैं. ? नहीं वे नहीं हो सकते, क्यों कि शान्ति ने बताया था कि बुआ जी के भाई की आलीशान कोठी लखनऊ के सबसे पॉश इलाका इंदिरा नगर में है, जहां वे अपने परिवार के साथ रहते हैं और यदा-कदा ही इस फार्म हाउस में आते हैं. तो फिर आखिर उस कॉटेज में रहता कौन है? बुआ जी ने उसे सख्त हिदायत दी थी कि भूलकर भी उस कॉटेज की ओर मत जाना. आखिर बुआ जी ने उधर जाने से मना क्यों किया. आखिर इसके पीछे रहस्य क्या है ? उसका दिमाग चकरा कर रह गया. "ऊंह कुछ भी रहस्य हो मुझे क्या मतलब." लापरवाही से वह अपना कंधा उचकाती हुई उस दिशा में बढ़ गयी, जिधर इस फार्म हाउस का गोदाम और दीपक का आवास था. कुछ ही देर में वह दीपक के छोटे से कॉटेज के सामने खड़ी थी. दीपक कॉटेज के बरामदे पर एक बड़े से टेबल पर झुका हुआ कुछ लिखा-पढ़ी कर रहा था. टेबल के इस ओर दो कुर्सियां रखी थी. कुछ पल उसे निहारते रहने के पश्चात संध्या बरामदे पर चढ़ गयी. दीपक अपने काम में इतना तल्लीन था कि उसे इस बात का उसे आभास ही न हुआ कि कोई युवती उसके समक्ष आकर खड़ी हो चुकी है. संध्या बेतकल्लुफी के साथ एक कुर्सी पर बैठ गयी. फिर भी दीपक की तंद्रा भंग न हुई. संध्या को एक शरारत सूझी और वह अपनी दोनों केहूनी टेबल पर टिका कर चूड़ियां खनकाने लगी. चूड़ियों की खनक सुनकर दीपक ऐसे उछल पड़ा जैसे अचानक उसके समक्ष कोई भूत पिशाच आ गया हो. वह अपनी कुर्सी पर से उठकर भय से कांपने लगा. उसकी हालत देखकर संध्या खिलखिला कर हंस पड़ी.
"आ....आप." हकलालाया हुआ सा स्वर निकल पड़ा दीपक के मुंह से.
"जी हां मैं यानी संध्या." अपनी हंसी रोककर संध्या शरारती अंदाज में बोली -"डर गये न आप.?"
"न नहीं तो भला मैं आपसे क्यों डरूं?" अपना सीना फुलाते हुए बोला दीपक.
"आप चाहे जितनी भी सफाई दे लीजिए, मगर सत्य यही है कि आप डरे हैं जरुर." संध्या की मुस्कान गहरी हो गई.
"आपको जो समझना हो समझिए, आप स्वतंत्र हैं." दीपक तब तक सहज हो चुका था. -"इन बातों को छोड़िए और यह बताइए कि इस गरीब की कुटिया पर कैसे आना हुआ आपका.?"
"अच्छा तो आप गरीब हैं." दीपक की ऐसी बेतुकी बात सुनकर संध्या की भौंहें टेढ़ी हो गयी.
"जी हां, गरीब ही तो हूं मैं. जिसका इस संसार में कोई नहीं होता वह गरीब और भाग्यहीन ही तो होता है " दीपक के चेहरे पर मायूसी छा गई. उसकी इस मायूसी ने संध्या को भी मायूस कर दिया. मगर शीघ्र ही वह अपनी भावना पर काबू पाती हुई दीपक को ढ़ाढस बंधाती हुई बोली -"मेरा भी इस संसार में कोई नहीं, इसका मतलब मैं भी भाग्यहीन हूं. देखिए दीपक बाबू इस संसार में आने के बाद हर कोई अपनी तकदीर की रेखाएं अपने ही हाथों से लिखता है. हां उसमें अपनी तकदीर को संवारने की क्षमता होनी चाहिए. बुआ जी ने आपकी परवरिश की, मगर आज आप इस फार्म हाउस के मैनेजर हैं तो अपनी प्रतिभा और परिश्रम के बल पर ही न. माधव या कोई अन्य मजदूर क्यों नहीं मैनेजर बन गया. क्यों कि उन लोगों में न तो ऐसी तेजस्विता है और न ही इस ऊंचाई तक पहुंचने की सोच." संध्या की इन सारगर्भित बातों को सुनकर दीपक आश्चर्य चकित रह गया. यह लड़की तो अद्भुत है. इसके गायन प्रतिभा को तो उसने कल्ह मंदिर में ही परख लिया था. और आज यह किसी दार्शनिक की भांति उसे समझा रही है.
"अच्छा इन बातों को जाने दीजिए संध्या जी." दीपक बात का रूख दूसरी ओर मोड़ते हुए बोला -"आपने इतनी अद्भुत गायन प्रतिभा कहां से पायी."
"इस बारे में मैं क्या बताऊं, बस समझ लीजिए गॉड गिफ्टेड है." संध्या मुस्कुराने लगी.
"नहीं मैं नहीं मानता." दीपक सशंकित नजरों से उसे देखते हुए बोला -"आपके हाव-भाव बता रहे हैं कि आप सिद्धहस्त गायिका के साथ साथ एक कुशल नृत्यांगना भी हैं." दीपक की बातें सुनकर संध्या अंदर ही अंदर कांपने लगी -"क्या दीपक उसकी असलियत जान चुका है.? वह अपने भय पर काबू पाती हुई बोली -"आपका अंदाजा सही है दीपक बाबू, मैं प्रथम दिन ही बतला चूंकि हूं कि मैं दिल्ली में रहकर पढ़ाई के साथ साथ नृत्य गीत और संगीत की भी शिक्षा ले चुकी हूं."
"यह तो बहुत ही अच्छी बात है. जब आप के अंदर इतन बड़े बड़े हूनर हैं तो क्यों न आप अपना एक म्यूज़िकल ग्रूप खोल लेती हैं, इससे आपकी ख्याति भी होगी और अच्छा-खासा धनोपार्जन भी होगा."
"आपके इस सुझाव के लिए धन्यवाद दीपक बाबू. परंतु न तो मेरे मन में शोहरत पाने की ख्वाहिश है और न ही दौलत बटोरने की लालसा."
"वाह....! अजीब सोच है आपकी. खैर, ये बताइए कि अपनी बुआ जी के बारे में क्या ख्याल है आपका?"
"मुझ से बेहतर तो बुआ जी को आप जानते होंगे, क्यों कि बचपन से ही उन्होंने आपको पाला है. वैसे मेरी नज़रों में वे देवी हैं. उनकी मानवतावादी सोच और जनसेवा की भावनाओं का मैं सम्मान करती हूं. उन्होंने मुझे भी इस फार्म हाउस में आश्रय देकर उपकृत किया है, इसके लिए मैं कृतज्ञ हूं."
"यह सब तो ठीक है संध्या जी, परंतु बुआ जी के बारे में एक गुप्त बात मैं आपको बतलाता हूं."
"गुप्त बात....!" संध्या बुरी तरह से चौंक पड़ी -"भला ऐसी कौन सी बात है जिसे उन्होंने गुप्त रखा है ?"
"इन दिनों वे राजनीति में भी दिलचस्पी लेने लगी हैं और आगामी लोकसभा के चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से एमपी का चुनाव लड़ने वाली हैं "
"रोकिए.... रोकिए उनको दीपक बाबू." संध्या एकदम से भावुक होती हुई चिल्ला पड़ी. - "आजकल की राजनीति उनके व्यक्तित्व के बिल्कुल प्रतिकूल है. इस भ्रष्ट राजनीति के दल दल में फंसने से उनको रोकिए."
"आप ऐसा क्यों कह रही हैं." दीपक थोड़ा उत्तेजित होते हुए बोल पड़ा -"लोग सत्तारूढ़ पार्टी का टिकट पाने के लिए एड़ी-चोटी एक कर देते हैं. बुआ जी को ऐसा सुनहरा मौका मिलने जा रहा है तो आप उन्हें रोकने के लिए कह रही हैं."
"दीपक बाबू क्या आप यह नहीं जानते कि आज की राजनीति कितनी घृणित हो चुकी है. सौ में से बमुश्किल पांच ऐसे नेता मिलेंगे जिनका दामन बेदाग होगा. वे नेता भी कुर्सी पर बैठते ही उसी रंग में रंग जाया करते हैं. एक दूसरे के चरित्र पर कीचड़ उछालना, कुर्सी हथियाने के लिए धार्मिक और जाति उन्माद फैलाना ही एकमात्र मकसद रह गया है इन नेताओं का. ऐसे गंदे माहौल में बुआ जी अपनी छवि को स्वच्छ बनाए नहीं रख सकती. मैं उन्हें मदर टेरेसा के रूप में देखना चाहती हूं."
"संध्या जी, यदि देश के सभी लोग ऐसा ही सोचकर राजनीति से संन्यास ले लें तो फिर शासन चलेगा कैसे?"
"चलाने वाले चला ही रहे हैं. झूठे, मक्कार, नफरती लोग. यदि मैं यहां रह गयी तो कतई बुआ जी को इस गंदी राजनीति के दल दल में नहीं गिरने दूंगी." अपना निर्णय सुनाकर संध्या उठकर खड़ी हो गई.
"क्या आप जा रही हैं.?" दीपक भी अपनी कुर्सी पर से उठकर खड़ा हो गया. -
"हां, मुझे जाना ही होगा. बुआ जी ने जल्दी लौट आने को कहा था."
"कम-से-कम मेरे हाथ की बनी हुई चाय तो पीती जाइए."
"आपकी चाय उधार रही. फिर कभी....! अच्छा नमस्ते." संध्या ने अपने हाथ जोड़ कर औपचारिकता निभाई.
"जी नमस्ते." मुस्कुराते हुए दीपक ने प्रतिउत्तर दिया.
संध्या तिरछी नजरों से उसे देखती हुई चली गयी. दीपक की आंखें देर तक उसका पीछा करती रही. उसे अपने दिल के किसी कोने में मीठी-मीठी चूभन सी होती हुई प्रतीत हुई. फिर उसके मुंह से एक सर्द आह निकल पड़ी.
***
सचमुच शारदा देवी बड़ी बेचैनी से संध्या की प्रतीक्षा कर रही थी. जैसे ही संध्या उनके समक्ष आयी वे थोड़ा कुपित होती हुई बोल पड़ी -"इतनी देर कहां लगा दी.!"
"वो.... क्या है बुआ जी, दीपक ने रोक लिया था."
"अच्छा....अच्छा ठीक है, जाओ जल्दी से तैयार हो जाओ, तुम्हें मेरे साथ लखनऊ चलना है "
"क्या लखनऊ.?" संध्या बुरी तरह से घबरा गई.
"हां, आज डी. डी. यूं. महिला डिग्री कॉलेज का वार्षिकोत्सव है, उसमें मुझे चीफ गेस्ट बनाया गया है. वहां लखनऊ की बड़ी बड़ी हस्तियां रहेंगी, मैं उन लोगों से तुम्हारा परिचय कराना चाहती हूं." संध्या एकदम से जड़ होकर रह गयी. यदि उस समारोह में किसी ने उसे पहचान लिया तब क्या होगा.? उसका सर्वांग कांपने लगा. वह तुरंत बहाना बनाती हुई बोली -
"मुझे माफ़ करें बुआ जी, आज चलते चलते काफी थक गयी हूं. फिर कभी आपके साथ चलूंगी."
"ओह.....!" शारदा देवी मायूस हो गयी - "तो ठीक है, जाओ तुम आराम करो." संध्या ने राहत की सांस ली और तेजी से बाहर की ओर भाग खड़ी हुई. उसे ऐसा लगने लगा -"कहीं बुआ जी उसे रोक न लें."
∆∆∆∆∆
क्रमशः.......!
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