धारावाहिक उपन्यास
- राम बाबू नीरव
संध्या अब पूरी तरह ठीक हो चुकी थी. उसके माथे और सर के घाव भर चुके थे. शान्ति पूरी रात जग कर उसे इस फार्महाउस के साथ साथ शारदा देवी की भी कहानी सुनाती रही थी. बुआ जी की दर्द भरी दास्तान सुनकर संध्या व्याकुल हो गयी. भरी जवानी में ही वे विधवा हो गयी थी. एक पुत्र भी था उन्हें, मगर भगवान ने उनसे उनका वह सहारा भी छीन लिया. वे अपने ससुराल से निष्काशित कर दी गयी. तब उनके बड़े भाई ने उन्हें सहारा दिया और तीन सौ एकड़ में फैले इस फार्म हाउस का उन्हें मालकिन बना दिया. पहले तो उनके भाई ने उन पर दूसरी शादी करने का दवाब बनाया, मगर बुआ जी ने साफ साफ मना कर दिया. उन्हें एक तरह से वैवाहिक जीवन से विरक्ति हो चुकी थी. इस फार्महाउस की देखरेख के बाद जो समय बचता उसे वे समाज सेवा में लगा देती. पीड़ितों तथा समाज की सेवा करना एक तरह से उनका सगल बन चुका था. इस फार्महाउस में खेती भी होती है और बागवानी भी. धान, गेंहू, मक्का और बाजरा की इतनी उपज होती है कि उन अनाजों को लखनऊ की मंडियों में बड़े-बड़े व्यापारियों के हाथों बेचा जाता है. इसी तरह फलों में आम, लीची, सेव, बेदाना, इलाहाबादी अमरूद तथा पपीता भी उपजाए जाते हैं. इन फलों की बिक्री भी फल मंडी के बड़े बड़े व्यापारियों के हाथों की जाती है. बुआ जी तो ठहरी समाजसेविका उन्हें इतना लम्बा चौड़ा कारोबार संभालने की फुर्सत कहां रहती है. इसलिए दीपक बाबू ही कारोबार का हिसाब किताब रखते हैं. दीपक बाबू अनाथ हैं. बुआ जी ने उन्हें न सिर्फ सहारा और आश्रय दिया, बल्कि उन्हें एक तरह से अपना पुत्र बना लिया है. दीपक बाबू गोदाम के पास वाले कॉटेज में रहते हैं. इस बंगले में मैं और मेरे पति के अतिरिक्त पांच और नौकर नौकरानियां है. ये सभी फार्महाउस के उत्तर तरफ बने छोटे छोटे कॉटेज में अपने अपने परिवार के साथ रहते हैं. बुआ जी इन सबों का एक समान ख्याल रखती हैं. फार्महाउस के बीचोंबीच एक काफी खुबसूरत तालाब है, जिसकी खुबसूरती बेमिसाल है. तालाब के चारों ओर पक्का घाट बना हुआ है. यह तालाब इस फार्महाउस की शान है. बुआ जी के बारे में इतना सब कुछ तो बता दिया शान्ति ने, मगर जब उसके खुद की बारी आई तब वह खामोश हो गयी. उसका हर समय खिला रहने वाला चेहरा मुर्झा गया. संध्या के बहुत कुरेदने पर उसने जो बताया, उसे सुनकर संध्या तड़प उठी. उसके वैवाहिक जीवन के दस वर्ष बीत गये, मगर अभी तक वह मां नहीं बन पाई. उसके पति माधव की नजरों वही मां बनने योग्य नहीं है. जबकि डाक्टरों का कहना है कि उसमें कोई कमी नहीं है. इस कारण पति-पत्नी के बीच मनमुटाव रहा करता है. ऊपर से भले ही शान्ति खुश नजर आया करती है, मगर अंदर ही अंदर वह बिल्कुल टूट चुकी है. मगर शाबाशी देनी होगी शान्ति के धैर्य को, अपने हृदय की वेदना वह प्रकट नहीं होने देती. शान्ति की सरलता और मृदुलता ने ही तो संध्या के मन में दुबारा जीने की ललक पैदा की है. ऐसा निश्छल प्रेम आजके युग में कहां मिलता है.? शान्ति संध्या के पांवताने गाढ़ी निद्रा में सो रही थी. उसे प्रशंसनीय नेत्रों से देखती हुई संध्या ने एक अंगराई ली और पलंग से नीचे उतर कर बाथरूम में घुस गयी.
जब संध्या स्नान करके निकली, शान्ति जग चुकी थी. बिछावन पर बैठी हुई शान्ति एकटक संध्या को निहारने लगी. उसके रेशमी बालों से पानी की बूंदें मोती की भांति झड़ रहे थे. गोरा मुखड़ा कमल के फूल की भांति खिला हुआ था. तीन चार दिनों बाद स्नान करने के पश्चात वह स्वयं में ताजगी महसूस कर रही थी. अपने भींगे हुए बदन को उसने सिर्फ टॉवेल से लपेट रखा था. शान्ति की तीखी नजरें उसे चूभती हुई सी प्रतीत हुई. जब उसे ध्यान आया कि वह अर्द्धनग्न अवस्था में शान्ति के समक्ष खड़ी है, तब शर्म से उसका मुखड़ा लाल हो उठा और उसकी नजरें स्वत: ही झुक गयी.
"हे मेरे रामजी, तुम तो स्वर्ग की अप्सरा लग रही हो?" शान्ति उसके अप्रतिम सौंदर्य पर मुग्ध होकर हंसती हुई बोली. शान्ति के मुंह से अपनी प्रशंसा सुनकर वह छुई-मुई हो गयी और उसके मुंह से अनायास ही निकल पड़ा -"धत्...." फिर वह आलमीरा से पिंक कलर की साड़ी, साया और ब्लाउज, जो कल शाम को ही बुआ जी उसके लिए लेकर आयी थी, निकाल कर पुन: बाथरूम में घुस गई. शान्ति के समक्ष भला वह कपड़े कैसे पहनती. दुबारा जब वह बाहर आयी तब ऐसा प्रतीत हुआ जैसे सचमुच अप्सराएं भी उसके अलौकिक सौंदर्य के समकक्ष फीकी थी. शान्ति पूर्व की भांति ही बिछावन पर बैठी हुई उसकी प्रतीक्षा कर रही थी. उसे देखते ही वह बिछावन पर से उतर गयी और उसकी ठुढ़ी उठाती हुई बोल पड़ी -
"इतने दिनों बाद मुझे पता चला कि तुम सुंदरी नहीं महासुन्दरी हो. हे मेरे रामजी, रूप की इस रानी को कहीं किसी की नजर न लग जाए. चलो मैं अपने हाथों से तुम्हारा शृंगार करती हूं." सकुचाई, शर्माती हुई संध्या उसके साथ चलती हुई ड्रेसिंग टेबल के सामने रखी हुई कुर्सी पर आकर बैठ गयी. फिर तो शान्ति ने उसे सजा-संवार कर उसके सौंदर्य में चार चांद लगा दिया. जब आईना में उसने खुद को निहारा, तब उसे अपने ही सौंदर्य से ईर्ष्या हो गई. प्रथम बार उसे एहसास हुआ - सचमुच वह काफी खुबसूरत है. तभी तो धनंजय जैसा लंपट युवक उस पर मर मिटा था. क्षणभर के लिए उसका दिल इस एहसास से तड़प उठा कि उसका यह अलौकिक सौंदर्य ही उसका काल बन चुका है.
"क्या सोचने लगी संध्या?" शान्ति की आवाज सुनकर वह चौंक पड़ी.
"आ....कुछ नहीं." वह कुर्सी पर से उठकर खड़ी हो गयी और शान्ति की दोनों बांहें पकड़ कर अपनत्व भरे स्वर में बोली -"शान्ति, तुमने नि: स्वार्थ भाव से मेरी सेवा की. इन चंद दिनों में ही तुम मेरे हृदय में बस गयी हो. इस संसार में मेरा अपना कोई नहीं है, क्या मैं तुम्हें दीदी कहकर पुकार सकती हूं?"
"हे मेरे रामजी, तुमने मुझे इतना बड़ा मान दिया?" शान्ति उससे लिपट गई और खुशी के ऑंसू बहाने लगी.
"मान तो तुमने दिया है दीदी....मैं अनाथ हूं....!"
"चुप....!" शान्ति संध्या को खुद से अलग करती हुई शारदा देवी की भांति ही उसपर विफर पड़ी -"यदि तुमने खुद को अनाथ कहा तो मैं तुम से कभी बात नहीं करूंगी."
"मेरी अच्छी दीदी." संध्या उसके कपोल को चूम कर हंस पड़ी -"अब जब तुम मेरे साथ हो और बुआ जी की छत्रछाया मुझे मिल गयी, तब मैं अनाथ कहां रही? दीदी बैठे बैठे तो मैं बोर हो जाऊंगी, मुझे भी कोई काम बताओ न.?"
"हे मेरे रामजी, तुम पगला गयी हो का, बुआ जी सुनेंगी तो मुझे नौकरी से निकाल देंगी."
"नहीं निकालेंगी, यदि निकालेंगी तो मैं भी तुम्हारे और जीजा जी के साथ चल दूंगी." संध्या का परिहास सुनकर शान्ति हंस पड़ी. -"धत् पगली, बुआ जी ऐसी नहीं हैं. अच्छा चल मैं तुम्हें मंदिर ले चलती हूं, वहां बुआजी अपने अराध्य श्री राधाकृष्ण की पूजा अर्चना कर रहीं."
"क्या इस फार्म हाउस में मंदिर भी है?" संध्या चकित भाव से शान्ति की ओर देखने लगी.
"हां, इस बंगले के पीछे ही तो है राधाकृष्ण जी का मंदिर."
"तो ठीक है चलो." शान्ति उसकी कलाई थाम कर बंगले से बाहर निकल कर गयी.
*****
शान्ति के साथ मंदिर के प्रांगण में आकर संध्या भक्ति भाव से भर उठी. मंदिर में अपने अराध्य देव के समक्ष फार्म हाउस की कुछ मजदूर महिलाओं तथा उनके बच्चों के साथ बैठी शारदा देवी भगवान श्री कृष्ण का स्तुतिगान कर रही थी और सभी महिलाएं तथा बच्चें उनके भजन को दुहराते जा रहे थे -
"गोविन्द जय जय गोपाल जय जय
राधा रमण हरि गोविन्द जय जय...." शारदा देवी की आवाज उतनी अच्छी नहीं थी, फिर भी संध्या को उनकी भक्ति प्रिय लगी. वह शान्ति के साथ मंदिर में प्रविष्ट हो गयी और मजदूर औरतों के पीछे बैठकर सधी हुई राग के साथ मीरा बाई का एक भजन गुनगुनाने लगी. ऐसी सुमधुर स्वर लहरी सुनकर शारदा देवी चौंक पड़ी. जब उन्होंने पीछे मुड़कर देखा तब संध्या को आलापते देख कर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा. भक्ति में मग्न होकर अपनी ऑंखें बंद किये हुई वह तन्मयता पूर्वक गा रही थी -
"हरि मोरे, जीवन प्राण आधार....!
और आसरा नहीं तुम बिन तीनों लोक मझार .
हरि मोरे जीवन प्राण आधार.
आप बिना मोहे कछु न सुहाय,
निरखों सब संसार,
हरि मोरे जीवन प्राण आधार.
मीरा कहे मैं दास सवरी दीज्यौ मत बिसार
हरि मोरे जीवन प्राण आधार."
सिर्फ शारदा देवी ही नहीं बल्कि शान्ति के साथ साथ अन्य स्त्री, पुरुष और बच्चें चमत्कृत रह गये संध्या द्वारा गाये गये इस भजन को सुनकर. आज तक उन लोगों ने ऐसी सुरीली आवाज नहीं सुनी थी.
शारदा देवी को अपनी ऑंखों और कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. ऐसी सुरीली आवाज और सधी हुई तान में तो कोई सिद्ध-हस्त गायिका ही गा सकती है.
मंदिर से सटे ही पश्चिम तरफ दीपक का कॉटेज था. आज सुबह-सुबह जब उसके कानों में ऐसी सुरीली तान पड़ी तब वह एकदम से चौंक पड़ा. यह स्वर लहरी तो बुआ जी की कतई नहीं थी. वे प्रायः बेसुरे राग में भजन आलापा करती थी. फिर यह अनोखा चमत्कार कहां से हुआ. क्या बुआ जी ने किसी भजन गायिका को बुलवाया है. कोई भजन गायिका तो बिना किसी साज-बाज के गा नहीं सकती. तो फिर यह गायिका हैं कौन ? मंत्रमुग्ध सा वह मंदिर के प्रांगण में स्थित चबूतरे पर आकर बैठ गया और तन्मयता पूर्वक संध्या के भजन को सुनने लगा. चूंकि संध्या की पीठ उसकी ओर थी, इसलिए वह उसे पहचान नहीं पाया. भजन के समाप्त होते ही शारदा देवी मुग्ध भाव से संध्या की ओर देखती हुई आग्रह पूर्ण स्वर में बोली -"बेटी एक और भजन सुनाओ. लगता है हमारे राधा स्वामी ने ही तुम्हें यहां भेजा है."
"जो आज्ञा बुआ जी." संध्या मुस्कुराने लगी और उसने श्री राधाकृष्ण को श्रद्धा पूर्वक नमन किया फिर मीराबाई का ही दूसरा भजन आलापने लगी -
"बसो मेरे नैनन में नंदलाल, बसो मेरे नैनन में नंदलाल.
मोहनी मूरत, सांवली सूरत, नैना बने विशाल.
मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल अरुण तिलक शोभे भाल.
अधर सुधा रस मुरली राजति, उर बैजन्तिमाल..
क्षुद्र घंटिका कटि तट शोभित, भक्त बच्छल गोपाल
बसो मेरे नैनन में नंदलाल... बसो मेरे नैनन में नंदलाल."
"वाह.... वाह...वाह ! ऐसा मीठा स्वर तो मैंने आज तक नहीं सुना. आप चाहे जो भी हों, मेरे आग्रह पर एक भजन और सुना दीजिए." इस आग्रह को सुनकर संध्या चौंक पड़ी और मुड़ कर पीछे की ओर देखने लगी. चबूतरे पर दीपक को बैठा देखकर उसका अंग अंग पुलक उठा और वह मृदुल हास बिखेरती हुई बोल पड़ी - "मैं कोई गैर नहीं संध्या हूं दीपक बाबू. आपका अनुरोध सर ऑंखों पर. मगर आप वहां क्यों बैठे हैं, अंदर आ जाईए न."
"नहीं.... नहीं, मैं यहीं ठीक हूं. अभी मैंने स्नान नहीं किया है, आप सुनाइए." दीपक ने अपनी विवशता व्यक्त करते हुए कहा.
"जैसी आपकी इच्छा. तो लीजिए आपके अनुरोध पर सूरदास जी का एक भजन सुना रही हूं -
"निशि दिन बरसत नैन हमारे.... नैन हमारे.
सदा रहत बरखा ऋतु हम पर
जब तै श्याम सिधारे, निश दिन बरसत नैन हमारे. नैन हमारे....!
दिन अंजन रहत निसि वासर, कर-कपोल भए कारे.
कंचुकी पट सुखत नहीं कबहुं उर बीच बहत पनारे.
ऑंसू सलील सबै भई काया पल न जात रिस टारे.
सूरदास प्रभु यहै परेखौ, गोकुल काहे बिसारे.
निश दिन बरसत नैन हमारे.....नैन हमारे."
शारदा देवी को लगा जैसे स्वयं राधा रानी अपने कृष्ण कन्हैया के वियोग में तड़पती हुई गा रही हो. उनकी ऑंखों से अविरल अश्रूधारा प्रवाहित होने लग गई. शान्ति भी मुग्ध थी और दीपक का तो कहना ही क्या था.! वह सोच रहा था -"इतनी उच्च कोटि की गायिका अनाथ कैसे हो सकती है?"
∆∆∆∆∆
क्रमशः.............!
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