धारावाहिक उपन्यास 

 -रामबाबू नीरव


पूरे लखनऊ में गुलाब बाई के कोठे और श्वेता की नजाकत भरी शोख अदाओं की धूम मच गयी. मुंह दिखाई वाले दिन के बाद से उसकी खुबसूरती को देखने और उसके मुजरा को सुनने के लिए नये नये रसिक आने लगे. लगातार कई दिनों तक कुंवर वीरेंद्र सिंह, नवाब बशीरुद्दीन अहमद लखनवी, मुख्तार  अहमद देहलवी, सेठ जगत नारायण वर्णवाल तथा रंजन सिंह श्वेता के सौंदर्य का रसपान करने के लिए आते रहे, परंतु कहानीकार उपेन्द्र नाथ अवस्थी और धनंजय का उस दिन के बाद से कोई अता-पता ही न था. रसिकों की भीड़ में श्वेता उत्सुक आंखों से उन दोनों को ढ़ूंढती रहती, मगर व्यर्थ. धीरे-धीरे वह उन दोनों को भूलती चली गयी. लगभग दो माह बीत गये. इस बीच गुलाब बाई के कोठे पर बेचा अनगिनत रसिक मिज़ाज लोग आते रहे और जाते रहे, मगर अवस्थी जी और धनंजय ऐसे गायब हुए गोया उन दोनों का कोई अस्तित्व ही न रहा हो. श्वेता को लगने लगा मानो मुजरा करते करते उसकी जिन्दगी में एकरसता आती जा रही है. इस एकरसता को दूर करने की गर्ज से

एक दिन उसने अपनी मां गुलाब बाई के समक्ष इमामबाड़ा देखने की इच्छा प्रकट की, गुलाब बाई ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. गुलाब बाई श्वेता और शबाना के साथ साथ अपने वफादार सेवक अब्दुल्ला को लेकर इमामबाड़ा के लिए रवाना हो गई. श्वेता ने हल्के गुलाबी रंग की कामदार साड़ी पहनी थी. इस साड़ी में उसका सौन्दर्य काफी निखर गया था. उसे इस रूप  में देखने वालों को ऐसा लग रहा था जैसे आसमान में पूनम का चांद विहंस रहा हो. वहीं शबाना फिरोजी रंग के समीज सलवार में काफी फब रही थी. वह भी श्वेता से कमतर न थी. रविवार का दिन था, इसलिए आज इमामबाड़ा में काफी भीड़ थी. इमामबाड़ा का विस्तृत प्रांगण देशी विदेशी पर्यटकों से पूरी तरह भर चुका था.  महिलाओं की संख्या भी कम न थी, परंतु उन सभी महिलाओं में श्वेता और शबाना अलग-थलग दिख रही थी. मनचलों की चूभती हुई नजरों से बचती हुई वे दोनों गुलाब बाई, अब्दुल्ला और एक गाइड के साथ इमामबाड़ा के भूल-भुलैया में घुस गयी. हाथ में चार सेल का टार्च लिए हुए सबसे आगे गाइड चल रहा था, गाइड के पीछे गुलाब बाई थी और गुलाब बाई के पीछे शबाना, फिर श्वेता और सबसे पीछे था अब्दुल्ला. गाइड रूक रूक कर सभी को भूल-भुलैया की खास खास बातें बताता जा रहा था. अचानक उस घुप्प अंधेरे में शबाना को श्वेता की घुटी हुई सी हल्की चीख सुनाई दी. वह बुरी तरह से चौंक पड़ी और पलट कर पीछे की ओर देखने लगी. वहां न तो श्वेता थी और न ही अब्दुल्ला था. कुछ पल के लिए वह एकदम से भौंचक रह गयी, फिर हलक फाड़कर चीख पड़ी -

"अम्मा.....?" उसकी चीख सुनकर गुलाब बाई के साथ साथ  गाइड भी चौंक पड़ा.

"क्या हुआ शबाना, तुम इस तरह से चीखी क्यों.?" गुलाब बाई पीछे पलटकर शबाना की ओर देखने लगी.

"अम्मा....श्वेता...!" शबाना इतनी नर्वस हो चुकी थी कि उसके मुंह से पूरी बात निकल नहीं पाई. श्वेता का नाम सुनकर ही गुलाब बाई के होश उड़ चुके थे. उसने घबराई हुई आवाज में पूछा - "क्या हुआ श्वेता को ?"

"श्वेता और अब्दुल्ला दोनों नहीं है."

"क्या.....?"

गुलाब बाई को ऐसा  लगा जैसे आकाश टूटकर उस पर गिर पड़ा हो. गाइड के भी होश उड़ गये. गाइड टार्च के तीव्र प्रकाश में उन दोनों को ढ़ूंढने लगा, मगर वे दोनों वहां थे कहां जो मिलते.? 

"यहां तो नहीं है वे दोनों, चलिए दूसरी कोठरी में ढ़ूंढ़ते हैं." गाइड एक दूसरी तंग कोठरी में घुस गया. गुलाब बाई अपना सर पीटती हुई विलाप करने लगी -

"हे भगवान, कहां गुम हो गयी मेरी बेटी.?" 

दूसरी कोठरी में भी उन‌ दोनों का अता-पता न था. श्वेता को न पाकर ऐसा लगने लगा जैसे गुलाब बाई पागल हो जाएगी. शबाना बड़ी मुश्किल से उसे संभाले हुई थी, वैसे वह खुद भी श्वेता के अचानक गुम हो जाने के कारण बदहवास हो चुकी थी. इन चंद दिनों में ही वह श्वेता के साथ काफी घुल-मिल गयी थी. शबाना की आंखों से भी आंसू बहने लगे. कई कमरों में तलाश करते हुए वे‌ लोग दीवाने आम में पहुंच गये. अचानक शबाना की नजर अब्दुल्ला पर पड़ गयी, जो एक कोने खड़ा था. उसे देखते ही शबाना चिल्ला पड़ी -"अम्मा, वो देखो, वह रहा अब्दुल्ला." अब्दुल्ला को देखकर गुलाब बाई के दिल को कुछ राहत मिली, मगर उसके करीब पहुंचते ही उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया. 

"अब्दुल्ला, श्वेता कहां है.?" बेचैन स्वर में पूछा गुलाब बाई ने."

"मेरे को क्या मालूम, मैं तो खुद एक कमरे में गुम हो गया था, बड़ी मुश्किल से यहां तक पहुंचा हूं."

"तुम झूठ बोलते हो." शबाना उस पर बरस पड़ी. "तुम तो श्वेता के पीछे ही थे न."

"खुदा की कसम अम्मा, श्वेता आपा कैसे गुम हो गयी, मुझे नहीं मालूम."

"क्या बकवास कर रहे हो तुम." गुलाब बाई एकदम से पागल हो गयी. वह अब्दुल्ला के गालों पर थप्पड़ पर थप्पड़ मारती हुई चीखने- चिल्लाने लगी -"मेरी बेटी को तुमने ही अगवा करवाया है, बोलो कहां है मेरी बेटी ? नहीं तो मैं तुम्हारी जान ले लूंगी." गुलाब बाई की चीख-पुकार सुनकर वहां भीड़ एकत्रित हो चुकी थी और सभी आश्चर्य चकित भाव से उन तीनों को देख रहे थे. गाइड भी हैरान था कि आखिर यह हो कैसे गया.? उसने गुलाब बाई को सांत्वना देते हुए कहा -

"देखिए मोहतरमा इस तरह शोर मचाने से कुछ नहीं होगा. वो मेन गेट के पास पुलिस चौकी है, वहां जाकर गुमशुदगी की रपट लिखवा दीजिए." शबाना को गाइड का यह सुझाव पसंद आ गया और वह अब्दुल्ला और गुलाब बाई को साथ लेकर पुलिस चौकी की ओर बढ़ गयी.

             *****

बड़ी कठिनाई से श्वेता ने अपनी आंखें खोली. दर्द के मारे उसका सर फटा जा रहा था. अंग अंग चटख रहा था. पूरे बदन में सूइयां सी चूम रही थी. उसने महसूस किया - वह एक गलीचेदार मखमली बिछावन पर लेटी है. एक कराह के साथ वह उठकर बैठ गयी और चकित भाव से उस विशाल कक्ष को निहारने लगी. ऐसा प्रतीत हुआ जैसे यह किसी राजमहल का विलास कक्ष हो. मगर उसकी समझ में नहीं आया कि इस विलास कक्ष में वह पहुंची कैसे?  हां उसे इतना स्मरण है कि भूल-भुलैया में किसी ने उसकी नाक पर एक रूमाल रख दिया था और एक तीव्र दुर्गंध उसकी नासिका में घुसती चली गयी, उसके बाद क्या हुआ उसे कुछ भी पता नहीं. जब उसकी आंख खुली तब उसने खुद को इस कमरे में पाया. उस कमरे में चकाचौंध प्रकाश फैल रहा था. उस तीव्र प्रकाश में वहां की एक एक वस्तु स्पष्ट नजर आ रही थी. फर्श पर काफी कीमती ईरानी कालीन बिछा था. दीवारों पर कामोत्तेजक रतिक्रियाओं में निमग्न नायक-निकाओं की तस्वीरें टंगीं थी. ये तस्वीरें अजंता, एलेरा और खजुराहो की गुफाओं में अंकित मूर्तिकला की प्रतिरुप दिख रही थी. उस कक्ष की शोभा में श्रीवृद्धि करने वाली एक  एक वस्तुएं अद्भुत और बहुमूल्य थी. कक्ष के बीचोबीच संगमरमर से निर्मित एक आदमकद प्रतिमा खड़ी थी. यह प्रतिमा अप्सरा सी दिखने वाली किसी नवयौवना की थी. प्रतिमा पूर्णतः निर्वस्त्र तो नहीं थी, परंतु प्रतिमा में चित्रित युवती निर्लज्जता की सीमा का अतिक्रमण अवश्य कर रही. उसके सुडौल और पुष्ट पयोधरों से आंचल सरक कर नीचे गिर रहा था, जिसे झुक कर उठाने की चेष्टा नायिका कर रही थी. मगर स्पष्ट लग रहा था कि शिल्पकार की मंशा नायिका द्वारा आंचल उठाये जाने को दर्शाना नहीं था बल्कि उसके पयोधरों को दिखाने की थी और शिल्पकार अपनी इस मंशा में कामयाब हो चुका था. प्रतिमा पर से श्वेता की दृष्टि  दीवारों पर टंगी हुई कलाकृतियों पर जाकर स्थिर हो गयी. उन कलाकृतियों का अवलोकन करते हुए उसका सम्पूर्ण शरीर रोमांचित हो उठा. यह कक्ष चाहे जिसका भी रहा हो, मगर यह सत्य था कि वह व्यक्ति निश्चित रूप से अति कामुक होगा. ऐसे अश्लील और कामोत्तेजक चित्र तो किसी राजा, महाराजा, सामंत या फिर किसी रंगीन मिजाज नवाब के शयन कक्ष में हुआ करते हैं. तो क्या यह विलास कक्ष कुंवर वीरेंद्र सिंह का है ? नहीं नहीं कुंवर वीरेंद्र ऐसे पातकी नहीं हो सकते. तो फिर नवाब साहब का होगा.! मगर इस कमरे में इस्लामिक सभ्यता की झलक तक नहीं है. तब तो निश्चित रूप उस तोंद वाले सेठ जगत नारायण वर्णवाल का ही होगा. श्वेता को पूर्ण विश्वास हो गया कि उसका अपहरण सेठ वर्णवाल ने ही करवाया है. उसके मुंह से वर्णवाल के लिए एक भद्दी सी गाली निकल पड़ी -"साले कुत्ते की नर्क में जाने की उम्र हो चुकी है और अभी तक औरतों को भोगने का चस्का मन से नहीं गया. साला मेरे सामने तो आए, उसका तोंद न फोड़ दूं तो मेरा नाम श्वेता नहीं." क्रोध के मारे उसकी आंखें दहकने लगी और नथूने फुलने- पिचकने लगे. मन ही मन वर्णवाल को अश्लील से अश्लील गालियां देती हुई वह पलंग से उतर कर उस अप्रतिम प्रतिमा के समक्ष आकर खड़ी हो गयी. गौर से देखने पर उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे यह प्रतिमा सजीव हो.

"सौंदर्य की इस देवी का मेरे रंगमहल में स्वागत है." पीठ पीछे से आयी इस आवाज को सुनकर वह बुरी तरह से चौंक पड़ी और एकवारगी ही पलट गयी. फिर तो जिस शख्स पर उसकी नजर पड़ी उसे देखते ही उसका सर चकरा कर रह गया और उसे अपनी  आंखों पर विश्वास न हुआ. अपनी पलकें झपका झपका कर वह उसे निहारने लगी. फिर उसके मुंह से स्फुट सा स्वर निकला पड़ा -"तुम......?"

"जी हां, मलिका-ए-हुस्न आपका खादिम धनंजय." अपनी जीत पर दुष्टता पूर्वक मुस्कुरा रहा था धनंजय. उसकी इस ज़हरीली मुस्कान को देखकर श्वेता के पूरे बदन में आग लग गयी. वह हलक फाड़कर चीख पड़ी -

"मक्कार, जलील इंसान, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरा अपहरण करवाने की.?"

"वाह, कमाल करती हो श्वेता रानी. मैंने तुम्हें एक तवायफ की गलीज जिन्दगी से मुक्त करवाया, इस नेक काम के लिए मुझे शाबाशी देने की बजाए मुझे कोस रही हो."

"चुप, बेगैरत इंसान." शोला की तरह भड़क उठी श्वेता -"तुमने जिस नापाक इरादे से मेरा अपहरण करवाया है, वह इरादा तुम्हारा कभी कामयाब नहीं हो पाएगा." 

"श्वेता." अचानक धनंजय का स्वर बदल गया. वह एकदम से संजिदा होते हुए अपना दर्द बयां करने लगा -"तुम मानो या न मानो मगर यह सच है कि पहली नजर में ही मैं तुम पर मर मिटा हूं. तुम्हें चाहने लगा हूं. लखनऊ की उस मंडी में मुझे आज तक तुझ जैसी अद्भुत लड़की देखने को नहीं मिली. मैं सौगंध खाकर कहता हूं कि आज तक मैंने किसी भी लड़की के साथ सहवास नहीं किया है. मैं ऐसा इंसान हूं, जिसे आज तक किसी से प्यार नहीं मिला. प्यार पाने के लिए मैं तड़प रहा हूं."

"क्या, तुम्हारे मां-बाप तुम्हें प्यार नहीं करते.?" उसके दर्दे दिल का  हाल जानकर 

श्वेता द्रवित हो गयी. उसे लगा - सचमुच यह युवक किसी का प्यार पाने के लिए  तड़प रहा हो.

"नहीं, बिल्कुल नहीं करते. तुम्हें याद है न, पहली बार जब मैंने तुम्हें देखा था, तब विदा लेते समय मेरे मुंह से निकला था - मेरे पिताजी को दौलत कमाने से फुर्सत नहीं है और मां दौलत पाकर अंधी हो गयी है. ये बातें बिल्कुल सच है."

"मगर.....!"

"देखो श्वेता उस कोठे पर तुम एक तवायफ के सिवा और कुछ नहीं बन सकती. यदि मेरी बन जाओगी तो मेरे साथ साथ तुम्हारी भी तकदीर संवर जाएगी." धनंजय  ने कुछ इस अंदाज में कहा कि श्वेता को पूरा विश्वास हो गया यह युवक बिल्कुल सत्य कह रहा है. वह कुछ बोली नहीं, एकटक उसकी ओर देखती रही. मन ही मन वह उस कोठे की घिनौनी जिन्दगी से मुक्त होना तो चाह ही रही थी और धनंजय  ने उसे उस नर्क से निकाल कर उस पर उपकार तो किया ही था, मगर उसके जैसे शराबी और अय्याश युवक को अपना जीवन साथी वह कैसे बना लेगी.? उसे खामोश देखकर धनंजय ने समझा - श्वेता को उसका प्रस्ताव स्वीकार है. वह उत्फुल्लित भाव से बोला -

"तो क्या तुम्हारे मौन को मैं स्वीकृति समझूं?"

"इतनी लम्बी जिन्दगी का फैसला क्या मैं चंद मिनटों में कर लूं.? मान लिया  कि तुम पाक-साफ  और सच्चे इंसान हो, फिर भी मुझे सोचने समझने का कुछ वक्त तो दो...!"

"ठीक है, तुम सोच लो, मैं कल्ह फिर तुम से मिलूंगा. यहां तुम्हें किसी भी तरह की परेशानी नहीं होगी. मेरी नौकरानी तुम्हारी देखभाल करेगी. मैं उसे यहां भेजता हूं." धनंजय पलट कर द्वार की ओर बढ़ गया और‌ स्वेता पुनः बिछावन पर गिर कर धनंजय के बारे में सोचने लगी. क्या धनंजय पर विश्वास किया जा सकता है?

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क्रमशः............!

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