धारावाहिक उपन्यास 


 - रामबाबू नीरव 

बिछावन पर निढाल सी पड़ी हुई श्वेता बंद द्वार की ओर सूनी सूनी आंखों से देख रही थी. उसका भविष्य विकराल मुंह बाये उसके सामने खड़ा था. "धनंजय नाम का यह मनचला युवक जो किसी अमीर बाप का बिगड़ा हुआ बेटा है, उसे अपनी रखैल बनाना चाहता है. क्या वह उसकी रखैल बन जाए.?" यह एक ऐसा प्रश्न था जो श्वेता को अंदर ही अंदर बेचैन कर रहा था. वैसे तो धनंजय ने अपने को शरीफ साबित करने की पूरी चेष्टा की थी, मगर उसे अभी भी उसकी बातों पर यकीन न हो रहा था. भले ही उसने कैसी भी कसमें खायी हो मगर सच यही है कि वह‌ उसे रखैल के सिवा  किसी भी हाल में अपनी पत्नी नहीं बना सकता. एकबार फिर उसका दिल कसक उठा, क्या वह किसी गरीब मजदूर की ही सही , ब्याहता नहीं बन सकती? मगर कैसे बन पाएगी वह किसी कुलीन परिवार की कुलवधु ! उसके माथे पर गुलाब बाई की बेटी होने का ठप्पा जो लगा है. इस कलंक से तो वह मुक्त नहीं हो पाएगी न." अपने भविष्य के बारे में चिंतन करते करते वह इतनी व्याकुल हो गयी कि उसकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा प्रवाहित होने लगी. अपने दुर्भाग्य पर रोते रोते कब उसकी आंखें लग गयी, उसे पता ही न चला.

अचानक किसी के कोमल हाथ का स्पर्श पाकर उसकी आंखें खुल गयी. घबराकर वह झटपट उठ बैठी. उसके सामने तीस-बत्तीस साल की एक महिला हाथ में भोजन की थाली लिए खड़ी थी. वैसे तो उसका रंग सांवला था, मगर नयन नक्श इतने तीखे और आकर्षक थे कि किसी को भी सम्मोहित कर ले. उसके चेहरे का भाव बता रहा था कि श्वेता को देखकर न तो उसे खुशी हुई थी और न ही दु:ख हुआ था. वैसे देखने में वह हंसमुख लग रही थी. श्वेता समझ गयी, यह औरत इस रंगमहल की नौकरानी होगी. 

"बीबीजी." उसकी सुरीली आवाज श्वेता के कानों में पड़ी -"तुम जब से यहां आयी हो, तब से ही भूखी हो. पलंग पर से नीचे उतरो और भोजन कर लो." उसने डाइनिंग टेबल पर थाली रख दी. उसके बोलने का अंदाज श्वेता को अच्छा लगा. वह समझ गयी, यह औरत निश्छल और निर्मल स्वभाव की होगी. यदि इस पर प्रेम सुधा बरसायी जाए तो सहज में इसे अपना हमराज बनाया जा सकता है. 

"तुम्हारा नाम क्या है.?" उससे भी अधिक मीठे स्वर में पूछा श्वेता ने.

"रूपा."

"बड़ा प्यारा नाम है....आओ मेरे पास बैठो." श्वेता रूपा की कलाई खींचने लगी.

"ना बाबा ना...." वह एकदम से घबरा गयी -"मैं इस पलंग पर नहीं बैठ सकती. ऐसा जुल्म मत करो." रूपा अपनी कलाई छुड़ाने लगी.

"इसमें जुल्म की क्या बात है." श्वेता उसके भोलेपन पर हंस पड़ी. 

"मालिक के बिछावन पर नौकरानी होकर मैं बैठूंगी....हाय राम, गजब हो जाएगा.!"

"तुम बहुत भोली हो रूपा, लेकिन मैं मानूंगी नहीं. तुम्हें मेरे पास बैठना ही होगा." श्वेता पुनः उसकी कलाई पकड़कर एक झटके में उसे अपनी ओर‌ खींच ली. रूपा भड़भड़ा कर उसकी देह पर गिर पड़ी. 

"बीबी जी जाओ मैं  आपसे बात नहीं करती, आप तो बड़ी वो हो." रूपा खीझ पड़ी, मगर उसकी इस खीझ में एक अजीब सा अपनापन और कशीश थी. 

"वो....वो का क्या मतलब.?" श्वेता को अब उसे छेड़ने में मजा आने लगा था.

"जाओ मैं नहीं बताती." रूपा रूठने का अभिनय करने लगी.

"अरी, तुम तो रूठ गयी, भला अपनी छोटी बहन से भी रूठा जाता है.?" श्वेता कुछ इस अंदाज में बोली कि रूपा भौंचक सी उसे देखती रह गयी. उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि यह कोई बाजारु लड़की है. अपनी प्रसन्नता के उद्वेग को वह रोक न पाई और खुशी के मारे उसकी आंखें छलछला पड़ी. 

"बीबी जी, इस रंगमहल में आने वाली तुम पहली लड़की हो जिसने मुझ जैसी छोटी औरत‌ को इतना मान दिया है." श्वेता की आत्मीयता पाकर वह मुग्ध हो गयी. मगर उसकी बात सुनकर श्वेता बुरी तरह से चौंक पड़ी थी. 

"तुमने अभी अभी क्या है कहा, मुझसे पहले भी यहां लड़कियां आती रही हैं ?" उसने आश्चर्य से पूछा.

"क्या आप संजय बाबू को नहीं जानती ? वह एक नंबर का आवारा और बदमिजाज है. अमीर बाप का बिगड़ा हुआ बेटा  है वह. ऐसी ऐसी लड़कियों को वह यहां लेकर आता है बीबी जी, जिनके चाल-चलन देखकर मुझे घिन आने लगती है. इससे अच्छा तो ये होता कि वे नासपीटियां नंगी ही रहती. हरामजादी सब धनंजय के साथ बैठकर शराब पीती हैं, सिगरेट धूंकती है और गुलछर्रे उड़ाती है. एक दिन तो एक छोकड़ी ने मामूली सी बात पर मुझे तमाचा भी मार दिया. सच कहती हूं बीबी जी उस दिन मेरी इच्छा हुई थी कि गोमती नदी में कूदकर अपनी जान दे दूं. " रूपा की बातें सुनकर ‌श्वेता आवाक रह गयी. इतना गिरा हुआ इंसान है धनंजय ? ऐसा तो वह सोच भी नहीं पायी थी. आखिरकार इस मक्कार ने मुझे धोखा दे ही दिया."

श्वेता के दिल में भयानक तूफान मचलने लगा.

"बीबी जी, क्या सोचने लगी.?" उसे खामोश देख रूपा ने टोक दिया.

"नहीं, कुछ नहीं." वह चौंक पड़ी और अपने मन की व्यथा पर काबू पाती हुई रूपा की ओर देखने लगी -"इतना अपमान सहने के बाद भी तुम इस रंगमहल में क्या कर रही हो."

"क्या करूं बीबी जी, पापी पेट का भी तो सवाल है. इसलिए सारा अपमान भूलकर भी यहां रहना पड़ता है." रूपा की आवाज दर्द से लवरेज थी. 

"क्या वह नीच इंसान तुम्हारे साथ भी अश्लील हरकतें करता है."

"नहीं, उसकी इतनी हिम्मत नहीं हो सकती. इस रंगमहल में मेरे साथ साथ मेरे पति देव भी रहते हैं. और बाहर जितने भी गार्ड हैं, सभी मेरे रिश्तेदार हैं."

"ओह....!" श्वेता एक दीर्घ सांस लेती हुई पुनः अपने भविष्य को लेकर चिंतित हो गयी. 

"एक बात और कहूं बीबी जी" उसे खामोश  देखकर रूपा बोल पड़ी -"यदि औरत न चाहे तो किसी भी जालिम मर्द की मजाल  नहीं हो सकती  कि वह उसकी इज्जत पर डाका डाल दे." श्वेता एक अनपढ़ और गंवार औरत के मुंह से ऐसी सारगर्भित बातें सुनकर दंग रह गयी. कुछ देर बाद वह पुनः बोली - "बीबी जी,आप तो किसी भले घर की पढ़ी-लिखी और समझदार लग रही हो.... फिर इस लंपट और औरतखोर धनंजय की चंगुल में कैसे फंस गयी."

"क्या बताऊं दीदी, बस ये समझ लो कि मेरी बदकिस्मती मुझे यहां तक ले आयी है." श्वेता का स्वर भारी हो गया और आंखों से निर्झर की तरह आंसुओं की बौछार होने लगी. उसकी हालत देखकर रूपा का दिल तड़पने लगा. वह पलंग पर बैठ गयी और स्नेह से उसके बाल सहलाती हुई बोली -"रोओ मत बीबी जी, मैं जान गयी हूं, तुम बदचलन लड़की नहीं हो." रूपा का स्नेह पाकर श्वेता का रोम रोम पुलक उठा. वह उससे बेतहाशा लिपटती हुई बोली -"दीदी मैं  ईश्वर की सौगंध खाकर कहती हूं कि मैं गंगा जल की तरह पवित्र हूं, अक्षत कुमारी हूं मैं. उस पापी धनंजय ने इमाम बाड़ा से मेरा अपहरण करवा लिया है."

"क्या.....?" श्वेता की सच्चाई जानकर रूपा हैरान रह गयी.

"हां दीदी, किसी भी तरह से मेरी इज्जत बचा लो. मुझ अभागन पर दया करो." 

"चुप....चुप हो जा नहीं तो मारूंगी." रूपा एकदम से भावुक हो गयी. -"मुझे भी रूला दिया न. दीदी भी कहती हो और दया की भीख भी मांगती हो. अपने आंसू पोंछ लो. आजतक इस रंग महल में मैं सिर्फ पाप की भागीदार रही हूं, आज पुण्य बटोरने का एक मौका मिल रहा है, उसे कर लेने दो. मुझ पर और मेरे पति देव पर जो बीतेगी हम लोग सह लेंगे."

"सच दीदी....!" श्वेता की आंखें चमकने लगी. 

"बिल्कुल सच मेरी छोटी बहना." रूपा प्यार से श्वेता का गाल उमेठती हुई पलंग से नीचे उतर गयी. श्वेता भी नीचे उतर कर उसके चरणों में झुकती हुई बोली -"तुम महान हो दीदी." 

"अरे अरे यह क्या कर रही हो, मुझपर पाप चढ़ा रही हो." रूपा ने उसे बीच में ही थाम लिया.

"नहीं दीदी, एक देवी के रजकण लेकर पुण्य बटोरना चाहती हूं."

"बस बस रहने दे. जल्दी से भोजन करके सो जा. आज रात ठीक बारह बजे अपने पति के साथ तुम्हें लेने आऊंगी, तुम जागती रहना."

"ठीक है दीदी."

रूपा द्वार की ओर बढ़ गयी. श्वेता वहां पर झुक गयी जहां रूपा खड़ी थी और वहां की धुल उठा कर अपने मस्तक पर टिका की तरह लगा ली.

                *****

ठीक बारह बजे कक्ष का द्वार खुला. कक्ष में पूर्णतया अंधकार छाया हुआ था. श्वेता के कानों में रूपा की आवाज पड़ी -

"श्वेता.... उठो."

"मैं जाग रही हूं दीदी." श्वेता झटसे पलंग से नीचे कूद गयी. तभी रूपा ने उसकी कलाई थाम ली और उसे खींचती हुई बोली -"जल्दी चलो यहां से." जब श्वेता रूपा के साथ बाहर आयी तब द्वार पर एक चालीस वर्षीय व्यक्ति पर उसकी नजर पड़ी और वह ठिठक गयी. 

"घबराओ मत, ये मेरे पति देव हैं. हमलोग इस रंगमहल के पीछे वाले दरवाजे से तुम्हें बाहर निकाल देंगे, अब आगे क्या होगा यह तुम जानो."

"दीदी आप दोनों का यह उपकार मैं आजीवन नहीं भूलूंगी. मैं जैसे भी हो उस महापापी धनंजय के चंगुल से निकलना चाहती हूं. अब आगे जो भी होगा, ईश्वर ने चाहा तो अच्छा ही होगा." रूपा और‌ उसका पति रघुवीर उसे लिए हुए रंगमहल के पीछे की ओर दौड़ पड़े. यह रंगमहल किसी खुबसूरत बागीचा के बीचोबीच था. चारों ओर ऊंची ऊंची दीवारें थी जिसपर कंटिले तार लगे थे. इन दीवारों को फांदकर उस पार जाना कम-से-कम श्वेता के वश में न था. पूरब की ओर मुख्य द्वार था, जहां पर चौबीसों घंटे गार्ड मौजूद रहा करते थे. इसलिए मुख्य द्वार से उसे निकाल पाना भी संभव न था. श्वेता इतना तो समझ ही गयी कि ये दोनों उसे किसी गुप्त द्वार से बाहर‌ निकाल रहे हैं. झाड़-झंखाड़ के कारण अंधेरे में चल पाना मुश्किल हो रहा था. सैंडिल पहने रहने के वावजूद भी उसके पैरों में कांटे चूम रहे थे. कंटीले पौधों में फंस कर उसकी साड़ी भी केई जगहों से फट चुकी थी. मगर अपनी इज्जत को बचाने के उत्साह में उसे इन कष्टों की परवाह न थी. वे तीनों एक जगह आकर रूक गये. रघुवीर ने जंगली पौधों से आच्छादित उस गुप्त द्वार को बड़ी मशक्कत के बाद खोल दिया. 

"श्वेता तुम जल्दी से बाहर निकलो." रूपा उसे बाहर की ओर धकेलती हुई बोली. मगर श्वेता बाहर निकलने की बजाए उनके चरणों में झुक गयी. 

"यह क्या कर रही हो श्वेता, भागो यहां से." रूपा ने उसे पकड़कर पुनः बाहर की ओर धकेल दिया. 

"बाहर एक पगडंडी मिलेगी. उसी पगडंडी पर  दक्षिण दिशा की ओर चलती जाना, सौ कदम चलने के बाद में मेन रोड मिल जाएगा. में रोड के उस पार गोमती नदी है और पश्चिम दिशा में लखनऊ शहर." रूपा की बातों को आत्मसात करती हुई श्वेता पगडंडी पर दौड़ती चली गयी. वह जैसे ही मेन रोड पर पहुंची कि पूरब की ओर से उसे कुछ लोगों के दौड़ते हुए आने की आवाज सुनाई दी. वह बुरी तरह से घबरा गई और पश्चिम दिशा की ओर बेतहाशा दौड़ पड़ी. अभी वह दो चार कदम ही आगे बढ़ी थी कि उधर से तेज रफ्तार में आ रही एक गाड़ी से टकरा कर गिर पड़ी. गिरते गिरते उसे लगा कि अब उसकी इहलीला समाप्त हो चुकी है.

          ∆∆∆∆∆

क्रमशः   ‍

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