धारावाहिक उपन्यास 


- रामबाबू नीरव 

ठंडी ठंडी हवा के झोंकों के सुखद स्पर्श ने श्वेता के अचेत पड़े शरीर में कंपन ला दी. उसके मुंह से हल्की कराह निकली और बड़ी मुश्किल से वह अपनी ऑंखें खोल पाने में सफल हुई. उसने महसूस किया - उसके माथे पर ज़ख्म है, जिसकी टीस उसे बेचैन कर रही है. दाहिने पैर में भी असह्य पीड़ा की अनुभूति हुई उसे. चादर हटा कर वह पांव की ओर देखने लगी. उसके दाहिने पांव पर काफी मजबूती से पट्टी बंधी थी. या तो उसका यह पांव टूट चुका था या फिर ज़ख्मी हो चुका था. उसे रात की घटना स्मरण हो आई. धनंजय के रंगमहल से भागने के बाद वह किसी गाड़ी से टकरा गई थी. परंतु इतना बड़ा हादसा होने बाद भी वह जीवित कैसे बच गयी, यह घोर आश्चर्य की बात थी? वह यह देखकर भी हैरान थी कि किसी अच्छे सर्जन द्वारा रात को ही उसकी सर्जरी करा दी गई है. उसकी नजर अपनी साड़ी पर पड़ी, जो कई जगहों से फट चुकी थी. अपनी फटी हुई साड़ी देखकर उसे ग्लानि महसूस हुई. सर्वप्रथम उसे लगा कि वह किसी अस्पताल में है. परंतु जब उसकी नजर उस कक्ष की दीवारों  पर पड़ी तब वह बुरी तरह से चौंक पड़ी. वह किसी अस्पताल में नहीं बल्कि एक संभ्रांत परिवार में पहुंच गयी है. दीवारों पर भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, महात्मा बुद्ध के साथ साथ, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, शहीद भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद तथा अन्य महापुरुषों की तस्वीरें टंगी हुई थी. वह समझ गयी, उसे नयी जिन्दगी देने वाले सज्जन जो भी हैं वे धनंजय की तरह लंपट नहीं, बल्कि धार्मिक और सात्विक मन-मिजाज के हैं. जिस कक्ष में वह थी, वह सात्विक के साथ साथ आलीशान भी था. काफी कीमती पलंग और गलीचेदार बिछावन पर उसे लिटाया गया था. यानी उसे बचाने वाले सज्जन धनाढ्य भी हैं इसमें कोई शक नहीं. मगर वे हैं कौन....? उसकी जिज्ञासा प्रबल हो उठी. तभी उसकी दृष्टि अपने पांव ताने जमीन पर बैठी हुई एक महिला पर पड़ी जो शायद सारी रात जागकर उसकी सेवा करती हुई, पलंग के पुस्त पर सर टिका कर गहरी नींद में सो रही थी. उसकी वेश-भूषा देखकर वह समझ गयी कि यह औरत निश्चित रूप से इस हवेली की नौकरानी होगी. वह देखने में तीस के आसपास की लग रही थी. उसकी देहयष्टि भरा भरा और सुगठित था. चेहरा गोल-मटोल और रंग गोरा था. उसकी मांग में सिंदूर की लाली बड़ी मोहक लग रही थी. और उससे भी सुन्दर थी उसके माथे पर चमक रही लाल रंग की बिंदी.

"मैं कहां हूं.....?" उस औरत की ओर देखती हुई श्वेता उसे जगाने की गरज से क्षीण स्वर में बोली. शायद उस औरत की नींद पतली थी. श्वेता की आवाज सुनते ही उसकी नींद उचट गई और वह अपनी आंखें मिलमिलाती हुई श्वेता की ओर देखने लगी. फिर एक झटके में उठकर खड़ी हो गयी और श्वेता के पांव ताने ही बैठती हुई मृदुल स्वर में बोली - "हे मेरे रामजी, तुम्हें तो होश आ गया." उसके बोलने  के ढंग से लगा कि "हे मेरे रामजी" जैसे उसका तकिया कलाम हो. 

"आह.....!" पीड़ा के मारे श्वेता के मुंह से आवाज नहीं निकल पा रही थी, फिर भी वह पूरी ताकत जुटाकर बोली -"मैं कहां हूं और आप कौन हैं.?"

"हे मेरे रामजी इस लड़की को तो यह भी नहीं मालूम कि यह कहां है?" वह अपने ओठों पर मनमोहक मुस्कान लाती हुई भोलेपन से बोली -"तुम बुआ जी के फार्महाउस में हो."

"बुआ जी, कौन बुआ जी." श्वेता बुरी तरह से चौंक पड़ी. 

"हे मेरे रामजी, यह लड़की तो बुआ जी को भी नहीं जानती.?" उसकी निश्छल अदा को देखकर श्वेता सारी पीड़ा भूल गयी और मुस्कुराती हुई उसकी नकल उतारने लगी -

"हे मेरे रामजी, मैं तो यहां पहली बार आयी हूं, फिर कैसे जानूंगी कि आपकी बुआ जी आखिर हैं कौन?"

"तुम मेरी नकल करती हो." वह तुनक पड़ी फिर शीघ्र  ही सहज होकर हंसती हुई बोली -"चलो कोई बात नहीं, तुम मुझे पसंद हो इसलिए तुम्हारी इस पहली ख़ता को माफ करती हूं. अब बुआ जी के बारे में सुनो. वे इस पूरे फार्महाउस की मालकिन हैं. दयालु इतनी हैं कि किसी भी मुसीबत के मारे हुए को यहां ले आती हैं. गरीबों, मजबूरों और असहायों की सेवा करना ही उनका धर्म है." 

"ओह तो क्या इतनी महान हस्ती हैं बुआ जी?" बुआ जी के सम्मान में श्वेता का मस्तक स्वयंमेव झुक गया.  और वह मन ही मन सोचने लगी -"यदि बुआ जी ने उसे भी इस फार्महाउस में आश्रय दे दिया तब उसकी जिन्दगी संवर जाएगी."

"हे मेरे रामजी, मैं भी कैसी मूर्ख हूं, अभी तक तुम्हारा नाम भी नहीं पूछा. क्या नाम है तुम्हारा?" श्वेता के मनोभावों से बेखबर वह अपने चिर-परिचित हास्य अंदाज में पूछ बैठी. उसके प्रश्न को सुनकर श्वेता असमंजस में पड़ गयी. उसे वह क्या नाम बताए अपना? क्या वह इसे सब कुछ सच सच बता दें....? नहीं....नहीं यदि ऐसा करेगी तो अनर्थ हो जाएगा. जो आश्रय मिलने वाला है वह भी छीन जाएगा. और तब मैं या तो फिर से गुलाब बाई के कोठे की ज़ीनत बन जाऊंगी या फिर दर-बदर की ठोकरें खाने को मजबूर हो जाऊंगी. 

"क्या हुआ जी, तुम चुप क्यों हो गयी.... क्या अपना नाम बताना ‌नहीं चाहती."

"न न ऐसी बात नहीं है." वह तपाक से बोल पड़ी. संध्या.... हां यही नाम है मेरा, और तुम्हारा नाम क्या है?" (यहां से श्वेता को संध्या नाम से संबोधित किया जाएगा.)

"मेरा नाम शान्ति है."

"वाह, बड़ा प्यारा नाम है तुम्हारा और तुम्हारे पति देव का नाम क्या है?"

"हे मेरे रामजी, यह लड़की तो एकदम से बावली है. हम हिन्दू औरतें क्या अपने पति का नाम लेती हैं.?" शान्ति तुनक पड़ी.

"हे मेरे रामजी, यह  औरत तो एकदम से गंवार है." संध्या उसी की टोन में हंसती हुई बोली -"यदि किसी मुसीबत में फंस जाओगी, तब भी क्या अपने  पति का नाम नहीं बताओगी."

"हे मेरे रामजी, यह लड़की कहती तो सही है! अच्छा ठीक है, चलो बता देती हूं उनका नाम....उनका नाम है माधव."

"अरे वाह.... संध्या हर्ष प्रकट करती हुई बोली -"तब तो तुम्हें अपना नाम राधा रख लेना चाहिए था."

"धत्  ! अपने मां-बाप के रखे हुए नाम को मैं क्यों बदलूं. ?" शान्ति फिर से तुनक पड़ी.

"अच्छा अच्छा नाराज़  क्यों होती हो, मत बदलना अपना नाम. अब जरा बुआ जी का तो नाम बताओ."

"उनका नाम है ‌शारदा देवी." शान्ति ने बड़े आदर भाव से बुआ जी का नाम बताया. उसी समय शारदा देवी ‌ने कमरे में कदम रखा. अनायास ही ‌संध्या की दृष्टि उनके ऊपर जाकर स्थिर हो गयी. उसे लगा सचमुच कोई देवी स्नेह भाव से उसकी ओर देखती हुई करीब आ रही हो. उनका भरा भरा गोरा सुडौल शरीर, उनके प्रभावशाली मुखमंडल पर एक अप्रतिम आभा दमक रही थी. उन्होंने किसी देवी की भांति श्वेत साड़ी पहन रखी थी. आंखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा उनकी सम्पन्नता और सभ्रान्तता का परिचायक था. उनकी उम्र चालीस के पार रही होगी. परंतु संध्या के दिल को यह देखकर चोट लगी कि उनके प्रशस्त ललाट पर न तो बिंदिया थी और न ही माथे में सिंदूर. यानी वे विधवा थी. शायद इसलिए ही बुआ जी ने श्वेत परिधान धारण कर रखा था. उनके मुखमंडल की सौम्यता से वह उनके पूरे व्यक्तित्व को समझ गयी.

"यही हमारी बुआ जी हैं. " शान्ति संध्या के कान में फुसफुसाती हुई बोली. श्वेता पलंग पर संभल कर बैठ गयी. तब तक शारदा देवी पलंग के करीब आ चुकी थी. उनके रजकण लेने को वह उतावली हो उठी और पलंग से नीचे उतरने की कोशिश करने लगी मगर पीड़ा से तड़प उठी. शारदा देवी ने लपक कर उसे थाम लिया और बोल पड़ी -"अरे.... रे यह क्या कर रही हो.?"

"जिन्होंने मुझे नयी जिन्दगी दी, उनकी चरण वंदना करना‌ चाह रही थी." संध्या आदर प्रदर्शित करती हुई बोली. उसकी वाक्पटुता देख दंग रह गयी शारदा देवी. संध्या की सुंदरता ने तो रात्रि में ही उन्हें सम्मोहित कर लिया था, अभी इसकी शिष्टता और वाक्पटुता ने इन्हें मुग्ध कर दिया. वे स्नेहशील स्वर में बोली -

"जिन्दगी और मौत इंसानों के‌ वश में नहीं है बेटी हम तो मात्र माध्यम हैं. कालचक्र को चलानेवाला तो कोई और है. खैर छोड़ो इन बातों को पहले यह तो बताओ अब तुम्हारे तबियत कैसी है. ?"

"जी, बुआ जी, वैसे तो मैं ठीक हूं, मगर सर और पांव में हल्का हल्का दर्द है." 

"सब ठीक हो जाएगा, मेरा ड्राईवर गोपाल और इस फार्महाउस का मैनेजर दीपक डा० के० एन० गुप्ता जी को लाने गया है, बस कुछ ही देर में आ जाएंगे वे लोग....तब तक...." शारदा देवी की बात पूरी भी न हुई थी कि द्वार पर गोपाल के साथ डा० के० एन० गुप्ता के साथ दीपक नजर आया. 

"लो नाम लेते ही आ गये वे लोग." बुआ जी के मुंह से हर्षित स्वर निकल पड़ा. 

संध्या उन तीनों की ओर देखने लगी. सबसे आगे गोपाल था, जिसके हाथ में डाक्टर साहब का बैग था. उसके पीछे गर्दन में आला लपेटे हुए नाटे कद के संभ्रांत से दिखने वाले जो सज्जन थे निश्चित रूप से वे ही डा० के० एन० गुप्ता थे. और सबसे पीछे जो छरहरे बदन का सौम्य और शांत दिखने वाला युवक था, वह दीपक ही होगा इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं. पलभर में ही संध्या ने आकलन कर लिया. जब वे तीनों उसके बिछावन के करीब आ गये, तब संध्या अपने दोनों हाथ जोड़ कर डाक्टर साहब का अभिवादन करती हुई मृदुल स्वर में बोली -

"नमस्ते सर."

"खुश रहो....कहो कैसी हो.?" शारदा देवी के बगल की खाली कुर्सी पर बैठते हुए डा० के० एन० गुप्ता ने पूछा. वे संध्या की मृदुलता और चपलता पर मुग्ध हो गये. 

"बिल्कुल ठीक हूं सर. आपके जैसे योग्य चिकित्सक ने मेरा ट्रीटमेंट किया है, तो फिर ठीक कैसे न होऊंगी.?" उसकी बातें सुनकर सभी हंस पड़े. तभी संध्या की दृष्टि दीपक पर पड़ी, जो गुमसुम सा शारदा देवी के पीछे खड़ा था. संध्या उसे इंगित करती हुई परिहास पूर्ण स्वर में बोल पड़ी -

"शायद आपका नाम दीपक बाबू है?"

"जी.....जी, हां." दीपक एकदम से नर्वस हो गया. एक सर्वथा अंजान लड़की उसके साथ एकदम से आत्मीयता जोड़ रही है, उसके लिए यह हैरत की बात तो थी ही. 

"आप बैठने का क्या लेंगे?" संध्या की इस बिंदास अदा ने सब को सम्मोहित कर लिया. शान्ति तो मन ही मन इतनी प्रसन्न हुई कि उसकी इच्छा हुई इस लड़की को अपनी बाहों में भर लूं. मगर वह ऐसा कर न पाई. संध्या के आग्रह को सुनकर दीपक भी चमत्कृत रह गया और सकुचाते हुए खाली पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया. अचानक शारदा देवी शान्ति की ओर देखती हुई थोड़ा तेज आवाज में बोल पड़ी -

"शान्ति.... इन लोगों के लिए चाय कौन लाएगा?"

"हे मेरे रामजी, मुझसे बहुत भारी गलती हो गयी, अभी लेकर आती हूं बुआ जी." शान्ति तीर की तरह सनसनाती हुई वहां से भाग खड़ी हुई. उसके जाते ही वह कक्ष ठहाकों से गूंज उठा.

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क्रमशः...........!

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