धारावाहिक उपन्यास 


-रामबाबू नीरव 

शान्ति के जाने के बाद डा० के० एन० गुप्ता संध्या के ज़ख़्मी सर और पांव का निरीक्षण करने लगे. जब वे उसके ज़ख्मों को छूते तब उसके मुंह से हल्की कराह निकल पड़ती. हालांकि दर्द असह्य था मगर वह प्रकट होने देना नहीं चाहती थी. 

"देखो.....!" कुछ कहते कहते डा० गुप्ता अचानक रूक गये. फिर पूछ बैठे -"तुम्हारा नाम क्या है.?"

"श्वे..... नहीं नहीं संध्या." अपना वास्तविक नाम लेते लेते वह संभल गयी." उसके इस भाव को कोई समझ नहीं पाया.

"देखो संध्या, घबराने की जरूरत नहीं है दो तीन दिनों में ही तुम बिल्कुल ठीक हो जाओगी."

"मैं कहां घबरा रही हूं....घबरा तो रही है ये शान्ति और शायद बुआ जी भी घबरा रही हैं." संध्या हंसती हुई बोली.

"शायद, मेरी जगह कोई और होता तो इस हादसा को लेकर उसे भी चिंता होती." शारदा देवी संवेदनशील होती हुई बोली. -"वैसे एक बात मेरी समझ में नहीं आई संध्या बेटी, उतनी रात को तुम बिल्कुल अकेली सूनसान सड़क पर बेतहाशा दौड़ क्यों रही थी?" शारदा देवी का प्रश्न सुनकर संध्या अकबकाई सी उनकी ओर देखने लगी. उसकी समझ में न आ रहा था कि वह क्या जवाब दे. सभी उत्सुकता पूर्वक उसकी ओर देखने लगे. इन लोगों की जिज्ञासा को तो शान्त करना ही होगा. उसने मन ही मन एक झूठी कहानी गढ़ ली और अपनी लच्छेदार भाषा में सुनाने ‌लगी.

"बुआ जी, मैं अपनी दर्द भरी कहानी सुनाकर आपलोगों को व्यथित करना नहीं चाहती, बस इतना समझ लीजिए कि इस दुनिया में मैं बिल्कुल अकेली यानि अनाथ हूं."

"क्या बोली....तुम अनाथ हो.?" शारदा देवी तड़प उठी. डा० गुप्ता, दीपक और गोपाल के चेहरे पर भी दर्द के साथ साथ सहानुभूति का भाव उभर आया. 

"जी, बचपन में ही मेरे माता-पिता का देहांत हो गया. एक सज्जन को मैं ‌लखनऊ स्टेशन पर बिलखती हुई मिली थी. वे मुझे अपने घर ले आये और मेरा प्रतिपालन करने लगे. मगर मैं उनकी कर्कशा पत्नी को फूटी आंखों न सुहाया करती थी. अपनी पत्नी के रवैए से क्षुब्द होकर वे मुझे दिल्ली ले आये और एक हॉस्टल में मुझे रख दिया. जब मैं पढ़ने ‌लायक हो गयी तब उन्होंने एक अच्छे स्कूल में मेरा एडमिशन करवा दिया. प्रत्येक महीने की आखिरी तारीख को वे मुझे मिलने दिल्ली आया करते. जब मैं घर जाने की जिद करती तब वे मुझे किसी हिल स्टेशन पर ले  जाते. और‌ मैं घर जाने की बात भूल जाती. पढ़ने में मैं काफी तेज-तर्रार थी. इसलिए मुझे छात्रवृत्ति भी मिलने लगी. इसके साथ ही नृत्य गीत और संगीत में भी मेरी रुचि थी. मेरे पाल्य पिता ने मेरा दाखिला एक नृत्य विद्यालय में भी करवा दिया. इस तरह मैं पढ़ाई के साथ साथ, नृत्य, गीत और संगीत की भी शिक्षा लेने लगी. सबसे पहले मैं ‌नृत्य में निष्णात हुई, फिर मनोविज्ञान से स्नातक की डिग्री लेकर अपने पाल्य पिताजी की प्रतीक्षा करने लगी जो मुझे घर ले जाने वाले थे. काफी प्रतीक्षा के बाद भी जब वे‌ नहीं आए तब मैं स्वयं लखनऊ आ गयी. परंतु उन्होंने जो एड्रेस दिया था, वहां वे‌ नहीं मिले. वह फ्लैट किसी दूसरे सज्जन का था, जो उक्त फ्लैट में विगत कई वर्षों से रह रहे थे. मैं हैरान रह गयी और अपने पालनहार के इस झूठ ने मेरे हृदय पर तीव्र आघात किया."

"क्या पता बताया था उन्होंने?" शारदा देवी ‌ने पूछा.

"सआदत गंज, गली नंबर-5 और मकान नंबर -206"

"फिर क्या हुआ?" 

"डा. गुप्ता उत्सुकता पूर्वक उसकी ओर देखने लगे. 

"जब, मेरे पिता मुझे नहीं मिले, तब मैं एकदम से नर्वस हो गयी. मेरी समझ में न आया कि अब मैं क्या करूं, कहां जाऊं.? घूमते घूमते शाम हो चुकी थी. न मुझे भूख की चिंता थी और न ही तन की सुध. थक-हार कर मैं एक पार्क में जाकर बैठ गयी. मेरे हाथ में एक छोटा सा ब्रीफकेस था. जिसमें मेरे कपड़े, कुछ रुपए और सारे सर्टिफिकेट्स थे. तभी एक उच्चका मेरे हाथ से ब्रीफकेस छीनकर उत्तर दिया की ओर, जिधर एकदम सूनसान था, भागने लगा. मैं चोर चोर चिल्लाती हुई उसके पीछे भागने लगी मगर व्यर्थ. मैं उसे पकड़ न पायी. हताश होकर मैं पलट गयी. फिर चार पांच लोफरों को अपने पीछे देखकर तो मेरे  होश ही उड़ गये. वे सब मुझे खा जाने वाली नज़रों से घूर रहे थे. उनमें से एक ने मुझे पकड़ना चाहा, तभी मेरी छठी इंद्री जग गयी और मैं फिर पलट कर पूरी ताकत बटोर कर दौड़ने लगी. अंधेरे में मुझे लगा कि मैं किसी नदी के किनारे किनारे दौड़ रही हूं. शायद वह गोमती नदी थी.  मेरी इच्छा हुई कि मैं उस नदी में कूद कर अपनी जान दे दूं, मगर मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी कि अपनी जान दे देती. तभी मेरी नजर एक झोपड़ी पल पड़ी और बिना कुछ सोचे-समझे उस झोपड़ी में घूस गयी. वह झोपड़ी बिल्कुल सूनसान थी. दौड़ते दौड़ते मैं इतनी थक चुकी थी झोपड़ी में आकर बेसुध सी होकर गिर पड़ी. मुझे लगा कि मैं चेतना शून्य हो चुकी हूं. कब तक मैं वहां पड़ी रही, मुझे कुछ पता नहीं. काफी देर बाद कुछ लोगों की फुसफुसाती हुई आवाज सुनकर मेरी आंखें खुल गयी और अंधेरे में आंखें फाड़ फाड़कर देखने लगी. मेरे सामने वे ही चारों गुंडे खड़े थे, जो मुझे अपनी हवश का शिकार बनाना चाह रहे थे. मैं तेजी से उठी और पश्चिम दिशा की ओर भागने लगी कुछ ही दूरी पर जाकर मैं एक गाड़ी से टकरा गयी. जब मैं गाड़ी से टकराईं तब मुझे यही लगा कि मेरी इहलीला समाप्त हो चुकी है." अपनी कहानी सुनाकर वह रोने लगी. उसकी दर्द भरी दास्तां ने वहां उपस्थित सभी व्यक्तियों को भावुक कर दिया. सभी की आंखें नम हो गयी और उसके प्रति सभी दयार्द्र हो उठे. उसी समय चाय की ट्रे लिए हुई शान्ति ने अंदर कदम रखा. संध्या को सिसक सिसक कर रोते देख वह अपनी चिर-परिचित अंदाज में बोल पड़ी -"हे मेरे रामजी, यह लड़की तो फिर रोने लगी.'

"दुखी हैं बेचारी, रोएगी नहीं तो क्या करेगी ?" शारदा देवी के हृदय से करुणा फूट पड़ी. और वे पलंग पर बैठकर स्नेह से उसके बाल सहलाती हुई सांत्वना देने लगी -"चुप हो जा बेटी, ईश्वर जो भी करते हैं अच्छा ही करते हैं. यदि ऐसी दुर्घटना न हुई होती, तो हमारी तुम्हारी मुलाकात कैसे होती. समझ ले आज से तू मेरी बेटी है." 

"बुआ जी....!" संध्या बेतहाशा शारदा देवी से लिपट गयी. आखिर वही हुआ जो वह चाहती थी. बुआ जी ‌ने उसे अपना लिया, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती थी.

"अब क्यों रोती हो पगली. देख यदि तुम चुप न होगी तो मैं भी रोने लगूंगी." संध्या के गाल पर प्यार भरा चपत लगाती हुई बोली शारदा देवी. 

शारदा देवी का ममत्व भरा स्नेह पाकर संध्या अभिभूत हो गयी और श्रद्धायुक्त नेत्रों से उनकी ओर देखने लगी. 

"गरमागरम चाय पीलो." शान्ति हंसती हुई चाय का कप उसकी ओर बढ़ा दी. उसके इस हास्य पर इस गमगीन माहौल में भी संध्या मुस्कुराने लगी. डा० गुप्ता मुग्ध भाव से उसकी ओर ही देख रहे थे. वह मृदुल स्वर में उनसे बोली-" यदि मैं आपको अंकल कहूं तो आपको आपत्ति तो न होगी न सर?"

"नहीं, बिल्कुल नहीं, बल्कि मुझे प्रसन्नता होगी."

"तो लीजिए चाय पीजिए." 

हंसते हुए गुप्ता जी ने कप ले लिया. और अनुराग प्रकट करते हुए बोले -"एक बात कहूं संध्या बेटी "

"जी, अवश्य कहिए अंकल." 

"तुम अद्भुत और अनुपम हो."

"नहीं अंकल, मैं तो अभागन हूं, जिसके मां-बाप का पता न हो वह अभगिन ही तो कहलाएगी न.'

"चुप....!" शारदा देवी उस पर बिफर पड़ी. -"खबरदार आज के बाद खुद को अभागिन बोली तो थप्पड़ मारुंगी मैं "

"हां बुआ जी मारीए इसको थप्पड़, बहुत चटर-पटर करती है." शान्ति के इस परिहास पर सभी ठहाका मारकर हंस पड़े. इस बार गुमसुम सा बैठा दीपक भी पीछे न रहा और संध्या की ओर मुग्ध भाव से देखते हुए देर तक हंसता रहा. उसके मन में संध्या के प्रति जो अनुराग उत्पन्न हुआ था, वह संध्या से छुपा न रह सका और अनायास ही उसके मुंह से क्षीण सा स्वर निकल पड़ा -"पगला कहीं का." उसके मुंह से निकले इस स्वर को और‌ किसी ने तो नहीं, मगर शारदा देवी ने सुन ली और वे संध्या की ओर देखती हुई मंद मंद मुस्कुराने लगी."

             *****

क्रमशः.......!

0 comments:

Post a Comment

 
Top